प्राचीन भारत में महिला सशक्तिकरण: एक विश्लेषण

प्राचीन भारत में महिला सशक्तिकरण: एक विश्लेषण

डा रामजीलाल

अर्धांगिनी और सहधर्मिणी के रूप में सम्मान

वैदिक साहित्य में वर्णित है कि पति अपनी पत्नी के बिना अधूरा है। इसीलिए पत्नी को ‘अर्धांगिनी और सहधर्मिणी’ कहा जाता है। भारत के प्राचीन महाकाव्यों–रामायण और महाभारत–में महिलाओं को धर्म, सुख और समृद्धि का मूल स्रोत माना गया है। महिलाओं को अर्धांगिनी के रूप में सम्मान दिया जाता था। पुराणों के अनुसार, एक पुरुष अपनी पत्नी के बिना अधूरा है। पुराणों में, प्रत्येक देवता को उसकी पत्नी/महिला से जुड़ा दिखाया गया है, जैसे विष्णु-लक्ष्मी और शिव-पार्वती। रामायण और महाभारत काल में सीता-राम और राधा-कृष्ण, यानी, पुरुष के बजाय पत्नी/महिला को प्राथमिकता देकर उसका नाम पहले पुकारा जाता था। वर्तमान आधुनिक युग में भी ऐसे उदाहरण नहीं मिलते। महिलाओं के प्रति सम्मान स्पष्ट रूप से भारत की प्राचीन सभ्यता में विद्यमान है.

महिलाओं की देवी के रूप में पूजा

वैदिक संस्कृति के अनुसार जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं (यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता). जहां तक देवी के रूप में महिलाओं की पूजा का सवाल है मां दुर्गा, मां वैष्णो देवी, मां धारी देवी, मां नैना देवी, ज्वाला देवी, शीतला देवी, चामुंडा देवी, चिंतापूर्णी देवी, ब्रजेश्वरी देवी, बगलामुखी देवी, मनसा देवी, अन्नपूर्णा देवी, काली माता (कोलकाता), कुमारी अम्मानदेवी (दक्षिण भारत), उदयनूर देवी (दक्षिण भारत), मीनाक्षी मंदिर (मदुरै) और अयप्पा(सबरीमाला-केरल), मंदिर जैसी देवियों के मंदिर हैं। पूरे भारत में महिलाओं को देवी के रूप में पूजा और सम्मान दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में, तीन देवियों की पूजा की जाती है: सरस्वती (ज्ञान की देवी), लक्ष्मी (धन की देवी), और दुर्गा (शक्ति की देवी)। इन तीनों देवियों को उनके पतियों- ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी अधिक सम्मान दिया गया। पश्चिमी सभ्यता या दुनिया की किसी भी अन्य सभ्यता में आज भी महिलाओं को इस तरह का सम्मान नहीं मिलता। आज के समय में अगर कोई महिला बहुत शक्तिशाली है तो उसे ‘दुर्गा’ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, भारत-पाकिस्तान युद्ध (1971) में बांग्लादेश के निर्माण के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सम्मानपूर्वक ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था।

शिक्षा पाने का अधिकार

प्राचीन सभ्यता के इतिहास के पन्नों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उस समय लड़कियों को शिक्षा पाने की स्वतंत्रता थी। वेदों और उपनिषदों में उल्लेख है कि लड़कियाँ ‘ब्रह्मचारिणी’ हो सकती हैं; ‘ब्रह्मचारिणी’ का अर्थ है शिक्षा प्राप्त करने वाली। अथर्ववेद के अनुसार, ‘ब्रह्मचर्य से स्नातक होने वाली युवती को योग्य पति मिलता है’ (ब्रह्मचर्येन कन्या युवानं विन्दते पतिम्)। वर्तमान समय में यह मान्यता प्रबल होती जा रही है: लड़कियाँ जितनी अधिक शिक्षित होंगी, उनका विवाह उतने ही अधिक शिक्षित युवकों से होगा। चाणक्य नीति के दूसरे अध्याय के श्लोक के अनुसार – माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पथित: – वे माता-पिता शत्रु हैं जो अपने बच्चों को शिक्षित नहीं करते। दूसरे शब्दों में, बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है, और माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को शिक्षित करें। अतः स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में लड़के-लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया जाता था।
प्रसिद्ध विद्वान अल्तेकर के अनुसार, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के कारण महिलाएँ शैक्षणिक रूप से मजबूत थीं। उनकी बौद्धिक और शैक्षिक स्थिति बहुत ऊँची थी। उनके अनुसार, ऋग्वेद के भजनों की रचना 378 ऋषियों (ऋषियों) और 29 महिला ऋषियों (महिला विद्वानों) ने की थी। ऋग्वेद प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ तत्कालीन समाज के सामाजिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मुद्दों से संबंधित है। ऋग्वैदिक काल में महिलाओं को ‘ऋषि’ का दर्जा प्राप्त था। महिला ऋषियों को ऋषिका (ऋषि या कवि) कहा जाता था। प्राचीन काल की प्रमुख ऋषिकाओं में रोमशा, लोपामुद्रा, अपाला, कद्रू, विश्ववारा, घोषा, जुहू, वागंबरिनी, पॉलोमी, यामी, इंद्राणी, सावित्री, देवयानी, नोधा, अकृष्टभाषा, सिकतनवरी, गौपायन आदि उल्लेखनीय हैं।

ऋषियों से शास्त्रार्थ में स्वतन्त्र रूप से भाग लेने का अधिकार

महिलाओं (ऋषिकाओं) को विभिन्न विषयों – सांस्कृतिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक आदि पर पुरुष ऋषियों के साथ बहस में स्वतंत्र रूप से भाग लेने की अनुमति थी। इस संबंध में, ऋषियों को मैत्रेयी, सुलभा, गार्गी, लोपामुद्रा, कषाना, सिकता, वाक्, आदि के रूप में वर्णित करना काफी सटीक है। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं – मैत्रेयी और कात्यायनी। कात्यायनी घर चलाती थीं, जबकि मैत्रेयी को अपने पति के साथ बैठकर चर्चा करना पसंद था। महिला ऋषिकाएँ दार्शनिक विषयों पर वाद-विवाद में भाग लेती थीं। बृहदारण्यक उपनिषद के छठे और आठवें ब्राह्मण में गार्गी (गार्गी वाचकनवी) को एक महान ऋषिका के रूप में वर्णित किया गया है जो वेदों की जानकार और ज्ञान की भंडार थी। राजा जनक के दरबार में एक विद्वान सभा (ब्रह्मयज्ञ) हुआ करती थी जहाँ गार्गी और याज्ञवल्क्य दार्शनिक चर्चा करते थे। इसके अलावा लीलावती एक प्रसिद्ध गणितज्ञ थीं। इन महिलाओं को “ब्रह्मवादिनी” कहा जाता था क्योंकि उन्होंने बौद्धिक और आध्यात्मिक ज्ञान के शिखर को प्राप्त किया था। शिक्षकों को विनम्रतापूर्वक यदि वे अविवाहित हों तो विनम्रतापूर्वक “उपाध्याय” और “उपाध्यायनी” कहा जाता था।’सद्योवाड़ा’ सामान्य श्रेणी की महिलाएँ थीं। अतीत में, सामान्य श्रेणी की महिलाएँ खुद को बेहतर बनाने के लिए शिक्षा प्राप्त करती थीं। इस संदर्भ में, इतिहासकार अल्तेकर का दावा है कि वैदिक समाज में बाल विवाह आम नहीं था। सद्योवाड़ा ने एक बार केवल विवाह और परिवार की भलाई के लिए अध्ययन किया था।
वैदिक युग के दौरान, ब्रह्मवादिनी और महिलाओं ने शिक्षा प्राप्त की। परिणामस्वरूप, ये महिलाएँ संन्यासिनियाँ, दार्शनिक, कवि, उपदेशक और ऋषि थीं। चूँकि वे उच्च शिक्षित बुद्धिजीवी थीं, इसलिए समाज में महिला ऋषिकाओं को पुरुष ऋषिकाओं के समान दर्जा दिया जाता था। पाणिनि का दावा है कि वैदिक युग के दौरान, महिला छात्राओं के लिए छात्रावास भी उपलब्ध थे। इन छात्रावासों के प्रशासन पर महिला शिक्षिकाओं का अधिकार था। वैदिक युग में सह-शिक्षा भी बहुत देखी गई। वैदिक साहित्य में महिलाओं की उनकी योग्यता के लिए प्रशंसा के कई उदाहरण मिलते हैं। मालकिन और गृहस्वामी होने के अलावा, ऋग्वैदिक युग में महिलाएँ जिमनास्टिक, तीरंदाजी, घुड़सवारी, युद्ध, सार्वजनिक निर्णय लेने और पुरुष साथी चुनने जैसी अन्य गतिविधियों में भी शामिल होने के लिए स्वतंत्र थीं।

