मनजीत मानवी की छह कविताएं

मनजीत मानवी की  कविताएं

1. घर का पता

मैं, एक स्त्री,

सृष्टि की निर्माता

बरसों से पूछ रही हूँ

अपने घर का पता

और तुम, महापुरुष,

‘सल्तनत’ के मालिक

बिना कोई जवाब दिये

छल बल क्षोभ से  

कभी मुझे मक्तल

कभी किसी मंडी घर 

कभी बंदीगृह की अंधेरी

सुरंग में पटक देते हो

और शान से कहते हो

बस बहुत हो चुका 

आधुनिकता का नशा   

यही तुम्हारा घर था

और जब तक हमारी

हुकूमत है कायम

यहीं से हो कर गुज़रेगा  

तुम्हारी मुक्ति का हर रास्ता !

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2 स्त्री द्वारा लिखी कविता

एक स्त्री अपनी कविता के उभरते आखर   

कुर्सी मेज़ या बिस्तर की सुगमता लिए

केवल कलम से नहीं लिखती, 

अनेक बार शब्दों का शोरबा

पकता रहता है उफ़न उफ़न कर

गैस की पीली आंच पर

दाल के पतीले में या फिर

सब्जी काटते चाकू की धार पर

उठती गिरती रहती हैं ध्वनि की तरंगें 

बच्चों को दूध पिलाते ग्लास की तलछट में

ठहरी हुई रात की अनमनी करवट में 

बिस्तर पे चादर की अवसाद में डूबी सिलवट में

घुमड़ते रहते हैं भावनाओं के भंवर  

मर्यादा की उमसदार गर्दन से बंधी पोटली मे

कमाऊ पति परमेश्वर की दंभ भरी गाली में

नमक फालतू मिलने पर फेंकी हुई थाली में

बनते बिगड़ते रहते है छंदों के झुरमुट

नन्हे से बच्चे की किलकारियों की गूंज में

बारिश की पत्ते पर गिरती थरथराती बूंद में

दूर कहीं शाख पर अटकी कोयल की कूक में 

संशय और खलल के न जाने कितने

महीन सुराखों से होकर गुज़रता है

एक स्त्री द्वारा बुने लब्ज़ों का टेढ़ा मेढ़ा

थका हारा इधर उधर भागता फंदा    

तब कहीं जोड़ से जोड़ मिल कर 

उद्विग्न मनोभावों से सिल कर

रात की स्याही में घुल कर

लिखी जाती है एक स्त्री की कविता

जिसे वो अक्सर कविता नहीं मानती

स्वयं के साथ हुआ एक धोखा मानती है

एक ऐसा धोखा जिसकी शिराओं में

मरहम भी है, और ज़लज़ला भी !!!

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3 आँकड़ों के लिहाफ़ में

ये कुछ आँकड़े ही थे जो देर सवेर

हमारे भी होने की खबर दे देते थे

देस दुनिया के अखबारों और पहरेदारों को 

हम बिना किसी उत्पात के

रुई की तरह घुस जाते थे

हर दशक के आकड़ों के लिहाफ़ में

अपने अपने दुखों की गठरी लिए

कभी जनसंख्या की भीड़ बन कर

कभी नागरिकता का चोगा पहन कर 

सोचते थे जन गण मन के फ़लक पे 

हम भले ही न हों अधिनायक, लेकिन

जनगणना में हमारी गणना तो है

अब सियासत की आंधी छीन रही है

नागरिकता के भटकते आंकड़ों का

वो धूसर जर्जर लिहाफ़ भी

हमें राष्ट्र का नागरिक मान कर 

रोज़ी रोटी दे पाना तो खैर

अभी बहुत दूर की बात थी !

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4 शब्दजाल

आश्चर्य की बात है कि अनेक समान शब्द

एकसमान अर्थ के बावजूद भी

कितने अलग दिखाई देते हैं

लैंगिक संबंधों की रणभूमि में 

मसलन एक शब्द है ‘चरित्र’

कैसे चमक उठता है

इस शब्द का मुकुट

एक पुरुष के ललाट पर

रोशन हो जाती है जैसे कायनात सारी

बजने लगते हैं कानों में ढोल नगाड़े

रचा जाने लगता है एक पूरा इतिहास

कुलीन चरित्रवान की अद्भुत ताजपोशी का 

मगर ठीक यही शब्द “चरित्र”

कितना अजनबी, कितना विचित्र 

कितना अनमना अस्त व्यस्त सा लगता है

जब किसी स्त्री देह की खूँटी पे जा अटकता है

लगता है जैसे अपना नियत स्थान छोड़कर 

किसी अपरिचित के घर में आ गया है

दमकते ताज से छिटक कर

बंजर भूमि में समा गया है

ठीक इसी तरह अनेक और शब्द हैं पौरुष के तरकश में

मसलन “शरीर”, “इज़्ज़त”, “पवित्रता” “यौनिकता”

