योगेन्द्र नारायण
बचपन में कोस, धाप और योजन परेशानी का सबब था। पारिवारिक माहौल में सुन्दर काण्ड पढ़ते या सुनते हुए ‘सत योजन तेहि आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा’ में सभी शब्दों को समझ जाता था, परन्तु यह योजन क्या है, नहीं समझ पाता था। पूछने पर जो बताया जाता था, वह भी समझ से परे होता था। हजारों कोस का मुंह। अजीब बात। मुंह और हजारों कोस का। फिर यह कोस क्या है? पहले योजन और अब कोस। थोड़ा बड़ा हुआ, अब मील, फर्लांग, गज पढ़ने लगा था। फिर सुना हमारे गांव से बनारस की दूरी दस कोस है। कोस का सवाल फिर खड़ा। अब पता चला कि एक कोस में दो मील यानी बनारस की दूरी बीस मील। गांव से बस से बनारस आते-जाते मील का पत्थर पहचनवाया गया। बीच के छोटे पत्थर फर्लांग के होते थे। बस की खिड़की के बाहर का नजारा देखने के साथ एक और काम जुड़ गया, मील के पत्थरों पर अंकित दूरी को देख कर बनारस से दूरी का अनुमान लगाने का। इसी बीच एक नयी जानकारी मिली कि अब मील के पत्थरों की जगह किलो मीटर के पत्थर लग रहे हैं। तब तक सेंटीमीटर, मीटर, किलोमीटर समझने लगा था। अब नया पैमाना। नये पैमाने से गांव से बनारस की दूरी 33-34 किलोमीटर हो गयी, जो अब 37 किलोमीटर बतायी जाती है।
अब नयी समस्या यह आयी कि मील के पत्थरों के पहले क्या कोस के भी पत्थर थे। यह तो यक्ष प्रश्न जैसा ही बन गया। कोई नहीं बता पाया कि कोस के भी पत्थर होते थे। तो उसकी आकृति के बारे में बता पाने का तो सवाल ही नहीं था। यह मसला हल हुआ अभी कुछ महीने पहले हुई गुरुग्राम (गुड़गांव) वृन्दावन यात्रा के दौरान। गुरुग्राम से मथुरा जाते हुए मार्ग में मीनार जैसी प्राचीन आकृति दिखाई दी और कोस वाली मेरी समस्या जाग गयी। एक-दो मीनारों को पार करने के बाद मैंने गाड़ी रुकवा कर मथुरा के पास एक मीनार की फोटो ली और वापस आने पर खोजबीन शुरू की तो पता चला कि यह कोस मीनार है, जिसे शेरशाह सूरी के समय से लेकर मुगल काल तक सड़क के किनारे दूरी बताने के लिए बनवाये गये थे।
सबसे पहले शेरशाह सूरी ने सासाराम से दिल्ली तक के मार्ग पर यात्रियों की सुविधा के लिए सराय, तालाब, कुएं और कोस मीनारें बनवाईं,जो बाद में बंगाल तक बनीं। शेरशाह के बाद अकबर ने कोस मीनारों के निर्माण का हुक्म दिया। अबुल फैजी ने अकबरनामा में लिखा है कि सन् 1575 में यात्रियों की सुविधा के लिए अकबर ने कोस मीनारों के निर्माण का हुक्म दिया। इन मीनारों का निर्माण जहांगीर और शाहजहां के शासन काल में भी होता रहा। इस प्रकार प्रत्येक कोस पर कोस मीनारों की कतार चटगांव से लेकर पेशावर तक फैल गयी ।इन मीनारों का सैनिक और दरबार तक सूचनाओं के आदान-प्रदान में भी बड़ा महत्व था। हर कोस मीनार पर मुगलों के हरकारे तैनात थे जो कोई भी सूचना या राजाज्ञा तत्काल अगले कोस मीनार तक पहुंचाते थे। साथ ही यात्रियों को भी मदद और रात में कोस मीनारों पर प्रकाश की व्यवस्था भी करते थे। इन मीनारों के पास तालाब, कुएं छायेदार पेड़ या सराय जरूरी थे। मुगलों ने सबसे पहले आगरा-अजमेर मार्ग, आगरा-लाहौर मार्ग, आगरा-चटगांव मार्ग पर इन मीनारों का निर्माण कराया।इस प्रकार सड़क ए आजम या शेरशाह सूरी मार्ग या ग्रैण्ड ट्रंक रोड या राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक हजार कोस मीनारों का निर्माण हुआ था।
