जयपाल की दो लंबी कविताएं

पहली कविता

लक्कड़बग्घा

पैदा होने से पहले
मैंने सोचा था
जब में पैदा होऊँगा तो मां खुश होगी
लेकिन पैदा होने के बाद
मैं भी रोया, माँ भी रोई
मैं साम्प्रदायिक दंगों के बाद एक राहत शिविर में पैदा हुआ था

पिता का पता नहीं था
बहन-भाई को पेट्रोल डालकर जलाया जा चुका था
घर को आग के हवाले कर दिया गया था
राहत शिविर में सबके चेहरे पर खौफ था
राहत का नामोनिशान दूर-दूर तक नहीं था
माँ भयभीत थी, आशंकित थी
मेरे पैदा होने के बाद से ही उसे मेरी मौत सामने दिखाई दे रही थी
यह तो मेरा भाग्य था की मैं नौ महीने भी माँ के पेट में रह सका
नहीं तो मेरी माँ के पास कुछ दूसरी मांएं भी थीं
जिनके पेट को आतंकवादी शिविर समझ कर खाली कर दिया गया था
वे अब क्या मुँह लेकर बाकी जीवन जिएंगी
ये माँएं !
ये बच्चे !
क्या बातें करते होंगे आपस में
भविष्य को लेकर क्या चलता होगा इनके मन में
कभी नींद भी आती होगी या नहीं
आती भी होगी तो कैसे-कैसे सपने आते होंगे
जैसे कि मेरी माँ को सपने में अपना गाँव दिखाई देता है
और उस गाँव में एक लक्कड़बग्घा
जो अक्सर बच्चों को उठा में जाता था
और खेतों में जाकर छिप जाता था
बच्चों के चिथड़े खेतों में ही मिलते थे
कभी वे नहीं भी मिलते थे

मेरी माँ कहती है
यहाँ भी एक लक्कड़बग्घा आया हुआ है
यह लक्कड़बग्घा चोरी-छिपे कुछ नहीं करता
यह रात के अँधेरे में नहीं दिन की रोशनी में निकलता है
जयकारे लगाता है और बच्चों को उठा ले जाता है
इसकी खासियत यह है कि यह बच्चों के साथ
उनकी माँओं को भी उठा ले जाता है
इसकी आँखें अल्ट्रासाउंड की तरह हैं
यह दूर से ही माँ के गर्भ का अंदाजा लगा लेता है
हिन्दू-शिशु और मुस्लिम शिशु को पहचान लेता है
एक मण्डली कीर्तन करती है
दूसरी बलात्कार करती है
दोनों काम साथ-साथ चलते हैं

माँ के गाँव का लक्कड़बग्घा मुर्ख था
कभी-कभी पकड़ में भी आ जाता था
लाठी गोली खा लेता था
लेकिन यह लक्कड़बग्घा किसी की पकड़ में नहीं आता
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सुप्रीम कोर्ट-सब इससे डरते हैं
यह सारा काम योजनाबद्ध ढंग से करता है
यह लक्कड़बग्घा औरतों और
बच्चों का माँस खाता है
दूसरे धर्मों को गाली देता है
और संत महात्मा कहलाता है

माँ के गाँव का लक्कड़बग्घा जाकर खेतों में छिप जाता था
लेकिन यह लक्कड़बग्घा गौरव-यात्रा निकालता है
और सिंहासन पर सज जाता है
धर्मस्थल इसके सुरक्षित खेत हैं
यह देश की बात करता है
देश वासियों पर हमला कर देता है
भगवान की बात करता है
और दंगों में शामिल हो जाता है
धर्मस्थलों का रक्षक बनता है
और धर्मस्थल गिरा देता है
संतों का चोला पहनता है
और आदमखोर हो जाता है

मेरी माँ कहती है
इससे तो गाँव का लक्कड़बग्घा ही अच्छा था
किसी के जात-धर्म तो नहीं देखता था
बाज़ारों में लूट तो नहीं मचाता था
बस्तियों की होली तो नहीं जलाता था
चौराहे पर बलात्कार तो नहीं करता था
भीड़ देखता था तो भाग जाता था
कम से कम डर तो था उसमें
अपराधबोध भी रहता था
मारने खाने के बाद
खेतों में छिप जाता था
गाँव में जाकर सरपंच तो नहीं बन जाता था
लोग उसे महात्मा तो नहीं कहते थे
पुलिस खोजकर उसे पकड़ती थी
सुरक्षा तो नहीं देती थी
कम से कम लोग उसे अपना दुश्मन तो समझते थे
चार आदमियों में उसे गाली दी जाती थी
मंच पर नहीं बिठाया जाता था
गाँव में घुसने पर लाठी से उसका स्वागत होता था
गले में हार नहीं डाले जाते थे !