स्वेच्छानुसार अनुसार विवाह करने की स्वतंत्रता- स्वयंवर या गंधर्व विवाह विधवा पुनर्विवाह

वैदिक युग में सामान्य लड़कियों के विवाह की आयु 15 या 16 वर्ष थ. लड़कियों को सौंपा गया प्रमुख कर्तव्य अपने परिवार के कल्याण के लिए काम करना था. ऋग्वैदिक श्लोकों के अनुसार युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था. दूसरे शब्दों में इसे स्वयंवर या गंधर्व विवाह कहते हैं. युवतियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध विवाह करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था. नतीजतन, बड़ी संख्या में युवतियां जीवन भर अविवाहित भी रहती थी व अपने माता-पिता के साथ रहती थीं, इन्हें ‘अमाजुह’ कहा जाता था. प्राचीन साहित्य में बाल विवाह का उल्लेख नहीं है. हालाँकि, विधवा पुनर्विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी. ऋग्वैदिक सभ्यता (वात्स्यायन के कामसूत्र) में, सेक्स प्रेरणा या सेक्स संतुष्टि को आनंद का सर्वोच्च स्तर माना जाता था।यौनकर्मियों (वेश्याओं) को सामाजिक मान्यता और स्वीकार्यता प्राप्त थी. वेश्याएं सुंदरता, बुद्धिमत्ता, नृत्यकला , आकर्षण ,कामुकता की स्रोत और यौन रूप से भावुक होती थीं. छठी शताब्दी से 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व , गौतम बुद्ध, राजा बिम्बिसार और राजा अजातशत्रु की समकालीन लिच्छवी गणराज्य के तत्कालीन इतिहास में सर्वाधिक यौवना और सुंदर आम्रपाली थी. आम्रपाली (आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वैशाली की नगरवधू :1948-49) के रूप में प्रसिद्ध है. महापरिनिर्वाण सूत्र (बौद्ध ग्रंथ) के अनुसार नगरवधू केवल मनोरंजन करने वाली कलाकार नहीं थी अपितु उसके साथ राजा, राजकुमार और धनी लोग संबंध भी बनाते थे अर्थात वह शाही वैश्य थी .
कालांतर में आम्रपाली ने महात्मा बुद्ध से प्रभावित होकर संयास लेकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. इससे स्पष्ट होता कि बौद्ध धर्म में भी महिलाओं का पुरुषों के बराबर सम्मान था.
रामायण और महाभारत काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई है. उदाहरण के लिए, पांडवों ने जुए में द्रौपदी की इज्जत दाव पर लगा दी थी. इसी तरह, रामायण के अनुसार लक्ष्मण रेखा सीताजी के देवर लक्ष्मण– द्वारा खींची गई थी.

युद्धों में भागेदारी :शस्त्र और शास्त्र में निपुणता

प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि महिलाएँ पुरुषों के साथ युद्ध में भाग लेती थीं. इस तथ्य को वैदिक साहित्य,रामायणऔर महाभारत में मिले संदर्भों के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है. वैदिक साहित्य में एक संदर्भ के अनुसार अपाला नाम की एक पुत्री ने अपने बीमार पिता की सेवा की थी. एक अन्य उदाहरण वासलिया नाम की एक महान महिला योद्धा का है, जिसका युद्ध में पैर कट गया था.