लाज, शर्म, “शालीनता”, ‘सामाजिकता’ आदि आदि

बरसों से जिनके मखमली जाल

प्राचीन सभ्यता और आधुनिक संस्कृति के

हर मुहाने पे बिछे नज़र आते हैं

पुरुष की अंतरात्मा को रिझाने के लिए और

एक स्त्री के स्त्रीत्व को आज़माने के लिए

यहाँ तक कि प्रेम और निष्ठा जैसे

निर्दोष और निष्पक्ष शब्द के अर्थ भी

स्त्री पुरुष के प्रवृत संदर्भ में

स्वतः अलग अलग हो जाते हैं

पुरुष के लिए प्रेम स्वयं का विस्तार है

जबकि स्त्री प्रेम के भंवर मे

और भीतर सिमट जाती है

ठौरठिकाने से कट कर बावली सी हो जाती है

दिल की बात तो इंसान

इशारों से भी कर लेता है

बरसों बरस सम्प्रेषण का कौशल

बिन भाषा के ही पनपा है

फिर भी शब्दों की कोई तो महत्ता है 

एक स्त्री के लिए ये महत्ता

तमाम अन्य वजहों की अपेक्षा

कहीं ज्यादा मौलिक और केन्द्रीय है    

क्योंकि उसे ताकत के मोहपाश में उलझे

एकांगी अधिकार के करघे पर बुने

नाहक फैले इस सुनहरे शब्दजाल के

हर फंदे को सुलझाना है !

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5 . कहो कि कहना है ज़रूरी 

बरसों गौण रह खामोशी से 

क्या क्या न सहा तुमने

अब चुप्पी तोड़ो और कहो

कि कहने का समय आया है

हर ज़बान, हर रंग, हर सूरत में कहो

दफ़न पड़े आवेश को बगावत में कहो

जो सुनने में अटपटा लगे वो कहो

जो देखने में अधबुना लगे वो कहो 

जो सोचने को मजबूर कर दे वो कहो

जो शासक का दंभ चूर कर दे वो कहो

जो परिस्थितियों में परिवर्तन लाए वो कहो

जो हाकिम को फूटी आँख न भाए वो कहो

साहस से, इंकार से, अधिकार से कहो

रोष में, विरोध में, प्रतिरोध में कहो

कहो कि अब बिना कहे नहीं रहेंगे हम

कहो कि दिल में उफान जो, सब कहेंगे हम 

कहो कि खोलने होंगे हर गांठ के धागे

कहो कि हर जख्म इक सुलगता हुआ अंगारा है

कहो कि हम नकारते हैं गुलामी का हर रंग    

कहो कि हम जानते हैं धरती आकाश हमारा है

कहो, बार- बार कहो और तब तक कहते रहो

जब तक तुम्हारा अटूट नाद तोड़ ना डाले

निष्प्राण निस्सार किलों के जंग लगे दरवाज़े

हर चुभती ज़ंजीर के लोह के ताले !!

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6 . वह लड़ रही है

वह लड़ रही है

कहीं बंद दरवाजों के भीतर

कहीं खुली सड़कों पर

कहीं ज़हन की सूनी गलियों में

एक अनथक लड़ाई लगभग निहत्थी

एक ऐसे शत्रु के विरुद्ध 

जिसका न कोई प्रत्यक्ष चेहरा है

न कोई निश्चित स्थान

न काल की सीमा है

न पंजों के निशान

जो रोज़ बदल लेता है अपना आवरण 

हर दिन पहले से ज़्यादा

खूँखार हो जाता है

कोई पहचान न ले इसलिए

भीड़ में खो जाता है 

जो पूरी तरह अनजाना भी है 

और अत्यंत जाना पहचाना भी

जो दूर सात समंदर पार भी है

और घर के भीतर भी आसीन है

सर्वशक्तिमान सम्राट की तरह  

वह लड़ रही है निपट अकेली

इस सर्वव्यापी पिता की चौकसी से

जो हर जगह मौजूद है

और कहीं दिखाई नहीं देता   

अपने असली भेस में

वह लड़ रही है

क्योंकि गर लड़ेगी नहीं

तो आज नहीं तो कल

उसकी शिनाख्त कर ली जाएगी  

एक गुनहगार के रूप में

जिसका जुर्म यही है

कि वो उगते सूरज से   

आँख मिलाना चाहती है

लोक लाज का सबक भूल कर 

मुक्ति का गीत गाना चाहती है !