जाति, धर्म और पाखंड पर कबीर की विचारधारा आज कितनी ज़रूरी है?
ऋतांश आज़ाद
आज जब हम कबीर जयंती मना रहे हैं तो हमारा देश एक बेहद अंधेरे और खतरनाक दौर से गुज़र रहा है. पिछले 11 सालों में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा/आरएसएस केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हुई है, इनकी नीतियों के चलते समाज में सांप्रदायिकता लगातार उफान पर है. असल में सिर्फ सांप्रदायिकता ही नहीं जातिवाद और पाखंडवाद में भी लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. इसीलिए आज कबीर जयंती पर इस लेख के माध्यम से यही प्रयास है कि पंद्रहवी शताब्दी के इस कवि, दार्शनिक व समाज सुधारक संत के विचारों के ज़रिये आज के इस अंधेरे दौर में रोशनी की तलाश की जाए.
कबीर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. उनके दोहे और पद लंबे समय से उत्तर भारतीयों की स्मृतियों में ज़िंदा रहे हैं. लेकिन फिर भी आगे बढ़ने के पहले उनके बारे में कुछ ऐतिहासिक तथ्य जान लेते हैं.
प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी किताब ‘कबीर: द लाइफ़ एंड वर्क्स ऑफ़ द अर्ली मॉडर्न पोएट-फ़िलॉसफ़र’ में लिखते हैं ‘माना जाता है कि कबीर का जन्म विक्रम संवत 1456 की पूर्णिमा के दिन हुआ था, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार 1398 की गर्मियों में होता है और माना जाता है कि उनका निधन 1518 में हुआ था, जो उनके जन्म के एक सदी से भी ज़्यादा समय बाद हुआ था. कुछ आधुनिक विद्वानों ने उनके जन्म को पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में कहीं रखकर उनके जीवनकाल को ज़्यादा ‘विश्वसनीय’ बनाने की कोशिश की है.’
कबीर पर विभिन्न किताबें लिखने वाली लिंडा हेस लिखती हैं ‘उनका जन्म 15वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाराणसी में बुनकरों के एक ऐसे वर्ग में हुआ था जो हाल ही में इस्लाम में परिवर्तित हुए थे।’ कबीर ने अपने गुरु के तौर पर रामानंद को चुना जो वैष्णव संप्रदाय के थे, लेकिन उनके विचार किसी भी संप्रदाय या धर्म से जुड़े हुए नहीं थे. इसपर लिंडा हेस लिखती हैं ‘कुछ आधुनिक टिप्पणीकारों ने कबीर को हिंदू धर्म और इस्लाम के संश्लेषणकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है; लेकिन यह तस्वीर सही नहीं है. कबीर ने अपनी इच्छानुसार विभिन्न परंपराओं का सहारा लेते हुए, अपने देशवासियों के दोनों प्रमुख धर्मों से अपनी स्वतंत्रता की जोरदार घोषणा की व उन्होंने इन धर्मों की रूढ़ियों पर जोरदार हमला किया.’
आइए अब आज के दौर को कबीर के विचारों की रोशनी में देखने का प्रयास करते हैं. आज जब सांप्रदायिकता समाज में उफान पर है, झूठी खबरों का बाज़ार गर्म है और सच बोलने वालों पर मुकदमें हो रहे हैं, तो इसपर कबीर कहते हैं:
साधो, देखो जग बौराना।
सांची कहौ तो मारन धावै झूंठे जग पतियाना।
हिंदू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना।
आपस में दोउ लड़े मरतु हैं मरम कोई नहिं जाना।’
इसका अर्थ है देखो साधु, सारी दुनिया पागल हो गई है. सच्ची बात कहो तो मारने को दौड़ते हैं लेकिन झूठ पर सबका विश्वास है. हिंदू राम का नाम लेता है और मुसलमान रहमान का और दोनों आपस में इस बात पर लड़ते-मरते हैं, लेकिन सत्य को कोई नहीं समझता.
