लघु पत्रिकाओं की अहमियत पर बहस को जन्म देता प्रेरणा-अंशु का लघु पत्रिका विशेषांक
ओम प्रकाश तिवारी
कहानी, कविता के लिए ही नहीं वैचारिक और तथ्यपरक आलेख व रिपोर्ट के लिए भी लघु पत्रिकाओं की जरूरत होती है। इनकी पाठक संख्या कम होती है। इसके बावजूद इनकी जरूरत उसी तरह होती है जैसे मानव को जीने के लिए ऑक्सीजन की होती है। बीमार को दवाई और चिकित्सक और अस्पताल की होती है।
मुख्यधारा का मीडिया, जिसे अखबार कहा जाता है, उसमें से न केवल साहित्य गायब हो गया है बल्कि वैचारिक आलेख भी लुप्त हो गए हैं। तथ्यपरक रिपोर्ट भी शायद ही छपती है। कहने को सभी अखबारों में संपादकीय पेज नियमित होता है, लेकिन इनमें छपने वाले आलेख सतही होतेहैं। बहुत कम आलेख ऐसे होते हैं गंभीर और वैचारिक होते हैं। आज के समय में तो एकांगी भी होते हैं। ऐसे में लघु पत्रिकाओं की भूमिका और अहम हो जाती है।
सोशल मीडिया के जमाने में लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन और चुनौतीपूर्ण हो गया है। आज के समय में काफी हद तक सोशल और इंटरनेट मीडिया पर ऐसी सामग्री छप रही है या ऑडियो-वीडियो के रूप में उपलब्ध कराई जा रही है जो कभी लघु पत्रिकाओं में ही मिलती है। मुख्याधारा की मीडिया से खारिज किए गए तमाम पत्रकार सोशल और इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय हैं। इनमें से कई बेहतर कंटेंट उपलब्ध करा रहे हैं। सोशल-इंटरनेट मीडिया की भी अपनी विसंगतियां हैं। जो सुविधा लघु पत्रिकाओं में होती है वह यहां पर मौजूद नहीं है। लेकिन यह सुविधा जरूर है कि कोई भी व्यक्तिगत स्तर पर भी कंटेंट उपलब्ध करा सकता है। कई लोग करा भी रहे हैं। इससे वह कमाई भी कर रहे हैं।
बावजूद इसके लघु पत्रिकाओं की उपयोगिता और उनके अस्तित्व को खारिज नहीं किया जा सकता है। उनकी अपनी अहमियत है। आज भी गंभीर पाठकों को ऐसी पत्रिकओं की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि गंभीर साहित्य को पढ़ने वाले नहीं हैं। गंभीर साहित्य उसी तरह पढ़ा जा रहा है। यही वजह है कि आज लघु पत्रिकाओं से ज्यादा किताबें छप रही हैं। कहानी, उपन्यास, कविता, लघु कथा जैसी विधाओं के लिए आज भी लघु पत्रिकाएं निकल रही हैं। इनमें वैचारिक आलेख भी होते हैं। लेकिन इनकी अपनी चुनाैती भी है। यह चुनाैती आर्थिक होती है। कोई पत्रिका निकालने के लिए धन की जरूरत होती है। धन यदि विज्ञापन से आएगा तो पत्रिका की स्वतंत्रता प्रभावित होना स्वाभाविक है। विज्ञापन चाहे कारपोरेट से आए या सरकार से मिले, सभी अपने तरीके से विचार और तथ्य को नियंत्रित करते हैं। ऐसे में पत्रिका को नियमित प्रकाशित करने के लिए पाठक का सहयोग जरूरी हो जाता है।
समस्या यहीं पर आती है। लघु पत्रिकाओं को उतने पाठक नहीं मिल पाते हैं, जितने से पत्रिकाका नियमित प्रकाशन जारी रखा जा सके। यहां पाठक से मतलब पत्रिका का नियमित सदस्यबनने से है। यदि किसी लघु पत्रिका को पर्याप्त संख्या में नियमित सदस्य मिल जाएं जो तयराशि का भुगतान कर दें तो पत्रिका का प्रकाशन सरल हो जाता है। अन्यथा हम देखते हैं कि कुछ लोग निजी साधनों से पत्रिका का प्रकाशन शुरू तो कर देते हैं, लेकिन कुछ अंक के बाद उनका प्रकाशन बंद हो जाता है। यदि बंद नहीं भी होता है तो अनियमित हो जाता है। ऐसेमें जो पाठक सहयोग राशि देते हैं वह ठगा सा महसूस करते हैं। हालांकि यदि कोई ट्रस्ट बनाकर पत्रिका का प्रकाशन किया जाए तो बेहतर हो सकता है।
आज के समय में इंटरनेट पर ई-पत्रिकाएं निकल रही हैं। इनकी पहुंच भी सभी जगह नहीं हो पाती है। इन्हें पढ़ने के लिए इंटरनेट, स्मार्ट मोबाइल फोन, लैपटाॅप या कंप्यूटर की जरूरत होती है। इतनी चीजें हर किसी के पास आज भी नहीं मिल पाती हैं। इसलिए इन्हें भी हर कोई नहीं पढ़ पाता है। यही नहीं इनका प्रकाशन भी आसान नहीं होता है। ई-पत्रिका के प्रकाशन के लिए भी धन की जरूरत होती है। यदि इसकी व्यवस्था नहीं हो पाती है यह भी दम तोड़ देती है।
मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूं कि लघु पत्रिकाओं की काफी जरूरत होती है। नब्बे के दशक में जब मैंने लिखना शुरू किया था तो उस समय पढ़ने के लिए लघु पत्रिकाओं का सहारा लेता था। यही नहीं छपने के लिए भी लघु पत्रिकाएं ही माध्यम थीं। अखबारों में कविता-कहानी उस समय से ही छपना कम हो गया था। बाद में तो लगभग बंद ही हो गया। यह एक तरह से मकान की खिकड़ी दरवाजे बंद करने जैसी हरकत थी, लेकिन की गई और आज तक जारी है। जब खबरें बेचने का कार्य किया जा रहा हो तो विचार कहां बचा रह पाता है। वैसे भी बाजार को विचार नहीं आचार चाहिए। वह विचार का आचार नहीं बना सकता। इसलिए वह वह अपनी दुनिया में विचार का निषेध करता है। हां, वह अपने लिए जरूरी विचार का आचार बनाकर बेचता है।
मीडिया में इस वैचारिक शून्य का असर यह है कि पत्रकारिता की पढ़ाई करने वालों को पताही नहीं होता है कि वामपंथ क्या है? और दक्षिणपंथ क्या होता है। इस तरह का सवाल एक सीनियर पत्रकार से पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेने आई दो युवतियों ने किया था। वह महोदय इसका जवाब नहीं दे पाए थे। सवाल को मेरी तरफ गेंद की तरह उछाल दिया था। यह स्थिति इसलिए बनी क्यों कि लघु पत्रिकाओं की पहुंच उन तक नहीं थी। यह भी कहा जा सकता है कि यह लोग लघु पत्रिकाओं तक पहुंचना ही नहीं चाहे। यही वजह है कि यह कूपमंडूक बन गए। ऐसे लोगों में कोई समझ या नजरिया विकसित नहीं हो पाता है। यह लोग सोशल मीडिया की गंदगी को ही गंगाजल समझकर उसी में डुबकी लगाने लगते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि पूरी जिंदगी उसी में नहाते रहते हैं। इन्हें यह पता ही नहीं चलता कि ऐसा करना उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए कितना खतरनाक है।
उत्तराखंडके ऊधमसिंह नगर जिले के दिनेशपुर से मासिक के रूप में निकलने वाली प्रेरणा-अंशुपत्रिका का फरवरी-2025 अंक लघु पत्रिका विशेषांक के रूप में पाठकों के सामने है। पत्रिका के संपादक वीरेश कुमार सिंह ने इस अंक को निकालने में काफी मेहनत की है। साथ ही बेहद साहस का परिचय भी दिया है। इस अंक से लघु पत्रिकाओं की अहमियत पर बहस ने भी जन्म लिया है। विद्वान लेखकों ने अपने-अपने आलेख में लघु पत्रिका की अहमियत और उसे निकालने में आने वाली परेशानियों का गंभीरता से उल्लेख किया है। इस अंक में पत्रिका ने कई रचानकारों के वैचारिक आलेख प्रकाशित किए हैं। कई ऐसे मुद्दों पर तथ्यपरक वेचारिक रिपोर्ट भी छापी है। सभी लेख व रिपोर्ट बेहतरीन हैं। ऐसे लेख और रिपोर्ट केवल लघु पत्रिका में ही पढ़ने को मिल सकते हैं। इन्हें पढ़कर ही कोई बौदि्धक खुराक हासिल कर सकता है। विचार को धार दे सकता है। अपना नजरिया विकसित कर सकता है
