ओम प्रकाश तिवारी की कविता – पसीना

 

पसीना

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कभी-कभी ऐसे हालात सामने आ जाते हैं कि 
रोने का भी दिल करता है और जोर-जोर से हंसने का भी। 
लेकिन न रोया जाता है, न ही हंसा जाता है। 
आंखों में पानी होता है, लेकिन वह बाहर आता नहीं है। 
होंठों पर मुस्कान होती है पर खिलती और दिखती नहीं है। 
पल-पल एक उदासी तारी होती जाती है। 
दिमाग गुणा भाग करता है पर हिसाब नहीं लगा पाता… 
दिल मध्यम-मध्यम धड़कता है.. जैसे तेज हवाओं में कोई दीपक जल रहा हो… 
एक समां जलते-जलते अंधेरे में विलीन होती जाती है, 
लेकिन कोई परवाना नहीं आता है। 
समां अपने जले जिस्म को किसे दिखाए? 
कौन सुनेगा? 
किसे सुनाए? 
कैसे सुनाए? 
कैसे बताए? 
जो पीड़ा है, वह अकथ है। 
उसके लिए कोई शब्द नहीं है। 
वह शब्द से परे है। 
वह मौन में ही अभिव्यक्त होना चाहती है…
चाहती नहीं बल्कि मौन में ही अभिव्यक्त होती है। 
मौन कौन समझता है? 
हर किसी को चाहिए शब्द। 
शब्द पहाड़ जैसे होते हैं। 
कौन इन्हें और कैसे उठाये? 
शब्द जब पहाड़ नहीं होते हैं तो परमाणु बम हो जाते हैं.. 
कोई कैसे शब्द बम फोड़ सकता है? 
इसके लिए कितना क्रूर होना पड़ेगा।
 हर कोई तो नहीं हो सकता है।
 रात सीली-सीली सी है। 
लग रहा है बारिश होगी। हो सकता है हो रही हो। 
यह भी हो सकता है बर्फ गिरे। 
ओले भी गिर सकते हैं। 
शायद बर्फ गिर रही है। 
बिना आवाज। बिना शोर। 
बिना किसी शब्द के संगीत सुना रही है। 
वह तर कर देना चाहती है आत्मा को। 
अपनी ही तरह सफेद बना देना चाहती है। 
चाहती नहीं, बना रही है। 
रक्त कणों को जमा कर बना देना चाहती है असंवेदनशील… 
रक्तवाहिनियों को कर देना चाहती है सुन्न…
शायद ठीक ही है…
शब्द से मुक्ति मिलेगी…
मौन से अभिव्यक्त होगी भावना…
चेहरा बनेगा किताब या पत्र ही बन जाय… 
आंखों की भाषा समझने लगे बर्फ…
फिर बारिश बताएगी अपनी, उसकी कहानी..
जैसे आंखों से निकले आंसू केवल पानी नहीं होते…
वे कहानी होते हैं। 
खुशी के, गम के, उदासी के, बदलाव के, सुबह के शाम के, प्यार के और बेवफाई के। 
हर किस्म के और किसी भी किस्म के नहीं। 
दरअसल आंसू आंख की मेहनत के पसीने हैं..
पसीने किसी को अच्छे नहीं लगते…
पसीने से बचने के लिए है एसी… 
पसीने मेहनत से निकलते हैं…
मेहनत मेहनतकश करते हैं..
इसलिए पसीने खारे होते हैं..
इसलिए पसीने से नफरत है। 
पसीना बहाने वाले से भी…
मेहनतकश चाहिए…
लेकिन पसीना नहीं चाहिए…
पसीना मूल्यवान है इसलिए वह मूल्य चाहता है…
लेकिन उसकी कोई कीमत नहीं है। 
इसलिए पसीना आंसू बनकर आंखों से निकलता है…
वह बोलना चाहता है, लेकिन शब्द की शक्ति से डरता है।
 इसलिए वह झर-झर झरता है…
मौन आंखों से…
बारिश की तरह वह भी सुनाना चाहता है संगीत…
पर आवाज से डरता है…
वह बर्फ बन जाना चाहता है…
सफेद फाहों की तरह एकदम मौन…
चुप बिल्कुल चुप…
खामोश गिरना चाहता है, किसी आग के दरिया पर…
जानना चाहता है जब खत्म हो रहा हो अस्तित्व क्या तब भी डर लगता है शब्द से..
शब्द से होने वाले फिस्फोट से…
वह चिल्ला पड़ेगा किसी पागल की तरह…
किसी दार्शनिक की तरह, किसी लेखक की तरह.. 
किसी संगीतकार की तरह। 
वह जानना चाहता है 

मजदूर के पसीने में कितनी गर्मी होती है 

कि उसे बर्फ के रेगिस्तान में भी गर्म रखती है और मरने नहीं देती…