न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर मंडराता गंभीर खतरा

मुनेश त्यागी

 

पिछले दिनों सोशल मीडिया के माध्यम से पूरे देश की जनता को पता चला कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के मुख्य न्यायाधीश के घर गए हैं, जहां पर उन्होंने गणेश प्रतिमा का पूजन किया। इस वीडियो को लेकर वकीलों, बुद्धिजीवियों और समाज के जागरूक तबके में चर्चा हो रही है और इसे लेकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर एक बहुत बड़ी बेचैनी महसूस की जा रही है।

यहां पर सवाल उठता है कि इस वीडियो का इतना प्रचार क्यों? इसे सोशल मीडिया पर क्यों दिखाई जा रहा है? इस मुलाकात का क्या अर्थ निकाला जाए? मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री दोनों मिलकर पूरे देश की जनता को क्या दिखाना चाहते हैं? इस वीडियो का इतना प्रदर्शन क्यों किया जा रहा है? यह आस्था थी या राजनीति? क्या इन दोनों का यह मिलन भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल नहीं खड़े कर रहा है?

मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री की इस वीडियो से भारत की न्यायपालिका में कैसा संदेश गया है। क्या यह खतरनाक संदेश नहीं है। क्या इससे न्यायपालिका की स्वतंत्र और निष्पक्ष विरासत को खतरा महसूस नहीं हुआ और क्या इसने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल नहीं खड़े कर दिए। इन दोनों का मिलन न्यायपालिका की आजादी पर एक बड़ा कुठाराघात है। उसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष विरासत पर एक बहुत बड़ा हमला है। इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के कई जज इस तरह का काम कर चुके हैं। इसका नतीजा न्यायमूर्ति गोगोई और अरुण मिश्रा के रूप में सारा देश देख चुका है जहां पर न्यायमूर्ति गोगोई को राज्यसभा सदस्य और अरुण मिश्रा को मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था।

इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के 30 जज विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में गए थे। यहीं पर सवाल उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया था? क्या उनके फैसलों की कोई जांच की गई? इससे तो लगता है कि इन दोनों का यह मिलन सरकारी संस्थानों पर कब्जा करने की और उन्हें अपने हितों की रक्षा करने की रणनीति का अगला हिस्सा है। यह मिलन हारी हुई बाजी को जीतने की चाल का हिस्सा है। यह जनता को और विपक्ष को यह दिखाने की चाल है कि “तुम कुछ भी करो, हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है क्योंकि ज्यूडिशियरी हमारे साथ है।”

प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के इस मिलन ने बहुत गंभीर स्थिति पैदा कर दी है और इसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। जैसे क्या अब न्यायपालिका बीजेपी राज्यों के बुलडोजर न्याय पर रोक लगा पाएगी? क्या भीड़ हिंसा पर भारत की न्यायपालिका समुचित कार्यवाही करेगी? और समुचित फैसला देगी? क्या सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयान देने वाले साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वालों पर सुप्रीम कोर्ट या भारत की न्यायपालिका चुप्पी नहीं साध लेगी?

यहीं पर यह सवाल उठता है कि चलो मान लिया कि प्रधानमंत्री मूर्ति पूजन के कार्य में मुख्य न्यायाधीश के घर चले गए थे। यह उनकी आस्था थी तो यहीं पर कई सवाल पैदा होते हैं कि आखिर इतने सारे वीडियो क्यों बनाए गए? और चलो वीडियो बना भी लिए तो फिर इन वीडियो को सोशल मीडिया पर डालकर वायरल करने का क्या मतलब है? क्या यह एक सोची समझी साजिश के तहत नहीं किया जा रहा है ताकि जनता को यह दिखाया जा सके कि देखो न्यायपालिका और ज्यूडिशियरी साथ-साथ हैं।

इस वीडियो के सामने आने से लोगों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की मान्यता पर गहरा सदमा लगा है। वैसे तो मुख्य न्यायाधीश के बारे में यह मान्यता थी कि वह एक चुनौती के तहत काम कर रहे हैं जिसे सरकार खुश नहीं थी, मगर मुख्य न्यायाधीश का यह कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के खिलाफ है। इसकी स्वतंत्र छवि की विरासत को बहुत बड़ा धक्का पहुंचाने वाला है। इससे न्यायपालिका की आजाद और निष्पक्ष छवि के साथ साथ न्यायमूर्ति चंद्राचूड की छवि को यक़ीनन बहुत बड़ा गंभीर धक्का लगा है।

भारत का सर्वोच्च न्यायालय अपने कई फैसलों में यह जाहिर कर चुका है कि न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि इसको होते हुए दिखना भी चाहिए और भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका को आपस में एक समुचित दूरी बनाए रखनी चाहिए ताकि जनता में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की छवि को लेकर किसी प्रकार की गलतफहमी पैदा ना हो और और इन दोनों की छवि पर कोई सवाल पैदा ना हो। मगर पता नहीं भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय की उस हिदायत को क्यों ध्यान में नहीं रखा? उन्होंने कैसे प्रधानमंत्री को अपने निजी धार्मिक प्रतिष्ठान में आने की मोहलत दी? अगर उन्हें इस कार्यक्रम को सामूहिक बनाना था तो वह अन्य राजनीतिक नेताओं को भी आमंत्रित करते, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।

यहीं पर यह बात भी गौर करने लायक है कि भारत की मीडिया का पतन किस हद तक हो चुका है कि गुलाम मीडिया ने इस खबर को टीवी और अखबारों से पूरी तरह से गायब कर दिया। भला हो सोशल मीडिया का कि उसने न्यायपालिका की तथाकथित स्वतंत्र छवि का पर्दाफाश कर दिया है और उसने इस मिलन को जनता के सामने जाहिर कर दिया और पूरे देश की जनता को न्यायपालिका और मुख्य न्यायाधीश की स्वतंत्रता और निष्पक्ष छवि का पता चल पाया।

इस वीडियो से यह साफ जाहिर हो रहा है कि यह मिलन और पूजा-पाठ धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फैसलों में कहा है कि सरकार को या राज्य को किसी धर्म विशेष को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए और उनसे दूर रहना चाहिए, क्योंकि राज्य का कोई धर्म नहीं है। उसके लिए सब सब धर्म बराबर है। वह किसी धर्म को विशेषता प्रदान नहीं करेगी। मगर अफसोस कि यहां तो प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश एक धर्म विशेष के पूजा-पाठ को आगे बढ़ने का काम कर रहे हैं।

यहीं पर यह वीडियो दिखा रहा है कि सर्वोच्च पदों पर बैठे हुए लोग भी किस हद तक धर्मांधता और अंधविश्वासों के शिकार हैं। इस वीडियो से यह पता चलता है कि यह धर्मांता, अंधविश्वासों और पाखंडों को और मजबूती से बनाए रखने की साजिश का एक हिस्सा है ताकि जनता धर्मांधता और अंधविश्वासों के जाल से बाहर न आ सके और इसी में फंसी रहे। अब तो तमाम तरह के धर्मांध, पाखंडी और अंधविश्वासी सोच के लोग, जनता से कहेंगे कि देखो जब भारत का मुख्य न्यायाधीश यह सब कर रहा है तो तुम क्यों झिझकते हो? तुम भी यह सब करो। इस प्रकार इस वीडियो से धर्मांधता और अंधविश्वासों की आंधी को और बल मिलेगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के ये कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर बहुत बड़े सवाल खड़े कर रहे हैं।

वैसे ऐतिहासिक रूप से देखें तो मुगल शासन काल में भी उस समय के न्यायाधीशों को जनता के प्रतिनिधियों से मिलने पर रोक लगा रखी थी। मुग़ल शासक शाहजहां ने अपने शासनकाल में उस समय के इंसाफ़ करने वालों के लिए सख्त हिदायत दे रखी थी कि उन्हें किसी भी दशा में जनता के प्रतिनिधियों से मिलने से बचना चाहिए, उनसे हर हाल में अलगाव बनाये रखना चाहिए ताकि इंसाफ़ की गरिमा और निष्पक्षता और आजादी बची रहे और इंसाफ़ को लेकर जनता में किसी प्रकार की गलतफहमी पैदा ना हो।

भारत की न्यायपालिका के समस्त जजों को ऐसे अवांछित मिलन से सबक लेना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार से जनता को मजबूती के साथ यह संदेश नहीं देना चाहिए कि भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका एक हैं। ये दोनों अलग-अलग हैं और भारत की न्यायपालिका भारत की कार्यपालिका और विधायिका से पूर्ण रूप से अलग, निष्पक्ष और स्वतंत्र है। तभी जाकर भारत की जनता भारत की न्यायपालिका में अपना पूर्ण विश्वास कायम रख सकेगी। भारत के संविधान और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की वर्तमान समय की यही सबसे बड़ी मांग और तकाजा है।