रामायण और महाभारत के अनुसार युद्ध के समय में महिलाएं अपने पतियों के साथ रथ में सारथी के रूप में सहयोग करती थी . उदाहरण के तौर पर केकैई राजा दशरथ की (रामायण) व सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण (महाभारत) की सारथी थीं.देवताओं और असुरों के बीच युद्ध में, राजा दशरथ के रथ के एक पहिये का बोल्ट ढीला हो गया और पहिया निकलने ही वाला था कि कैकेयी ने अपना अंगूठा उस छेद में डालकर रथ को स्थिर कर दिया और युद्ध जारी रहा. सत्यभामा की सहायता से श्री कृष्ण ने ‘नरकासुर दैत्य’ का संहार किया था. युद्धों में पराक्रम के कारण महिलाओं को पद व सम्मान भी दिया जाता था. प्राचीन साहित्य के अध्ययन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महिलाएँ शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण थीं.

एक पत्नी विवाह, बहु पत्नी विवाह व बहुपति प्रथाएं : समाज पुत्र मोह से ग्रसित- विरोधाभास

आम लोगों में एक पत्नी प्रथा थी, जबकि उच्च वर्ग में बहुविवाह प्रचलित था. यह एक तथ्य है कि ऋषि मैत्रेयी उत्तर वैदिक काल की एक प्रसिद्ध महिला थीं और याज्ञवल्क्य की पत्नियों में से एक थीं। ऐतरेय ब्राह्मण में भी पुरुषों के लिए बहुविवाह और महिलाओं के लिए एकविवाह का वर्णन किया गया है. इसमें आगे कहा गया है कि एक महिला के लिए एक पति पर्याप्त है. महिलाएं पुरुषों के पूर्ण नियंत्रण और आज्ञा के अधीन थीं. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, एक महिला का कर्तव्य है कि वह अपने पति को खुश रखे और ‘पुत्र’ को जन्म दे. शतपथ ब्राह्मण में कई श्लोकों में वर्णित है कि ‘पुत्र की इच्छा’ अधिक प्रासंगिक है. यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय समाज ‘पुत्रमोह से ग्रसित’ था और उस समय भी बालिका को ‘अवांछित’ माना जाता था. यह बहुत बड़ा विरोधाभास है और आज भी जारी है. प्राचीन भारत में स्त्रियों को लेकर एक और विरोधाभास देखने को मिला है. एक ओर एक पत्नी विवाह (भगवान रामचंद्र), बहु पत्नी विवाह (राजा दशरथ) तो दूसरी ओर बहुपति विवाह (द्रौपदी) के उदाहरण मिलते हैं.

राजवंशों के मध्य वैवाहिक संबंध

प्राचीन काल में राजवंशों के मध्य वैवाहिक संबंध होते थे.उदाहरण के तौर पर श्रीमद् भागवत महापुराण के अनुसार श्री कृष्ण और दुर्योधन एक-दूसरे के समधी थे, क्योंकि श्रीकृष्ण के पुत्र सांब (दूसरी रानी जामवंती के पुत्र )और दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा का विवाह हुआ था. केवल यही नहीं अपितु अर्जुन श्री कृष्ण की बुआ कुंती के पुत्र थे, और श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था, इसलिए वे साले-बहनोई भी थे. राजवंशों मे वैवाहिक संबंध कालंतर में भी जारी रहे.

संपत्ति के उत्तराधिकार का अधिकार

भारत में स्त्रियों के संपत्ति के अधिकार का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है. प्राचीन वैदिक साहित्य में संपत्ति के अधिकार के संबंध में ‘दयाद’ शब्द का प्रयोग किया गया है. वैदिक साहित्य में वर्णित है कि पुत्र और पुत्री को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त है.आज से लगभग 3100 वर्ष पूर्व विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर(1070-1000 ईसा पूर्व)ने ‘स्त्री धन’ का वर्णन किया है. विवाह में उपहार या नकद के रूप में प्राप्त राशि ही स्त्री की संपत्ति होती थी.

संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार संबंध में प्राचीन विधिवेताओं के विचारों में सहमति नहीं है. याज्ञवल्क्य के अनुसार पुत्र, पुत्री और विधवा पत्नी को संपत्ति में अधिकार होना चाहिए. विष्णु और नारद ने अविवाहित पुत्री को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिए जाने की वकालत की है.
मनुस्मृति में वर्णित है कि विधवाओं, बेटियों और माताओं को पुरुष उत्तराधिकारी न होने पर उत्तराधिकारी के रूप में संपत्ति का अधिकार मिलेगा. मनुस्मृति में प्रतिपादित विचार महिलाओं के अधिकारों को विकृत करने में बहुत हानिकारक साबित हुए हैं. आज भी कानूनों और न्यायिक निर्णयों के बावजूद समाज की मानसिकता वैसी ही है. लगभग 2400 साल पहले पितृसत्तात्मक सत्ता के कारण महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से पूरी तरह से वंचित कर दिया गया था और उनके पास केवल स्त्रीधन था.

मिताक्षरा , दयाभाग तथा मरूमक्कटम’ कानून :तीन मुख्य विचारधाराएं

प्राचीन युग में उत्तराधिकार के संबंध में भारत में मिताक्षरा , दयाभाग तथा मरूमक्कटम’ कानून तीन मुख्य विचारधाराएं थी. मिताक्षरा विचारधारा को बंगाल, असम,व पूर्वी भारत को छोड़कर समस्त भारतमें मान्यता प्राप्त थी. इस विचारधारा की चार शाखाएं-द्रविड़,मैथिली,बनारस व महाराष्ट्र थी.मिताक्षरा विचारधारा के अनुसार महिलाओं को कोपार्सनर होने की आज्ञा नहीं है तथा कोपार्सनर की विधवा को कोपार्सनर भाई के विरुद्ध संपत्ति के बंटवारे का अधिकार नहीं है .महिला को उसके पति अथवा पुत्रों संपत्ति के बंटवारे का हक है.
दयाभाग विचारधारा के अनुसार यदि पुरूष उत्तराधिकारी नहीं है तो विधवा को संपत्ति के बंटवारे का अधिकार है तथा उसे अपने पति के भाग का पूरा हक है.इस संबंध में मिताक्षरा विचारधारा महिलाओं के संपत्ति के अधिकार के संबंध में हानिकारक है.
दक्षिण भारत तथा पूर्वोत्तर भारत में मातृ सत्तात्मक परिवार थे. इन परिवारों में उत्तराधिकार के नियम पितृसत्तात्मक परिवारों से बिल्कुल अलग थे. दक्षिण भारत के मातृ सत्तात्मक परिवारों ‘मरूमक्कटम’ कानून का प्रयोग होने लगा .इस कानून के अनुसार उत्तराधिकार एवं विरासत स्त्री वंश के अनुसार होता है . अत वहां संपत्ति पर पुत्री का अधिकार है , पुत्र को अधिकार नहीं है.

बौद्ध धर्म व जैन धर्म : महिलाओं की भागीदारी

वैदिक तथा उत्तर वैदिक संस्कृति में पुत्र को मोक्ष प्राप्ति लिए लगभग अनिवार्य माना गया है. परंतु बौद्ध धर्म में मोक्ष प्राप्ति हेतु पुत्र का होनाआवश्यक नहीं है.महात्मा बुद्ध के कथनानुसार पुत्रियां पुत्रों से श्रेष्ठ होती है.वैदिक और उत्तर वैदिक संस्कृति की भांति बौद्ध धर्म में भी महिलाओं का परिवार में महत्वपूर्ण स्थान है .जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार विवाह युवा अवस्था में होना चाहिए क्योंकि बड़ी आयु में विवाह अशुभ माना जाता है. जैन धर्म में विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त थी परंतु इसको सम्मानित नहीं माना जाता था. वैदिक तथा उत्तर वैदिक संस्कृति की भांति जैन धर्म और बौद्ध धर्म में धार्मिक अनुष्ठानों महिलाओं की भागीदारी का वर्णन किया गया है.यही कारण है कि बौद्ध धर्म में महिलाएं भिक्षुणी होती थी.बौद्ध धर्म में महा प्रजापति(महात्मा बुद्ध की सौतेली मांऔर पालक) पूर्ण दीक्षा प्राप्त करने वाली सर्वप्रथम महिला थी.जैन धर्म के दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों में जैन भिक्षुणियाँ, आर्यिकाएँ और साध्वियाँ, जैन मठवासी परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं; वे जैन रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों और नैतिक मानदंडों को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं .

मनुस्मृति में महिला अधिकारों का संहिताकरण: वर्तमान संदर्भ में असामयिक

मनुस्मृति सनातन धर्मअथवा मानव धर्मशास्त्र का एक प्राचीन स्मृति ग्रन्थ है।मनुस्मृति महिलाओं के अधिकारों पर संहिताकरण, एक असंगत और आंतरिक रूप से परस्पर विरोधी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है.
1. मनुस्मृति के अनुसार एक ओर विवाह को महिला या पुरुष द्वारा भंग नहीं किया जा सकता है (श्लोक 8.101-8.102) जबकि दूसरी ओर पुरुष या महिला धोखाधड़ी या अपमानजनक विवाह को भंग करने या पुनर्विवाह करने अधिकार है. जब एक महिला का पति गायब हो जाता है या उसे छोड़ देता है तो वह पुनर्विवाह कर सकती है ( श्लोक 9.72-9.81). यह परस्पर विरोधी दृष्टिकोण है
2. मनुस्मृति में विधवा महिलाओं की शुद्धता का शुद्धता ( श्लोक 5.158-5.160 ) व वर्णवाद और जातिवाद का समर्थन है क्योंकि महिलाओं को अपने ही वर्ण,सामाजिक वर्ग(जाति) में ही शादी करनी चाहिए.. अर्थात एक महिला अपने सामाजिक वर्ग के बाहर किसी से विवाह नहीं कर सकती (श्लोक 3.13-3.14). अन्य शब्दों में मनुस्मृति स्वतंत्र रूप से विवाह ,अंतर्जातीय व अंतर्वर्गीय विवाहों के विरुद्ध है.
3. एक ओर ‘’एक महिला को कभी भी स्वतंत्र रूप से जीने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” (श्लोक 5.148 .) इसका विस्तार करते हुए मनुस्मृति में लिखा है कि एक लड़की के रूप में, उसे अपने पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए और उनकी सुरक्षा लेनी चाहिए, एक युवा महिला के रूप में अपने पति की और एक विधवा के रूप में अपने बेटे की; और एक महिला को हमेशा अपने पति को भगवान के रूप में पूजा करना चाहिए जबकि दूसरी ओर एक पुरुष को अपनी पत्नी को देवी का अवतार मानना चाहिए . महिलाओं को सम्मानित करने पर बल देते हुए लिखा है कि “जहां महिलाओं का सम्मान किया जाता है, वहां देवता प्रसन्न होते हैं (श्लोक (श्लोक2.67-2.69 और 5.148-5.155) 3.55-3.56).

4.मनुस्मृति में महिलाओं के संबंध में प्रथाएं:

मनुस्मृति के अनुसार किसी के वर्ण के बाहर विवाह जैसे एक ब्राह्मण पुरुष और एक शूद्र महिला के बीच, एक विधवा का ऐसे पुरुष से गर्भवती हो जाना जिससे उसकी शादी नहीं हुई (श्लोक 9.149-9.157), विवाह जहां एक महिला अपने प्रेमी के साथ भागना (श्लोक 9.57-9.62). इत्यादि मामलों में संपत्ति के विरासत का अधिकार, और इस तरह पैदा हुए बच्चों के कानूनी अधिकार हैं (श्लोक 9.143-9.157). जब एक विवाहित महिला अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से गर्भवती हो सकती है. यह निर्णय एक पति करता है. (श्लोक 8.31-8.56).