हसन खान जो बाद में शेरशाह सूरी के नाम से विख्यात हुआ और हुमायूं को हरा कर हिन्दुस्तान का बादशाह बना, उसने अपने को न केवल कुशल सेनानायक बल्की कुशल प्रशासक भी सिद्ध किया। उसने ऐसी राज व्यवस्था की नींव डाली जो बाद में अकबर जैसे बादशाह के लिए नजीर बनी। शेरशाह ने भारत में कुल पांच साल (सन्1540 से 1545 तक) ही शासन किया, परन्तु उसके नागरिक हितों में किये गये सुधार कार्य युवावस्था में ही पिता द्वारा सौंपे गये सहसराम (सासाराम) और खवासपुर के परगनाधिकारी काल से ही प्रारम्भ हो गये और उसने व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्मूलन और विद्रोही जागीरदारों के दमन के साथ रैयत की दशा सुधारने का अद्भुत कार्य किया। उसके सुधार कार्यों के मूल में किसान थे। 16वीं सदी में ही उसने कहा था कि किसान ही सम्पन्नता के स्त्रोत हैं। किसान से ही समृद्धि आयेगी। खेती गरीब किसानों पर ही निर्भर है। यदि उनकी हालत खराब रहेगी तो वह कुछ भी पैदा नहीं कर सकेंगे और यदि वे समृद्ध होंगे तो उपज अधिक कर सकेंगे।

भुइली की कोस मीनार
शेरशाह के पिता प्रारम्भ में साधारण सैनिक सरदार थे। अपने जन्मस्थान हिसार फिरोजा (मजखने अफगाना के अनुसार यह स्थान दिल्ली के निकट था) से कई जगहां पर रुकते-रुकाते सासाराम तक आने की यात्रा में दूरी को जानने की कठिनाइयों की ओर उसका ध्यान जरूर गया होगा और इस कठिनाई को दूर करने की योजना उसके दीमाग में आयी होगी। इसके चलते जहां भी उसे मौका मिला कोस मीनारें जरूर बनवायी, परन्तु पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही कोस मीनारें मिल रही हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में क्यों नहीं दिखाई देती हैं। यह प्रश्न पांच साल बीतने पर भी कुरेदता रहता है और राष्ट्रीय राजमार्ग को नजरें टटोलती रहती थीं कि एकाएक सूचना मिलती है कि मिर्जापुर जिले के भुइली गांव में एक मीनार है और उसे जांचने के लिए हम बनारस से भुइली के लिए निकल पड़ते हैं। साथ हैं हमउम्र मित्र लोलार्क द्विवेदी। जीवन के आठवें दशक के मध्य की ओर बढ़ रहे दोनों मित्रों को भुइली ले जाने के लिए साथ में हैं मेरे मझले पुत्र हिमांशु शर्मा। बनारस से पुराने बाजार अदलहाट होकर पूरब करीब 45 किलोमीटर दूर भुइली पहुंचते हैं। भुइली में एक पहाड़ी पर मीनार दिखाई दे जाती है। अरे! यह तो कोसमीनार है। पहाड़ी पर चढ़ हम उसके पास पहुंचते हैं। मथुरा के पास की कोसमीनार से यह भिन्न है। तीन मंजिला करीब 35 फिट ऊंची मीनार की हर मंजिल पर आमने-सामने करीब सात फिट ऊंचे दरवाजे हैं परन्तु उसमें पल्ले नहीं लगे हैं और न भीतर ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां ही हैं। देखने से स्पष्ट लगता है कि कभी सीढ़ियां थीं भी नहीं। पूरी मीनार गोल है तथा उसकी मोटाई करीब 23 फिट है। मीनार का ऊपरी हिस्सा सपाट है जबकि मथुरा के पास वाली मीनार की मोटाई तो करीब इतनी ही थी परन्तु निचला हिस्सा अठपहला और ऊपर का हिस्सा गोल है। सबसे ऊपर का हिस्सा गुम्बदाकार है। उसमें किसी भी मंजिल में द्वार नहीं थे। मीनार के भीतर के हिस्से का दुरुपयोग जितना कर सकते हैं आसपास के लोग कर रहे हैं। भीतर तो जैसे शौचालच ही हैं। मीनार के पास अब ईदगाह बना दिया गया है। हम पहाड़ी से नीचे उतरते हैं।
