नौ सौ कर्मचारी एक साथ बेरोजगार
उरई से Rakesh Dwivedi की रिपोर्ट
उरई। कालपी रोड पर मीलों फैली रहने वाली खुशबू अब सदा -सदा के लिए बंद हो गई। कम्पनी के बंद होने के साथ ही सुगंध भी उड़ गई! साबुन -शैम्पू बनाने वाली हिन्दुस्तान यूनीलीवर कम्पनी ने घाटा दिखाकर करीब 900 कर्मचारियों को खाली हाथ कर दिया। एक साथ हुए इतने बेरोजगारों से उनके परिवार के करीब चार हजार लोगों की जिंदगी पर अब रोटी का संकट है। बच्चों की पढ़ाई बंद होने का भी खतरा है। कुछ कर्मचारी ऐसे भी थे जो पांच वर्ष बाद रिटायर होने वाले थे अब उन्हें घर चलाने को काम की तलाश है।
मालाएं पहनने, पहनाने या उदघाटन आदि में व्यस्त राजनीति की इतने बड़े संकट पर भी आँखें ‘बंद’ रहना कम आश्चर्यजनक नहीं। जिले से इतनी बड़ी कंपनी ने अपना काम-काज समेट लिया और यहाँ के जिम्मेदारों को इसका पता भी नहीं चला। यदि पता चला तो कम्पनी को न जाने देने के लिए उन्होंने क्या भूमिका निभाई ? यह प्रश्न जिले की जनता पूछेगी। पूछा भी क्यों न जाए? क्या जन प्रतिनिधि बनने का मतलब अधिकारियों के इर्द गिर्द रहकर सोशल मीडिया, मीडिया में अपने चमत्कार का वैभव प्रसार करना भर है? मजदूरों की राजनीति करने वाले संगठन भी इस मुद्दे पर खामोश रहे। दोनों यूनियनें भी कमजोर सिद्ध हुई। सांसद भी इनका दर्द जानने से दूर रहे। मुख्यमंत्री से मिलकर उन्हें समस्याएं बताने वाले लोग भी इतनी बड़ी समस्या उन्हें नहीं बता पाये।
वैसे घाटा बताकर कम्पनी का कामकाज समेटना हजम नहीं होता। यदि ऐसा होता तो फिर बुंदेलखंड के ही भरुआ सुमेरपुर में कम्पनी अपना काम क्यों चालू रखे है? उरई से यहाँ की दूरी भी ज्यादा नहीं है। पांच मई को हिन्दुस्तान यूनी लीवर लिमिटेड में ताला पड़ गया। कर्मचारियों को कुछ राहत देकर कम्पनी ने उनसे बाय -बाय कर लिया। यहाँ 225 लोग कंपनी के नियमित कर्मचारी और 700 कॉन्ट्रेक्ट वेज कर्मचारी थे। नियमित कर्मचारियों को महाराष्ट्र जाकर काम करने की शर्त रखी गई, लेकिन वहाँ जाकर सबके लिए काम करना मुनासिब नहीं था। कॉन्ट्रेक्ट वेज कर्मचारियों को तो कोई विकल्प भी नहीं दिया गया। उनका काम एक झटके में उनसे छिन गया। इतनी बड़ी संख्या में इतने लोगों का एक साथ रोजगार छिनने की यह पहली घटना है। फिर भी राजनीति गलियारे में इस मुद्दे को लेकर कोई हलचल नहीं दिखाई दी। अधिकांश को तो इसको लेकर कुछ पता ही नहीं है। इससे साबित होता है कि राजनीति और उसे करने वालों के मन में आम व्यक्तियों के लिए कितनी और कैसी बनावटी हमदर्दी है? ‘सिन्दूर राजनीति’ में उलझे लोगों के लिए हो सकता है कि ये मुद्दा कोई महत्वपूर्ण न रहा हो। जबकि किसी पार्टी या नेता के खिलाफ कोई मामला हो जाए फिर सभी दलों की सक्रियता देखिये। उबाल आने में देर नहीं लगती। ऐसा लगता है कि ये आज जमीन -आसमान को एक करके ही मानेंगे! जिले में ही धरना -प्रदर्शन, ज्ञापन, कैंडल मार्च का नाटक शुरू हो जाता है पर जब श्रमिक वर्ग की बात आई तो किसी को भी समय न मिला। मजदूर संगठन और भाकपा व भाकपा माले भी आगे नहीं आये। न तो कैण्डल में आग लग पाई और न ही आवाज निकल सकी।
पिछले 10 दिनों से जिले में मंत्रियों या प्रभारियों का आना- जाना खूब रहा। तमाम कार्यक्रम हुए। उदघाटन हुए, अधिकारियों के साथ मीटिंग हुई, गोष्ठियाँ हुईं पर जिन 900 कर्मचारियों के हाथों से काम छिना उनके लिए कहीं पर भी दो शब्द भी नहीं बोले गये। इससे कर्मचारियों में निराशा है। बोले-घर आना तो दूर किसी का फोन तक नहीं आया। यदि चुनाव होते तब देखते? सिर्फ सत्ता दल ही क्या? किसी अन्य दल के पास उनकी तकलीफ से जुड़ने का समय नहीं था। ये विषय सपा, बसपा, कांग्रेस, भाकपा सभी के लिए शायद अरुचि कर रहा। जन प्रतिनिधियों के रूचि न दिखाने से कर्मचारी अकेले पड़ गये। अब बीस दिनों ये लोग खाली हाथ हैं। यदि काम न मिला तो गृहस्थी पर संकट आ जाएगा। अजय शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार