मनजीत भावड़िया की हरियाणवी और हिंदी कविताएं

ना रह्या (1)

 

ना रह्या वो कुणबा काणबा

ना रह्या वो मेल – जोल

ना रह्या वो हस्सी ठठ्ठे

ना रह्या वो पनघट नीर

ना रह्या वो कुआं बावड़ी

ना रह्या वो छाज छाबड़ी

ना रह्या जोहड़ में नाहणा

ना रह्या वो तलाब सरोवर

ना रह्या वो चुल्हा हारा

ना रह्या वो सीपी खुरचण

ना रह्या वो टसरी पगड़ी

ना रह्या वो मड़कन जूती

ना रह्या वो मिट्टी तेल और दिवा

ना रह्या वो झाकरा पिहाण

ना रहे वो मेहनती पशु पखेरू

ना रह्या वो हार सिंगार

ना रह्या वो हथफूल टीक्का

ना रह्या वो केंदू का पेड़

ना रह्या वो काग काबर

ना रह्या वो बाज व चील

ना रह्या वो देशी खाणा

ना रह्या वो देशी गाणा

ना रह्या वो हाळी पाळी

ना रह्या वो पलंग निवार

ना रह्या वो साळ बिसाळा

ना रह्या वो बळदा की चुरासी

ना रह्या वो रैहडा़ ना अरथ

ना रह्या वो जेळवा ना बेलुआ

ना रह्या वो पळवी पळवा

ना रह्या वो बात वो सूत

ना रह्या वो पीढ़्या पाटड़ी

ना रह्या वो रस्सा नेत

ना रहता वो खुद्दा खाद्दा

और के बताऊं

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खोटा ज़माना (2)

 

घणा माड़ा टेम आग्या

परिवार कुमबे की इज्जत ढेर

एक बुझे रोटी की

दुसरा कह खा गा के

कौन सी रोटी

मोटी मोटी रोटी

पतली पतली रोटी

फूली होड़ रोटी

बिना फूली रोटी

तन्नै ना बेरा रोटी का

रोटी होवे सै चार ढ़ाल की

पहली रोटी हो सै मां की

जिसमें ममता, प्यार अर वात्सल्य हो सै

इसके गेल्यां गेल्यां स्वाद भी

पेट भर ज्या पर मन नी भरदा

दूसरी रोटी हो सै घरवाली की

जिसमें समर्पण अर प्यार हो सै

या स्वाद तो होव सै

मन अर पेट दोनों भर ज्या सै

तिसरी रोटी हो सै बुढ़ापे की

जो पुत्रवधू बणाकै देवे

जिसमें आदर सत्कार सम्मान होवे सै

स्वाद का पता नी मन भरज्या है

चौथी रोटी का के जिक्र करू मैं

या होव सै काम आळी बाई की

जिसमें ना पेट भर था

ना मन भरदा

ना स्वाद

ना ज़ायका

बस एक सै

चारो रोटी औरत के

हाथ म्ह होकर जावै सै

क्योंकि औरत के अन्दर

होती है

ममता, प्यार, वात्सल्य,

समर्पण,आदर, सत्कार

ज़माना खोटा न्यू सै

जो पहले था वो ईब नी।

 

रागनीः थाली लौटे आला सूं (3)

 

मेरे मन में सब की चिन्ता , जबर भरोटे आला सू

दिन रात कमाऊ मैं फेर भी , थाली लौटे आला सू

 

पता नहीं बोझ तले , सै पीढ़ी कौन सी म्हारी रै ,

मूंछ होती जा रही आज , दाढी तै भी भारी रै ,

दे रहा कर्जा बाप का रै , इब सै बेटा की बारी रै ,

किस पै करु यकीन मै , बांड खेत नै खारी रै ,

चोर लुटेरे साहूकार होगें , मैं टोटे आला सू

दिन रात कमाऊ मैं फेर भी , थाली लौटे आला सूं

 