हमारी तलाश पास में किसी कुएं या तालाब की थी। नीचे एक कुआं गांव के लोग दिखाते हैं। कुएं का उपयोग अब नहीं के बराबर ही है। लोगों ने बताया कि जब आसपास कोई कुआं नहीं था तो हमारे पुरखे इसी कुएं का पानी पीते थे। किसी को मालूम नहीं कि यह कुआं कितना पुराना है, परन्तु कुएं के पत्थरों पर कुएं से पानी निकालते समय रस्सी के घिसने से बने कटान कुएं की प्राचीनता का एलान करते लगते हैं। भुइली प्राचीन स्थान है। गांव वालों के अनुसार यहां महाभारत काल के भूरिश्रवा का राज्य था, परन्तु भूरिश्रवा तो वाह्लीक के एक छोटे से राज्य का राजकुमार था तथा महाभारत में कौरवों की ओर से लड़ा था, जिसकी सात्यकी ने हत्या की थी । गांव वालों का भूरिश्रवा कोई और हो तो नहीं जानता। मिर्जापुर गजेटियर के अनुसार बख्तियार खिलजी भुइली का एक छोटा सा शासक था जो बिहार के नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाता हुआ बंगाल को भी जीत लिया और तिब्बत की ओर बढ़ा, परन्तु आगे नहीं बढ़ पाया और बुरी तरह घायल अवस्था में किसी तरह बंगाल लौटा, जहां बाद में उसकी मृत्यु हो गयी। कभी अपने सुगंधित धान के लिए मशहूर भुइली के पास ही एक पहाड़ी पर खुले आसमान के नीचे अशोक का शिलालेख था। बाद में पुरातत्व विभाग ने एक इमारत से आच्छादित कर दिया था, परन्तु वह शिलालेख अब वहां नहीं है। लोगों ने बताया कि कहीं अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया है। भुइली से हम चकिया रोड पर आगे बढ़ते हैं और शेरवां पहुंचते हैं। वहां सड़क के किनारे ही गुम्बदाकार एक खंडहर दिखाई देता है। खंडहर का गुम्बद तो ध्वस्त हो चुका है परन्तु अठपहली दीवारे बचीं हैं और भीतर सात कब्रें है। गांववालों ने इसे किसी शेरखां द्वारा बनवाया गया बताया।
पूर्ची उत्तर प्रदेश में एक कोस मीनार तो मिली परन्तु भुइली में क्यों? भुइली तो किसी राजमार्ग पर नहीं। इस शुद्ध गांव में कोस मीनार क्यों? आसपास के लोगों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। वह बस इतना जानते हैं कि इसे शेरशाह सूरी ने बनवाया। इस प्रश्न का उत्तर साल भर बाद यानी दो महीने पहले मिलता है। अपने रिश्तेदार चकिया (चन्दौली जिला) के उदय प्रकाश शुक्ल से कोसमीनार की चर्चा होती है। वे मेरी बात ध्यान से सुनते हैं और एकाएक कहते हैं कि इस तरह की मीनार मैंने बबुरी के पास बहुत पहले देखी है परन्तु यह नहीं जानता कि अभी भी है या नहीं। यह चर्चा उस क्षेत्र के अन्य लोगों से करता हूं। किस स्थान पर है इसकी करीब करीब जानकारी मिल जाती है, परन्तु यह जानकारी पक्की मिलती है कि अभी भी यह मीनार है। मीनार के सम्भावित स्थल कमती जाने की योजना बनती है। साथ हैं लोलार्क द्विवेदी। बबुरी के ही रहने वाले हैं। पुत्र अन्यत्र व्यस्त हैं। घर में बिना बताये हम दोनों टैम्पो से ही कमती जाने के लिए निकल पड़ते हैं। डर है कि टैम्पो के झटकों से स्पांडिलाइसिस का पुराना दर्द उभर न जाय, परन्तु उत्सुकता उस डर पर काबू पा लेती है। रास्ते में बबुरी में चन्द्रप्रभा नदी दिखाई देती है परन्तु यह क्या फरवरी में ही निर्जला? बरसात में हमने चन्द्रप्रभा का विकराल रूप देखा है। कैसे दर्जनों गावों को वह अपने आगोश में ले लेती है, परन्तु चन्द्रप्रभा का यह निर्जला रूप? लोलार्कजी बताते हैं कि चन्द्रप्रभा ही नहीं गरई और कर्मनासा का भी यही हाल होता है। लोलार्कजी दुखी हैं, जिले की नदियों की इस दुर्दशा पर । बचपन में कभी उन्होंने चन्द्रप्रभा पर कविता लिख कर उसका गौरव गान किया था।इस समय इस चन्द्रप्रभा को कोई देखने वाला नहीं।