राष्ट्रीय मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु का फरवरी अंक लघु पत्रिका विशेषांक है। संपादकीय में महाकुंभ में हुई भगदड़ पर टिप्पणी की गई है। साथ ही कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं। अन्य आलेखों में लघु पत्रिका निकालने में होनी वाली परेशानियों, चुनौतियों फिर भी उसे प्रकाशित करने के हौसले की कहानियां दर्ज हैं।
अपना घर फूंक तमाशा में राजेंद्र वर्मा ने लघु पत्रिका क्यों जरूरी है इस पर रोशनी डाली है। वह लिखते हैं कि वास्तव में लघु पत्रिका का संचालन सतत चलने वाला साहित्यिक आंदोलन है, जिसे किसी खास बिंदु पर सफलता के पैमाने पर नहीं कसा जा सकता। इसलिए आंदोलन में यह नहीं देखा जाता कि सफलता मिली कि नहीं, बल्कि यह देखा जाता है कि इससे कौन कितना और कितनी दूर तक जुड़ता। वह अपने प्रथम वाक्य में ही लिखते हैं कि साहित्यिक पत्रकारिता उद्यम नहीं है। उनकी बात बिल्कुल सही है। लघु पत्रिका निकालना आंदोलन चलाने जैसा ही होता है। लोग जुड़ते जाते हैं तो कारवां बन जाता है, नहीं तो एकला चलो की तर्ज पर बहुत से जुनूनी लोग पत्रिका का प्रकाशन करते रहते हैं। कर भी रहे हैं। यह सब एक आंदोलन की दृष्टि से संभव हो पाता है।
पलाश विश्वास अपने आलेख पढ़ने-लिखने की संस्कृति बहाल करना अनिवार्य कार्यभार में लिखते हैं कि देश में जो परिस्थितियां हैं, अभिव्यक्ति के एक मात्र रास्ते को बचाए रखने के लिए आपसी मतभेद और वैचारिक संकीर्णता को भूलना होगा। जो लोग संस्थानों, प्रतिष्ठानों, व्यवस्था के विरोध में थे, वे उसी के हिस्से बन गए। लघु पत्रिका आंदोलन के बिखराव के बड़े कारण है मौकापरस्ती और गिरोहबंदी। उनकी बात सही है। वैचारिक बिखराव और ठहराव तो आया है, लेकिन इसे संगठित और गतिमान बनाने की जिम्मेदारी लघु पत्रिकाओं को लेनी होगी। यही पत्रिकाएं हमेशा से इसकी संवाहक रही हैं। अब भी किसी हद तक हैं और आगे इसमें तीखापन और तेजी लानी होगी। इस यही तो लघु पत्रिकाओं की मुख्य जिम्मेदारी है। लघु पत्रिकाएं ही चेतना ओर इतिहासबोध पैदा करके ठहरे वैचारिक समुद्र में हलचल पैदा कर सकती हैं।
संजय पराते अपने आलेख बस्तर के सेप्टिक टैंक में दफन लोकतंत्र में लिखते हैं कि यह भयानक विकास है। अपराधियों की सत्ता का विकास। संघियों का विकास। सत्ता को तेल लगाने वालों का विकास और गरीब आदिवासियों के हक की बात करने वालों का विनाश। उनके शब्दों की तल्खी को समझा जा सकता है। यह तेवर एक लघु पत्रिका ही संभाल सकती है। मुख्याधारा के मीडिया के वश की बात नहीं है ऐसी भाषा और विचार को प्रश्रय दे पाना। वह आगे लिखते हैं कि बस्तर सचमुच एक जंक्शन बना हुआ है। एक ऐसा जंक्शन जहां के सारे मार्ग बंद हैं।
महेंद्र नेह अपने आलेख संघर्ष और प्रतिरोध की दिशा में लिखते हैं कि लघु पत्रिकाएं न केवल वामपंथी विचारों और आंदोलनों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं, अपितु विश्व के अन्य हिस्सों-अफ्रीका, एशिया और तीसरी दुनिया के जन संघर्षों को अपनी भाषा और लोक संस्कृति को अभिव्यक्त करने वाले साहित्य से भी हिंदी के लेखकों और पाठकों को जोड़ने का काम कर रही थीं। थीं से उनका कहना यही है कि अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसकी वजह शायद यह भी है कि अब कोई जन आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा है। यह एक विचारणीय पहलू है