संपत्ति का अधिकार

मनु स्मृति के अनुसार, एक महिला के पास छह अलग-अलग प्रकार के संपत्ति अधिकार हो सकते हैं: वे जो उसे अपने मृतक परिवार के सदस्यों से विरासत में मिले हों, वे जो उसे भागकर मिले हों या उसका अपहरण किया गया हो, वे जो उसे शादी से पहले प्यार के प्रतीक के रूप में मिले हों, वे जो उसके पति ने उसे शादी के बाद दिए हों, और वे जो उसे अपने जैविक परिवार से उपहार के रूप में मिले हों (श्लोक 9.192-9.200)।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मनुवादी आचार संहिता का समर्थन नहीं किया जा सकता. किया जाता है, क्योंकि महिलाएं चार दिवारी में सीमित नहीं है अपितु वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं. भारत में महिलाओं को संविधान और कानून के तहत अनेक अधिकार प्राप्त हैं, तथा यदि उन्हें इन अधिकारों से वंचित किया जाता है तो उन्हें न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार है.

रामचरितमानस :स्त्री विरोधी और दलित विरोधी विवाद पर पूर्ण विराम

रामचरितमानस में तुलसीदास की चौपाइयों से स्त्री विरोधी और दलित विरोधी मानसिकता दृष्टि गोचर होती है.केवल यही नहीं अपितु ब्राह्मण को दलित की अपेक्षाकृत श्रेष्ठतर बता कर समाज को विभाजित करने का दोषारोपण भी किया जाता है. तुलसीदास एक ओर महाकाव्य रामचरितमानस में चौपाइयों के माध्यम स्त्रियों की स्वतंत्रता और सम्मान को बढ़ावा दे रहे हैं. वहीं दूसरी ओर वे लिखते हैं कि जब महिलाएं स्वतंत्र हो जाती हैं, तो वे भटक जाती हैं. तथा उनको ताड़ने (दंड़) की बात करते हैं. यह इस चौपाई से स्पष्ट होता है –‘ढोल ,गंवार, शूद्र ,पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी’’– ताड़ना शब्द की व्याख्या अलग-अलग विद्वानों नेअलग-अलग की है.’ताड़ना’ का अर्थ यदि एक ओर दंड देना है. रामचरितमानस केसन् 1953 के संस्करण में’ताड़ना’ के स्थान पर ‘दंड़’ शब्द का प्रयोग किया गया है. (रामचरितमानस: गोरखपुर, गीता प्रेस संस्करण, सन् 1953) तो दूसरी ओर समझना है
परंतु सन् 1950 में भारत का संविधान लागू होने के पश्चात सभी भारतीयों को समानता और स्वतंत्रता का अधिकार है.परिणाम स्वरूप यह परंपरागत अवधारणा मान्य नहीं है .यही कारण है कि चौपाई में आधिकारिक परिवर्तन कर दिया गया है और यह इस प्रकार है ‘ढोल, गंवार, शूद्र और स्त्री ,ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं’’ (रामचरितमानस: गोरखपुर, गीता प्रेस, संस्करण सन् 2002). परिणाम स्वरूप स्त्री और दलित विरोधी विवाद पर पूर्ण विराम लग गया. हिंदू ग्रंथ में यह आधिकारिक परिवर्तन पहली बार नहीं है.. इससे पूर्व भी, हिंदू ग्रंथ भगवद गीता में एक श्लोक *(‘ब्राह्मण क्षत्रिय विषम शूद्राणां च परंतप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभावैर्गुणाः’’ (II.18.41)) का अंग्रेजी अनुवाद और टीका , सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने (1948) में परिवर्तन किया है: (हे अर्जुन, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तथा शूद्रों के कर्म उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार ही प्रतिष्ठित हैं .’ —Of Brahmanas, Kshatriyas, and Vaishyas, as also the Sudras, O Arjuna, the activities are distinguished in accordance with the qualities born of their own nature). इस अंग्रेजी अनुवाद में जन्म आधारित जाति व वर्ण की अपेक्षा प्राकृतिक गुणों पर बल दिया गया है. यद्यपि रामचरितमानस की चौपाई और गीता के श्लोक में परिवर्तन कर दिया गया.परंतु आम जनता के परंपरागत दृष्टिकोण में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं है.