इस विषय पर इतिहासकार हरबंस मुखिया लिखते हैं, ‘उन्होंने (कबीर) दो प्रचलित रूढ़िवादिताओं पर सवाल उठाए: प्रतिद्वंद्वी ईश्वर की अवधारणा और उनकी पूजा के लिए धार्मिक अनुष्ठानों की आवश्यकता. अल्लाह और ईश्वर के स्थान पर उन्होंने एक ही सार्वभौमिक ईश्वर की अवधारणा बनाई; संगठित धर्मों के स्थान पर उन्होंने एक सार्वभौमिक धार्मिकता की अवधारणा बनाई.’
वे अपनी बात लिखते हुए कबीर के इस दोहे का हवाला देते हैं:
भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहु कौने बौराया।
अल्लाह राम करीमा केशव, हरि हजरत नाम धराया।
इसका अर्थ है कि भाई, दो भगवान कहां से आ गए, किसने तुम्हें गुमराह करके यह विश्वास दिलाया है? अल्लाह, राम, करीम, केसव, हरि, हज़रत – ये सभी एक ही पहचान हैं.
इसी तरह आज समाज में जब अंधविश्वास फैलाते बाबाओं के प्रति एक प्रकार का आकर्षण बढ़ा है, तब हमें कबीर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं:
मन ना रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर में बैठै
ब्रह्म-छांड़ि पूजन लागे पथरा।
इसका अर्थ है कि जोगी के मन में प्रेम का रंग है नहीं, उसने सिर्फ़ कपड़े रंगवा लिए हैं. आसन मार कर मंदिर में बैठ गया है और ब्रह्म को छोड़ कर पत्थर की पूजा कर रहा है. (अनुवाद: सरदार जाफ़री)
यहां कबीर बाबाओं की असलियत बता रहे हैं. इसी से संबंधित उनका एक और दोहा है:
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
इसका अर्थ है अगर पत्थर पूजने से भगवान मिल जाते हैं तो हमें फिर पहाड़ को पूजना चाहिए. इससे बेहतर है कि हम चक्की को पूजे जिससे हमें रोटी मिलती है.
यहां वे अंधविश्वासों पर तो सवाल करते ही हैं साथ ही वे दुनिया को देखने का एक तार्किक दृष्टिकोण भी हमें देते हैं. यह अंधविश्वास के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता का ही सबूत है कि जहां ये माना जाता है कि बनारस में मरने से मोक्ष मिलता है, तो वे अपने आखरी दिनों में अपनी जन्मभूमि बनारस छोड़कर मगहर चले गए जिसके बारे में मान्यता है कि वहां मरने पर अगले जन्म में गधे का जीवन मिलता है.
कबीर अपने एक पद ‘मोको कहां ढूंढ़े बंदे’ में कर्मकांडों और रूढ़ियों के परे एक अलग प्रकार की आध्यात्मिकता की भी बात करते हैं. वे कहते हैं:
मोकों कहाँ ढूंढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में॥
इसका आर्थ है कि ऐ बंदे (इंसान), तू मुझे कहां ढूंढ़ता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूं. न मैं मंदिर में मिलूंगा, न मस्जिद में, न काबे और कैलाश में, न पूजा-पाठ में, न योग-बैराग में. सच्चे मन से खोजने वाला हो तो उसे मैं पल-भर की तलाश में मिल जाऊंगा. कबीर कहते हैं, भाई साधु सुनो, वह तो हर सांस में मौजूद है.
प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी पुस्तक ‘कबीर: द लाइफ़ एंड वर्क्स ऑफ़ द अर्ली मॉडर्न पोएट-फ़िलॉसफ़र’ में लिखते ‘हमें आध्यात्मिकता के एक तर्कसंगत विचार की आवश्यकता है जो व्यक्ति की आंतरिक दुनिया के प्रति संवेदनशील हो और साथ ही, सामूहिक, सामाजिक चुनौतियों और बाहरी मुद्दों के प्रति भी सजग हो. क्या कबीर हमें ‘तर्कसंगत आध्यात्मिकता’ को व्यक्त करने में मदद करते हैं? हां, असल में वे करते हैं.’