दिन रात हाड़ तुड़ाए , मेरी आई सही करड़ाई

मेरा बहता खून पसीना , मेरे तै दिया राह दिखाई

ऊंची – ऊंची महल अटारी , मन्नै तै सदा शिखर – चढ़ाई

रेल बस मेरी मेहनत , मन्नै सड़क तक बिछाई ,

तू कार जहाज में ऐश करे , मैं बुग्गी झोटे आला सूं

दिन रात कमाऊं मैं फेर भी , थाली लौटे आला सूं

 

पा तुड़ाऊ ईंट ढोऊ , महल बणवाऊं साहूकारा कें ,

हाथ जलै सै फैक्ट्री मैं , सब पुर्जे सै थारी कांरा कै ,

थाम गाबरु अस्सी तक कै , सा हम बुढ़े सत्रह – ठारा कै ,

आज तक मेरे दम पै , मालिक बणे थम बहारां कै ,

थाम बणो सो मेरे कारण बड़े , मै सबलै छोटे आला सूं

दिन रात कमाऊं मैं फेर भी ,. थाली लौटे आला सूं

 

मेरे कमाई मेरे घर में , ना दिखाई दे री ,

भूखा सै आज कमेरा , न्यू होगी दूबाढेरी ,

आगै लिकड़गै बहोत घणे , ना कीमत सै आज मेरी ,

किसे के ना समझा मे आरी , समझाण की कोशिश करी भतेरी ,

बणाए हुए सिक्के चाल्ये मेरे , मै सिक्का खोटे आला सूं

दिन रात कमाऊं मैं फेर भी , थाली लौटे आला सूं

 

थामनै जादू मानया इसा , हाथ फेरा आख्यां पैं ,

जाति धर्म का करो बटवारा , बाधी पट्टी मेरी आख्यां पैं ,

ऊँच नीच तमनै राखी सदा दिखा के साहसी आख्यां पैं ,

खान मनजीत तू बोवला होरा , कमा के घमेरी आख्यां पै ,

घणा व्होत चुप रहग्या मै , मै चालै मोटे आला सूं ,

दिन रात कमाऊं मैं फेर भी , थाली लौटे आला सूं

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दहेज में मां (4)

 

था एक लावारिस

खा रहा था ठोकर दर बदर

अनाथ था

पता नही कौन थी मां

कौन थे बाप

एक दिन अचानक

पढ़ाई के लिए प्रेरित किया

एक दिन बन गया बड़ा अफसर

लेकिन भूला नहीं

अपने पिछले दिन

आ रहे थे बार बार याद

एक दिन हुई शादी की तैयारी

लड़की वालों ने पूछा

क्या चाहिए दहेज

वो बोला

मुझे दहेज में मां चाहिए।

मां चाहिए

बस………।

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प्रगति का रस्ता (5)

 

मैं कभी नहीं मुड़ूंगा पीछे

हमेशा चलता रहूंगा

अपने पथ पर

बिना किसी परवाह किए

मैं अपने सभी गम को भुलाते हुए

भूख प्यास को भुलाते हुए

तन पर फटे कपड़े सजाते हुए

आगे बढूंगा

और मैं इस दुनिया में

अपना नाम रोशन करूगा

जब मैं पढ़ लिखकर

एक इच्छा इंसान जाऊंगा

मैं युद्ध में सैनिक

खेतों में किसान

विद्यालय में अध्यापक

घर में पिता जी

गांव की संस्कृति

दिहाड़ीदार मजदूर

नाटक मंचन में रंगकर्मी

सिनेमा में अभिनेता

समाज में लेखक,कवि

गांव में सरपंच

ये हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं

इनकी मार्गदर्शन में चलेंगे

जीवन सफल बन जाएगा

तभी भारत देश महान कहलाएगा।

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एक रोटी (6)

एक रोटी

जो कल शाम की

रोटीदान में रखी थी

जो गली से कुत्ता आया

रोटीदान को तोड़

रोटी उठा ले गया

अब इंतजार है

रोटी कहां से पैदा करें

घर में दो चीज़ है

एक मैं और एक रोटीदान

मेरे बच्चों की निगाह

उस कुत्ते की तरफ

जो शाम की बची रोटी ले गया

का गया

बच्चों की उदासीनता

देखी नहीं जाती

क्या करें….।

लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।