सामान्य महिलाएं: तीन कार्य

वैदिक काल,उत्तर वैदिक काल,बौद्ध काल एवं जैन काल में सामान्य महिलाएं परिवारों में विशेष स्थान रखती थी तथा उनके द्वारा उस समय तीन कार्य-पारिवारिक कार्य,पशुपालन कार्यऔर कृषि कार्य किए जाते थे. ग्रामीण महिलाओं के द्वारा आज भी यह तीनों कार्य किए जाते हैं.
महिला विरोधी प्रथाएं व घटनाएं
अल्तेकर के अनुसार वैदिक युग भारतीय महिलाओं के दृष्टिकोण से “स्वर्ण युग” था क्योंकि उन्हें विभिन्न क्षेत्रों की शिक्षा और ज्ञान प्राप्त हुआ था. लेकिन, कई इतिहासकार इस परिकल्पना से सहमत नहीं हैं क्योंकि उनका मानना है कि स्वर्ण युग उच्च स्तर की महिलाओं के लिए रहा होगा, न कि सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए. इतिहासकारों का मानना है कि ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक और पितृवंशीय था. एक बड़ा परिवर्तन हुआ.
प्राचीन काल में अत्यंत महिला विरोधी प्रथाओं घटनाओं का वर्णन भी मिलता है. नियोग प्रथा (महाकाव्य महाभारत ,मनुस्मृति तथा ऋषि दीर्धतमस की कथा), बहु पत्नी व बहुपति प्रथा (महाकाव्य वाल्मीकि रामायण तथा महाकाव्य महाभारत),पुत्रमोह व पुत्री विरोद्धी मानषिकता के कारण नवजात पुत्री का परित्याग( सीताजी का घड़े में मिलना व आम्रपाली का आम के पेड़ की छाया में मिलना) , शादी के लिए युवतियों का अपहरण करना (असुर विवाह), जुए में पांडवों द्वारा द्रौपदी को दाव पर लगाना,दुर्योधन द्वारा भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण करना (महाकाव्य महाभारत) तथा सीताजी पर प्रतिबंध लगाने लिए लक्ष्मन रेखा खींचना ,रावण के द्वारा सन्यासी के वेश में सीताजी का अपहरण करना व लक्ष्मण के द्वारा सूर्पनखा का नाक-कान काटना ,सीताजी की अग्नि परीक्षा व दासी प्रथा (महाकाव्य वाल्मीकि रामायण) इत्यादि मुख्य उदाहरण हैं. .
भिखारियों , कृषि दासों.अस्प्रश्यता, सती प्रथा, परदा प्रथा, बाल विवाह, का प्रचलन नहीं था.मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति में भारी गिरावट आई. इस काल में महिलाओं पर थोपी गई प्रमुख परम्पराओं में पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह न होना,सती प्रथा, देवदासी प्रथा और जौहर प्रथा शामिल थीं. महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और कन्या वध की घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. परिणाम स्वरूप महिलाओं का जीवन केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित रह गया. सारांशतः प्राचीन भारतीय सभ्यता में महिलाओं को सम्मानजनक स्थिति प्राप्त थी. परंतु मध्ययुगीन भारत में महिलाओं की स्थिति में अभूतपूर्व गिरावट आई.
भारतीय संविधान, इसके संशोधनों, कानूनों और अदालती फैसलों की बदौलत अब महिलाओं को कई तरह के अधिकार प्राप्त है. भारत के राष्ट्रपति से लेकर गांव के सरपंच तक के पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व राजनीतिक व्यवस्था में है. फिर भी, महिलाओं की प्रगति में कई तरह के कारक बाधा डालते हैं.