यूपी के विभाजन की मांगः बुनियादी जरूरत विकास

प्रदीप मिश्रा

 

प्रदीप मिश्र

 

प्रदीप मिश्र

 

उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुलखान सिंह अब राजनीति करेंगे।
उन्होंने बुंदेलखंड लोकतांत्रिक पार्टी बनाई है। इसके जरिये वह अलग
बुंदलेखंड राज्य की मुहिम को नए तरीके से आगे बढ़ाएंगे। 2024 के लोकसभा
चुनाव में अलग राज्य को मुद्दा बनाया जाएगा। पिछले महीने केंद्रीय पशुधन
राज्यमंत्री डॉ. संजीव बालियान ने मेरठ में आयोजित अंतरराष्ट्रीय जाट संसद
के मंच से पश्चिमी उत्तर प्रदेश को पृथक करने की प्रबल पैरवी की थी। यह भी
कहा कि मेरठ नए राज्य की राजधानी बनेगी। पूर्वांचल राज्य के लिए भी आवाज
उठती रही है। विभाजन समर्थकों का तर्क है कि छोटे राज्य होने से नौकरियां,
शिक्षा, कानून-व्यवस्था ही नहीं, विकस की बुनियाद भी बेहतर बनती है।
दिलचस्प है कि 24 करोड़ से अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश से दुनिया में चार
ही देश बड़े हैं। 195 देश छोटे हैं। विश्व के छठे देश ब्राजील की जनसंख्या
21 करोड़ के करीब है। यूपी को बांटने की मांग पहली बार नहीं हुई है। 1955
में राज्य पुनर्गठन की प्रस्तावना में भाषाई आधार पर राज्य तय करते समय डॉ.
बीआर आंबेडकर ने उस समय के संयुक्त प्रांत को पश्चिमी, मध्य और पूर्वी नाम
से तीन राज्यों में बांटने की वकालत की थी। इनकी राजधानियां मेरठ, कानपुर
और तत्कालीन इलाहाबाद में सुझाई गई थी। 1972 में 14 विधायकों ने ब्रज, अवध
और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बांटने का प्रस्ताव दिया था।

देश में सबसे ज्यादा 75 जिलों और 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश का
राजनीतिक महत्व इतना है कि राजनीतिक दल मांग और आंदोलन का सीधा विरोध नहीं
कर सकते है। हालांकि गंभीरता से विचार की बारी कभी नहीं आई। आकलन के
मुताबिक 2026 में लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन के बाद प्रदेश में संसदीय
सीटों की संख्या 94-95 हो जाएगी। साफ है कि प्रदेश का महत्व और बढ़ेगा। 9
नवंबर 2000 को उत्तराखंड बनने के बाद आम लोग यूपी को पश्चिम (दोआब भी),
रोहिलखंड, अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के नाम से जानते रहे हैं। वर्तमान
परिदृश्य में मुख्यतः चार भाग माने जाते हैं। हालांकि क्षेत्रवार निश्चित
संख्या को लेकर मांग करने वाले संगठन एकमत नहीं है। फिर भी पश्चिमी उत्तर
प्रदेश में ब्रज, रोहिलखंड के अलावा मेरठ और सहारनपुर मंडल के 26 जिलों के
27 लोकसभा क्षेत्र और 137 विधानसभा क्षेत्र मांगे जा रहे हैं। वाराणसी को
राजधानी मानने वाले पूर्वांचल राज्य के समर्थकों का दावा है कि 17 से अधिक
जिलों की 23 लोकसभा और 117 विधानसभा सीटों पर उनका हक है। सुलखान सिंह
उत्तर प्रदेश के जिन सात जिलों को बुंदेलखंड का हिस्सा मानते हैं। उनमें
लोकसभा की चार और विधानसभा की 19 सीटें आती हैं। इसके बाद अवध का आकार,
आधार और अधिकार 30 जिलों की 26 लोकसभा और विधानसभा की 130 सीटों में ही सिमट जाएगा।

2007 में अपने बूते सरकार बनाने वाली मुख्यमंत्री मायावती ने 2012 के
विधानसभा चुनाव से पहले 21 नवंबर 2011 को विधानसभा में प्रदेश के चार
हिस्से करने का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा था। मनमोहन सरकार
ने इस प्रस्ताव पर कई स्पष्टीकरण मांगे और और इनका निस्तारण न किए जाने पर
प्रस्ताव लौटा दिया। मायावती सरकार ने पहली बार आधिकारिक तौर आधा-अधूरा
प्रयास किया था। इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाना था। प्रस्ताव में न तो
नए राज्यों की सीमाओं और राजधानियों का उल्लेख था, न ही प्रशासनिक
अधिकारियों के बटवारे का खाका खींचा गया था। जनता ने इसे समय से समझ लिया
और मायावती की मंशा पूरी नहीं हो सकी। बाद में बसपा ने भी इसे भुला दिया।
2019 के लोकसभा चुनाव के बाद और 2022 में विधासभा चुनाव के दौरान राज्यों
के पुनर्गठन को लेकर अटकलें सोशल मीडिया पर खूब छाई रहीं।

मध्य प्रदेश के आठ और यूपी के सात जिलों को मिलाकर की जा रही बुंदेलखंड की
मांग सर्वाधिक पुरानी है। 1948 से बुंदेलखंड का स्वतंत्र अस्तित्व था।
इतिहास बताता है कि मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले का नौगांव इस प्रदेश की
राजधानी था। कामता प्रसाद सिन्हा इसके मुख्यमंत्री थे। 1956 में प्रथम
राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों पर मध्य प्रदेश में बघेलखंड और बुंदेलखंड
को मिलाकर बने विंध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलों को उनकी इच्छा
जाने बगैर दो राज्यों में बांट दिया गया। 1989 में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा
बनाकर शंकर लाल मेहरोत्रा ने आंदोलन शुरू किया। 1998 में आंदोलनकारी उग्र
हो गए थे। 2012 में अभिनेता रजा बुंदेला ने बुंदेलखंड कांग्रेस का गठन कर
विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। हालांकि सफलता नाममात्र की भी नहीं मिली। पूरा
बुंदेलखंड खनिज संपदा से संपन्न है। अनदेखी के कारण क्षेत्र का विकास तो
हुआ ही नहीं, प्राकृतिक संसाधन माफिया की मुट्ठी में आ गए। मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ की दूरदृष्टि से बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे बनने के बाद
बुंदेलों को अपना बल और हुनर दिखाने के लिए खुला आसमान मिल गया है।

पूर्वांचल की आर्थिक असमानता की दास्तान 1962 में गाजीपुर के तत्कालीन
सांसद विश्वनाथ गहमरी ने लोकसभा में विस्तार से बताई थी। तत्कालीन
प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हालात समझने के लिए पटेल आयोग का
गठन किया था। आयोग ने रिपोर्ट भी सौंपी पर सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल
दिया गया। 1991 में प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने पर पिछड़ापन दूर करने
के लिए पूर्वांचल विकास निधि बनाई गई। 2017 में फिर बनी भाजपा सरकार ने
पूर्वांचल विकास बोर्ड बनाकर इसमें अयोध्या प्रयागराज और देवीपाटन मंडल को
शामिल किया। पश्चिम के मुकाबले पूर्वांचल आज भी पिछड़ा है। पश्चिम की कमाई
को सरकार द्वारा पूर्वांचल में खर्च किया जाता है। ये आंकड़े हवा-हवाई नहीं
हैं। विशेषज्ञों ने उत्पादकता, रहन-सहन और खर्च के आंकड़ों के आधार पर इनका ब्योरा दिया है।

राष्ट्रीय लोकदल के सुप्रीमो रहे चौधरी अजित सिंह ने 1991 में पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश बनाने की मांग उठाई थी। कुछ लोगों ने इसे
किसान प्रदेश का नाम दे दिया। 2000 के बाद इसे विस्तार मिला और केंद्र
सरकार के लिए भी बड़ा मुद्दा बन गया था। अब उनके बेटे चौधरी जयंत सिंह
पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जाट और किसान केंद्रित राजनीति कर रहे हैं। वह
पश्चिम उत्तर प्रदेश के समर्थक हैं लेकिन उनकी चुनावी सहयोगी सपा इससे सहमत
नहीं है। गौरतलब है कि सपा के प्रेरणा पुरुष डॉ. राम मनोहर लोहिया छोटे
राज्यों को प्रशासनिक नियंत्रण और समग्र विकास की बुनियाद मानते थे। इस
क्रम में उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड की बात जरूरी है।
उत्तराखंड अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है। उसकी अलग पहचान है। जुलाई 2023
में प्रदेश में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 2.33 लाख रुपये बताई जा रही है।
पिछले साल के मुकाबले इसमें 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पुरुषों और
महिलाओं की साक्षरता दर क्रमशः 88.33 और 70.70 प्रतिशत है। नए जिले बनने और
विधानसभा सीटें बढ़ने से विकास की बयार में हर क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़
गई। पहाड़ से पलायन की प्रवृत्ति पर पाबंदी लगी है। प्राकृतिक स्थलों पर
पर्यटन को पंख लग गए हैं।

अब 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के बंटवारे की मांग के पीछे
जन आकांक्षाएं और जनसमर्थन जुड़ गया तो इससे परिणामों पर प्रभाव पड़ना
स्वाभाविक है। अब नए संदर्भ में भाजपा को नहीं, सपा बसपा और कांग्रेस को
अलग राज्यों के पीछे निहित भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। संबंधित दलों को
सकारात्मक रुख अपनाने पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनाधार बढ़ाने का मौका
ही नहीं मिलेगा, समाज के बड़े वर्ग के संघर्ष को सफलता की सीमा तक संबल भी
दिया जा सकता है। वैसे भी जब सबका मंतव्य राजनीतिक वर्चस्व के बजाय
बुनियादी विकास हो तो सहयोग पर संशय नहीं होना चाहिए। अवधी, भोजपुरी,
ब्रजभाषा, खड़ी हिंदी, हरियाणवी और बुंदेली बोली, खान-पान की परंपराएं,
सामाजिक रीति-रिवाज और जातीय समीकरण भी प्रदेश के न्यायपूर्ण विभाजन की जरूरत बताते हैं।