गाँव का लक्कड़बग्घा
कम से कम रथ पर सवार होकर तो नहीं निकलता था
सबसे बड़ी बात यह
कि लोग लक्कड़बग्घे को लक्कड़बग्घा तो कहते थे !

माँ कहती है
अच्छा होता मेरे गाँव का लक्कड़बग्घा
मुझे बचपन में ही उठा ले जाता और मारकर खा जाता !

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दूसरी कविता

उसका गाँव

जिस गाँव की सीमा में प्रवेश करते ही
कवि,लेखक और शिक्षक डॉ. चन्द्रप्रकाश
अचानक ‘चंदा चमार’ हो जाता है
वह उस गाँव में क्या मुँह लेकर जाए
कैसे दोस्तों को बताए
कि उस गाँव में उसका बचपन बीता
वहीं उसका जन्म हुआ
वहीं उसका एक छोटा सा घर था
उन खेत-खलिहानों, बाग़-बगीचों को
कैसे वह अपना कहे
जो सदा उसे चोर-उचक्का ही समझते रहे !
वह उन गली-मोहल्लों में जाकर कैसे घूमे
जो आज भी उससे दूर हट कर बात करते हैं

अपने गाँव जाकर
वह उस स्कूल में कैसे जाए
जहां मास्टर उसे ‘बँते चमार’ का कहकर बुलाते थे
जहां मास्टर उससे पूछते थे-
वह किस-किस का बेटा है
उसकी मां किस-किस के घर में काम करती थी
काम के साथ और क्या-क्या करती थी
वह गाँव जाकर उस मंदिर को कैसे देखे
जिसके भीतर उसके बाप-दादा कभी पाँव भी न रख सके
वह गाँव के उस ऐतिहासिक कुँए को कैसे ख्वाजा मान ले
जिसने उसके परिवार को कभी एक बूँद पानी भी न पिलाया

वह उस खेत में कैसे जाए
जहां एक गठरी घास लेने पर
मानसिंह सरपंच ने उसके बाप को पचास जूते मारे थे
वह उस गन्ने के खेत पर कविता कैसे लिखे
जिसमें एक बार उसकी बहन गुम हुई
और आज तक वापिस नहीं आई
वह उन हवेलियों पर गीत कैसे लिखे
जिनकी साफ़-सफाई करते उसके पुरखे वहीं कहीं दबकर मर गए
वह उस पीपल की छाँव में कैसे जाकर बैठे
जहाँ उसके परिवार के खिलाफ सारा गाँव बैठा
फ़तवे जारी हुए और सामाजिक बहिष्कार हुए
वह उन गाँव के पशुओं को कैसे अपना कहे
जिनको हमेशा उसके माता-पिता से पवित्र मान जाता रहा

उसके मोहल्ले में तो पता ही नहीं चलता था
कि उसका घर गली में है या गली घर में
वह कौन सी गलियों को अपना कहे
तुम किस पवित्र बावड़ी की बात करते हो
उसके घर के सामने तो एक काले-भूरे पानी का जौहड़ था
जिसमें मक्खी-मच्छर और साँप-संपालिये मौज करते थे
जानवर और आदमी एक सात हगते-मूतते थे
जिसमें उसकी बस्ती की कईं औरतें
पता नहीं क्यों डूब मरीं
वह उन सारे रहस्यों को सबके सामने कैसे खोल दे

मेरे दोस्त
छूटने के बाद कोई पंछी दुबारा पिंजरा देखने नहीं आता
और न ही पिंजरे के दिनों को याद करता है
तुम कवि,लेखक और शिक्षक हो
निश्चिन्त होकर हिंदी कविता के गाँव में जा सकते हो
और प्रसिद्ध हिन्दी कविता..‘अहा ! ग्राम्य जीवन भी क्या है….’ गा सकते हो
पर वह निश्चिन्त होकर गाँव नहीं जा सकता
और न ही कुछ गा सकता है
क्योंकि रोते हुए कुछ गाया नहीं जा सकता
तुम सिर ऊँचा करके
गाँव की गलियों में घूम सकते हो
पर वह अपना सिर कितना ऊँचा करे
जहाँ बच्चे से बूढ़े तक
हर आदमी का सिर आसमान तक जाता है
वह अपने जन्मस्थान अपने गाँव कैसे जाए
अपने हाथों से अपना सिर कैसे काटे !

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कवि का परिचय 

-जयपाल हरियाणा के अंबाला में रहते हैं। पंजाब में अध्यापक थे। अब सेवा निवृत्त हो चुके हैं। साहित्यिक संगठनों जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ और हरियाणा लेखक मंच में सक्रिय हैं। एक कविता संग्रह *दरवाजों के बाहर आधार प्रकाशन से प्रकाशित। इसी संग्रह पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में शोध-कार्य किया गया। इसके अलावा *देस हरियाणा पत्रिका के संपादक मंडल में* हैैं। लगातार लेखन में सक्रिय।

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