सरला माहेश्वरी की कविता – पर्दा उठ चुका है ! 

पर्दा उठ चुका है !

-सरला माहेश्वरी

दर्शक दीर्घा में लोग साँस रोके बैठे हैं 

मंच पर एक इंसान लहूलुहान,छटपटा रहा है 

वो कुछ बोलना चाहता है 

पर बोल नहीं पा रहा है  

इशारों से कुछ कहना चाहता है ! 

लेकिन उसके दर्द को, उस भाषा को 

समझने-महसूसने की शक्ति ही जैसे 

किसी वायरस ने लोगों से छीन ली है 

वे बस फटी आँखों से देख रहें हैं 

मंच के पीछे से डरावनी हँसी की आवाज़ आ रही है 

अचानक कुछ लोग मंच पर ठहाके लगाते हुए चले जाते हैं  

मंच पर औरतों की सिसकियों की आवाज़ 

एक माँ बेटी की लाश के पीछे भाग रही है

एक इंसान बेटा, बेटा कहते हुए भाग रहा है

जेल की सींखचों के पीछे एक बूढ़ा 

काँपते हाथों से कुछ उठाने की कोशिश कर रहा है

सारे दृश्य ग़ायब हो जाते हैं 

मंच पर वह लहुलूहान इंसान अब भी वैसे ही पड़ा है

दर्द को समझा पाने में असमर्थ 

वो घायल इंसान बहते हुए खून से

अपनी सफ़ेद क़मीज़ पर लिखता है—

मैं मरणासन्न लोकतंत्र की आत्मा हूँ ! 

मैं कहाँ जाऊँ ?

मंच पर अंधेरा गहराता जा रहा है !

पर्दा धीरे-धीरे गिर रहा है !

रोशनी होते ही लोगों ने देखा वो घायल इंसान हर कुर्सी पर सच में बैठा है !

वे जेब से रुमाल निकाल कर कुछ पोंछ रहे थे…

पसीना या कुछ और ?

और फिर एक आवाज़ ! जैसे हबीब तनवीर की आवाज़ गूंजती है …

“ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है�खून फिर खून है टपकेगा तो जम जाएगा”

अचानक वो आवाज़ नारे में बदल जाती है 

हॉल नारों से गूंज उठता है …ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है ! 

सभी मित्रों को विश्व रंगमंच दिवस की शुभकामनाएँ