सुधा अरोड़ा अपने आलेख असंभव सपने का संसार में लिखती हैं कि लघु पत्रिकाओं का एक अलग ही जश्न था। इनकी अहमियत उनके अकार-प्रकार और संख्या के कारण नहीं थी, बल्कि उनमें ऐसी सामग्री छपती थी, जो आपकी रुचि को परिष्कृत करती थीं और प्रतिरोध की विचारधारा को सामने लाती थीं। उनकी बात से सौ फीसदी सहमत हुआ जा सकता है। लघु पत्रिकाओं का यही मकसद हुआ करता था और यह काम वह बेहतर तरीके से कर भी रही थीं। शायद अब भी कर रही हैं।
हेतु भारद्वाज अपने आलेख लघु पत्रिका : एक ऐतिहासिक और जरूरी उपस्थिति में लिखते हैं कि लघु पत्रिका आंदोलन को गति देने और लघु पत्रिकाओं की महत्ता को स्थापित करने की दृष्टि से एक राष्ट्रीय लघु पत्रिका समिति का गठन हुआ, जिसका नेतृत्व ज्ञानरंजन ने किया। जाहिर है कि इस समय भी ऐसा ही करने की जरूरत है। अपने आलेख में उन्होंने लघु पत्रिकाओं के इतिहास का व्यापक विवेचना की है। यह एक जरूरी और गंभीर आलेख है। इससे बहुत कुछ जानने और समझने को मिलता है।
निशांत ने अपने आलेख के माध्यम से गोपाल प्रसाद जी के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। यह आलेख एक तरह का दस्तावेज है। गोपाल जी के बारे में वह लिखते हैं कि गोपाल जी जीने के लिए जितनी मेहनत करते थे, उससे ज्यादा लिखने के लिए करते थे। संपादन के लिए करते थे। बिहार के रहने वाले गोपाल जी पेशे से जूट मिल में मजदूर थे। लेकिन रहन सहन से साहित्यिक थे। लघु पत्रिका इरा के संपादक, कवि-गजजकार के रूप में उनकी कोलकाता में भी हैसियत थी। जाहिर है कि गोपाल जी जैसे लेखक संपादक इस समय तो नहीं ही दिखते हैं।
शैलेंद्र चौहान अपने आलेख डिजिटल जमाने में चुनौतियां कठिन में लिखते हैं कि कहीं से कोई आर्थिक सहयोग नहीं। प्रकाश काय्र में भी कोई साथ नहीं और प्रिंटेड बुक पोस्ट की सुविधा भी डाक विभाग ने समाप्त कर दी है। जमाना डिजिटल हो गया है। सोशल मीडिया का वर्चस्व है। राह कठिन है। उनकी चिंता वाजिब है। इंटरनेट और सोशल मीडिया एक हकीकत बन गया है। लेकिन यह साधान है। लघु पत्रिकाओं को इस साधन का उपयोग करना चाहिए। समय के साथ तो चलना पड़ेगा। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। अनदेखी करने पर कहीं पीछे छूट जाने का डर ही नहीं कड़वी हकीकत भी है।
प्रताप दत्ता अपने आलेख में बांग्ला की लघु पत्रिकाओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि बंगला से बाहर बसे पुनर्वासित बंगाली समाज के लिए लघु पत्रिकाएं केवल साहित्यिक मंच नहीं हैं, बल्कि यह उनके सांस्कृतिक अस्तित्व को बचाए रखने का भी माध्यम हैं। इनकी अनुपस्थिति से न केवल भाषा और संस्कृति के संरक्षण में बाधा आती है, बल्कि नई पीढ़ी के लिए अपनी जड़ों से जुड़ने का साधन भी सीमित हो जाता है।
सुशील कुमार अपने आलेख में सही ही चेताते हैं कि वह दौर काफी पहले बीत चुका है, जब कोई साहित्यकार या साहित्य प्रेमी इधर-उधर से धनार्जन कर पत्रिका निकालता था और उसी में अपनी पूरी ऊर्जा और संसाधन झोंक देता था। अब ऐसा कर पाना कठिन ही नहीं असंभव सा हो गया है। वह यह भी लिखते हैं कि लघु पत्रिकाएं ही साहित्य की रीढ़ मानी जाती हैं। कोई भी लेखक पहले यहीं छपता है। यहीं पर उसकी रचनाशीलता की परख होती है। यहीं वह साहित्य लिखना और पढ़ना सीखता है। इसके बाद ही वह बड़ी और व्यावसायिक पत्रिकाओं की ओर रुख करता है। उनकी यह बात भी एकदम सही है।
