भारतीय शिक्षा गोबर में लिपटी: भगवाकरण अभियान जोरों पर

भारतीय शिक्षा गोबर में लिपटी,भगवाकरण अभियान जोरों पर

धर्मेन्द्र आजाद

हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में जो ‘गोबर अनुष्ठान’ आयोजित हुआ, वो सिर्फ़ हास्यास्पद नहीं, बल्कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था की सड़ांध मारती सच्चाई का एक जीवंत उदाहरण भी है। कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. प्रत्यूषा वसाला ने कुछ क्लासरूम्स की दीवारों पर गोबर पुतवाया, और ख़ुद भी हाथ बँटाया, और गर्व से इसे ‘प्राचीन लेकिन आज भी प्रासंगिक टेक्नोलॉजी’ बताया — उनका दावा था कि इससे कमरे ठंडे रहते हैं। अब अगला कदम शायद ये हो कि कंप्यूटर वायरस भगाने के लिए CPU पर गंगाजल छिड़का जाए और हार्ड डिस्क पर तुलसी की माला बांध दी जाए।

प्रिंसिपल मैडम के इस ‘ज्ञान यज्ञ’ के उत्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष और छात्रों ने भी ‘श्रद्धापूर्वक’ इस परंपरा का सम्मान’ किया — और उन्हीं के कार्यालय की दीवारों को गोबर से विभूषित कर दिया। उनका कहना था कि यदि गोबर इतना लाभकारी है, तो इसका पहला फायदा कॉलेज की मुखिया को ही मिलना चाहिए, क्योंकि यह ज्ञान गंगा तो उन्हीं के दिमाग़ से निकली है। यह घटना सिर्फ एक मज़ाक नहीं, बल्कि उस गंभीर और भयावह प्रक्रिया की झलक है, जिसमें शिक्षा अब किताबों से नहीं, दीवारों पर चढ़ाए जा रहे गोबर से संचालित हो रही है — और वो भी एक ख़ास विचारधारा के रंग में रंगी हुई।

नई शिक्षा नीति (NEP 2020) के नाम पर जो परिवर्तन किए गए हैं, वे ‘भारतीयकरण’ या ‘संस्कृतिकरण’ की आड़ में दरअसल वैज्ञानिक सोच की निर्मम हत्या हैं। CBSE के पाठ्यक्रम से डार्विन का विकासवाद, आवर्त सारणी, फ्रेंच क्रांति, मुग़ल इतिहास और लोकतांत्रिक आंदोलनों जैसे महत्वपूर्ण विषयों को हटा दिया गया है — वो सारे हिस्से जो छात्रों को सोचने, तर्क करने और प्रगतिशील बनने की ताक़त देते थे। अब शिक्षा तर्क का नहीं, आस्था का विषय बना दी गई है। “वेदों में सब था” का राग अलापकर छात्रों को प्रयोगशालाओं से यज्ञशालाओं की ओर धकेला जा रहा है। सवाल पूछना अब राष्ट्रद्रोह है, और गोबर पोतना संस्कृति प्रेम।

लेकिन हमला केवल पाठ्यक्रमों तक सीमित नहीं है — शिक्षा प्रणाली की रीढ़ को भी योजनाबद्ध तरीके से तोड़ा जा रहा है। 2024-25 के बजट में उच्च शिक्षा के लिए आवंटन में 17% और UGC के लिए 61% की कटौती की गई है। भारत पहले ही शिक्षा पर GDP का बेहद कम हिस्सा खर्च करता है — और अब उसे और घटाया जा रहा है। 2014 से 2023 के बीच 89,441 सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं। यानी, सबसे वंचित तबकों के लिए शिक्षा के दरवाज़े बंद किए जा रहे हैं — और जो बची-खुची शिक्षा है, उसमें तर्क के स्थान पर पुराण और विज्ञान के स्थान पर गोबर घुसाया जा रहा है।

और जब कोई छात्र इस पाखंड पर सवाल उठाता है, तो उसे तुरंत “राष्ट्रविरोधी”, “वामपंथी” या “टुकड़े-टुकड़े गैंग” का तमगा थमा दिया जाता है। यही तो है फासीवाद का असली चेहरा — जहाँ मूर्खता को महिमा दी जाती है, और तर्क को अपराध बना दिया जाता है।

आज भारतीय विश्वविद्यालय विचारों की प्रयोगशालाएं नहीं, भगवा प्रयोगशालाएं बन चुके हैं। पाठ्यक्रमों से लेकर शिक्षकों की नियुक्तियों तक, हर जगह एक खास विचारधारा का वर्चस्व थोपा जा रहा है। IIT से लेकर गांव के स्कूलों तक, ज्ञान की जगह कथा, विज्ञान की जगह पुराण, और बहस की जगह भजन घुसाए जा रहे हैं।

दुनिया जहां AI, स्पेस टेक्नोलॉजी, क्वांटम फिज़िक्स और ग्रीन इनोवेशन की ओर तेज़ी से बढ़ रही है, वहीं भारत के युवाओं को बताया जा रहा है कि असली ज्ञान वेदों, गौमूत्र और गोबर में है। अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा, तो अगली पीढ़ी लैब में नहीं, यज्ञशालाओं में बैठी मिलेगी — जहाँ वैज्ञानिक प्रयोगों की जगह वे मंत्र जाप कर रही होंगी।

शिक्षा यदि तर्क और वैज्ञानिक चेतना से रहित हो, तो वह समाज को प्रगतिशील नहीं, अंधभक्त बनाती है। यही तो इस भगवाकारी फासीवाद का अंतिम सपना है — एक ऐसा भारत, जहाँ छात्र सवाल न करें, बस आरती उतारें। जहाँ ज्ञान नहीं, भक्ति हो; सोच नहीं, केवल श्रद्धा हो।

और यह कोई अतिशयोक्ति नहीं — यह सब हमारे सामने, हमारी आंखों के सामने, हमारे बच्चों के दिमाग़ में, और हमारे शिक्षा के भविष्य में गूंथा जा रहा है — बिल्कुल उसी गोबर की तरह।

धर्मेन्द्र आजाद