अपनी किताब ‘बुद्धिज़्म इन इंडिया: चैलेंजिंग ब्राह्मणिज़्म एंड कास्ट’ में गेल ओमवेट कबीर पर लिखती हैं, ‘सभी संतों में से शायद वे ही एकमात्र ऐसे संत हैं जो ‘भक्तिवाद’ नहीं व्यक्त करते, खुद को किसी दिव्य सत्ता के सामने विनम्र नहीं पाते या खुद को उसकी दया पर नहीं छोड़ते. इसके बजाय वे श्रोताओं/शिष्यों से, अगर ठीक से ‘सोचने’ की अपेक्षा नहीं करते, तो किसी प्रकार के परम ध्यान या सजगता की अपेक्षा करते हैं और स्वयं दिव्य भक्त की महानता की घोषणा करने में संकोच नहीं करते हैं.’
वह कबीर के इस पद का उदाहरण देती हैं:
झगड़ा एक बड़ा राजा राम जो सुलजाए वो निर्धन
ब्रह्म बड़ा की जहां से आया? वेद बड़ा की जिन ऊपजाया?
यह मन बड़ा की जो मन माने?
राम बड़ा कि जो राम के जाने?
भ्रमि भ्रमि कबीरा फिरे उदास
तीरथ बड़ा की तीरथ का दास?
इसका अर्थ है- यह बड़ी लड़ाई है राजा राम. जो इसे सुलझा लेता है, वह बंधन से मुक्त हो जाता है. ब्रह्मा बड़ा है या वो जहां से आया? वेद बड़ा है या वह जिसने उन्हें बनाया? मन बड़ा है या मन का विश्वास? राम बड़ा है या राम का ज्ञाता? कबीर उदास होकर भ्रम में घूमता है, समझना कठिन है, तीर्थ बड़ा है या भक्त?
यहां कबीर सुनने वाले की धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों पर सवाल करने को मजबूर करते हैं.
इसी तरह आज जब समाज में जातिवाद में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है तो कबीर का ये दोहा याद आता है:
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
ऐसे ही कबीर पुरोहितवाद पर सीधा सवाल करते हुए कहते हैं:
तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलहा, बूजहु मोर गियाना।
तुम तौ पाचे भूपति राजे हरि सो मोर धियाना॥
इसका अर्थ है – यदि तुम ब्राह्मण हो, तो मैं भी कुछ कम नहीं हूं, मैं काशी का बुनकर हूं, मैं तुम्हें मेरा ज्ञान तलाशने की चुनौती देता हूं, तुम हमेशा राजाओं और शक्तिशाली लोगों के पीछे पड़े रहते हैं, मेरा संबंध केवल हरि से है, परमात्मा से है.
इसी तरह कबीर एक अन्य पद में कहते हैं ‘एकै बूंद एकै मलमूतरा, एकै चाम एकै गूदा। एकै जोति एकै पवन पसारा, कौन ब्राह्मण कौन शूद्रा॥’ कबीर के इन विचारों से उनकी जातिवाद विरोधी विचारधारा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.
जैसा कि आपने देखा कबीर के दोहों और पदों में एक ओर जहां रूढ़ियों, पाखंडों व अंधविश्वासों का विरोध दिखाई देता है. वहीं दूसरी ओर उनकी ईश्वर की कल्पना और आध्यात्मता में एक प्रकार की सहजता, तार्किकता या आज की शब्दावली में कहा जाए तो लोकतांत्रिक भाव है. वे दोनों ओर की सांप्रदायिकता की मूर्खता पर बेबाकी से सीधा सवाल करते हैं और जातिवाद की अवैज्ञानिकता पर सीधा प्रहार.
उनकी विचारधारा आज सत्ता से सवाल करने वाले और समाज में परिवर्तन चाहने वाले हर व्यक्ति व आंदोलन में ज़िंदा है. आज के परिप्रेक्ष्य में कबीर के विचारों को ज़िंदा रखने की ज़रूरत और भी बढ़ गई है.(वायर से साभार)
(लेखक ‘भारत की जनवादी नौजवान सभा’ (DYFI) राजस्थान राज्य कमेटी के नेता हैं और प्रगतिशील युवा आंदोलन से जुड़े रहे हैं.)