रजत कृष्ण और पीयूष कुमार अपने आलेख जनता का संघर्ष कभी स्थगित नहीं हुआ में विष्णुचंद्र शर्मा और सर्वनाम को याद करते हैं। वे लिखते हैं कि सर्वनाम का उद्देश्य रहा वर्ग संघर्ष की चेतना का प्रसार। इसका कोई भी अंक खानापूर्ति के लिए नहीं निकाला गया, न ही भटकाव का शिकार हुआ।
आयाम पत्रिका के चार अंक निकालने वाले अरविंद गुप्त अपने आलेख में पत्रिका निकालने की कठिनाइयों का उल्लेख करते हैं। साथ ही यह सवाल भी करते हैं कि लघु पत्रिका को कौन पैसे दे? वह लिखते हैं कि कोई घोषित नारे नहीं थे। साहित्य का मतलब ही सबका हित है। इसी में सारी बातें आ जाती हैं। पत्रिका निकालने का उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा है। वह इसे इस आलेख में विस्तार से बताते हैं।
हृदयेश मयंक बहुत कड़वी और सच बात लिखते हैं। उनका यह कहना शायद कई लोगों को अच्छा न लगे लेकिन लिखा सच ही है। उनका कहना है कि नई व्यवस्था की वजह से काॅरपोरेट और बैंक के विज्ञापन क्या बंद हुए लघु पत्रिकाओं पर पहाड़ टूट पड़ा। कोरोना काल और लगातार मुफ्त में पढ़ने और पत्रिकाएं प्राप्त करते रहने की हमारी प्रवृत्ति ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा।
अनुगुंजन नामक पत्रिका निकालने वाले डॉ लवलेश दत्त अपने आलेख अनुगुंजन की यात्रा का जिक्र करते हैं। वह अपनी जिद भी बताते हैं कि रोजगार नहीं है तो क्या हुआ पत्रिका तो जरूर निकालेंगे। वह लिखते हैं कि कोरोना के समय में अनुगुंजन के प्रकाशन में बाधा पड़ी, क्योंकि मेरी नौकरी तो प्राइवेट थी ही, सो वह चली भी गई। घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में पत्रिका कैसे निकाली जा सकती थी? उनकी बात सही भी है। उनकी जिद है कि वह पत्रिका को पीडीएफ फॉर्मेट में निकाल रहे हैं। हालांकि वह जल्द ही इसे त्रैमासिक निकालने की बात भी कह रहे हैं। कुल मिलाकर उनका लेख उनकी जिद को सामने लाता है कि पत्रिका तो निकालनी ही है।
अनामिका शिव लिखती हैं कि पत्रिका का अस्तित्व तभी सशक्त बनता है, जब उसकी सामग्री में साहित्यिक गहराई और समाज के प्रति जागरूकता का भाव हो। उनकी बात भी सही है। यदि गंभीरता नहीं होगी तो ऐसी पत्रिका के ज्यादा अंक नहीं निकल पाएंगे। कई पत्रिकाओं का हश्र इसका प्रमाण भी है। उन्होंने किस्सा पत्रिका निकालने में आई चुनौतियों का उल्लेख किया है। वह लिखती है कि किस्सा पत्रिका को निकालना मेरे लिए केवल एक संपादकीय कार्य नहीं है, बल्कि एक सामाजिक दायित्व जैसा है।
कौशल किशोर अपनी पांच दशक की साहित्यिक यात्रा में लघु पत्रिकाओं को एक साथी के रूप में याद करते हैं। वह लिखते हैं कि लेखकों के लिए पत्रिका लेखन का हथियार थी। समझ भी यही थी कि क्रांतिकारी दौर में इसी के माध्यम से उनकी सामाजिक भूमिका हो सकती है। आज ये सब बातें रूमानी लग सकती हैं। लेकिन उस दौर की यही सच्चाई है।
डॉ मान सिंह बहुत अहम बात लिखते हैं। वह लिखते हैं कि जनसरोकारवादी लेखक इस समय संक्रमणकाल में कार्य कर रहे हैं। उनके लिखे को देश दुनिया तक पहुंचाने वाला माध्यम संकट में है। उस पर बाजारवाद हावी है। ऐसे में आम जनमानस की पीड़ा और जरूरतें नहीं अभिव्यक्त हो पा रही हैं।