सेमरा की कोस मीनार
बबुरी थाना से बायें कट कर हम लेवा सहाबगंज रोड पर आगे बढ़ते हैं। कुछ किलोमीटर बाद हमें सड़क से ही कोसमीनार दिखाई देने लगता है। कमती पहुंचने के पहले ही हम कोस मीनार के पास पहुंच जाते हैं। कोस मीनार से सट कर खड़ा एक पुराना पीपल का पेड़ मीनार की ऊंचाई को छूने की लगता है स्पर्धा कर रहा है। परन्तु वर्षों की स्पर्धा के बाद भी वह अभी छोटा ही है और पीपल की स्पर्धा को देख मीनार पर उगे दो पेड़ मीनार की ऊंचाई को और बढ़ा इस स्पर्धा का जैसे मजा ले रहे हैं। मीनार की ऊंचाई चार मंजिली है, यानी 55 से 60 फिट। इसकी बनावट भुइली बाली मीनार जैसी है। मोटाई भी वही 23 फिट के करीब, परन्तु ऊंचाई ज्यादा। चारों ओर हरे-भरे खेत और अकेला सबको निहारता कोसमीनार।मीनार के एक ओर पुआल का ढेर लगा है तो दूसरी ओर ट्रैक्टर के कुछ हिस्से पड़े हैं। एक ओर एक छोटी सी नयी बनी इमारत में एक कब्र है। वहीं पर खड़े मुन्नन बिंद ने बताया कि यह रोशन शहीद की कब्र है, परन्तु रोशन शहीद कौन हैं और कब शहीद हुए इसके बारे में वे कुछ नहीं जानते। बगल में खुले में ही दो छोटी कब्रें हैं जिन्हे वे हसन-हुसेन की बताते हैं, परन्तु उसके बारे में भी वह कुछ नहीं बता पाते। सभी कब्रें नयी बनायी गयी हैं और मुन्नन बिंद ने ही बनवाया है तथा वे ही इनकी देखरेख करते हैं। बगल के गांव धरदे के रामलोचन बिंद से वहां भेंट होती है। रामलोचन ने बताया कि यह मीनार सेमरा मौजा में है। सरकारी कागज में यह नाचिरागी है। यहां कोई नहीं रहता। बगल में नीबी गांव है। मीनार के पास एक तालाब है जो अब पट कर खेत हो रहा है। हालांकि उसके कुछ हिस्से में पानी है। तालाब के उस पार कई मिट्टी के ढूह है। वहां अब खलिहान है। उन ढूहां को देखने से लगता हे कि कभी कच्चे मकान थे। हो सकता है सरायं के अवशेष हों। आसपास इस तरह के किसी और मीनार के बारे में पूछे जाने पर रामलोचन बताते हैं कि यहां से पश्चिम भुइली में एक मीनार है तथा पूरब की ओर परमन्दापुर में भी एक मीनार है, परन्तु दोनों मीनारें इस मीनार से छोटी हैं।

परमन्दापुर की कोस मीनार
भुइली (मिर्जापुर) और सेमरा (चन्दौली) की मीनारों को देखने के बाद अब हमें परमन्दापुर की मीनार अपनी ओर खींचने लगती है, परन्तु अब दिन खत्म होने वाला है। परमन्दापुर खोज कर वहां पहुंचने पर शाम हो सकती है और हम कुछ भी न देख पायें इसलिए हम वापस बनारस लौट आते हैं । चार दिन बाद अचानक उसी तरह बिना घर पर बताये टेम्पो से ही हम दोनों परमन्दापुर के लिए निकल पड़ते हैं। बनारस से चन्दौली और वहां से तहसील के बगल से होते हुए चन्दौली-धरौली रोड पर पूछते हुए हम करीब 30 किलोमीटर आगे बढ़कर परमन्दापुर पहुंचते हैं। परमन्दापुर में भुइली की मीनार जितनी ऊंची और उसी प्रकार की मीनार मिलती है। मीनार से सटा पीपल का पेड़ और उससे ही सटा टीन से ढका एक पक्का कमरा। सामने ट्रैक्टर। किसी बाबूसाहेब का है। परमन्दापुर यानि परमानन्दपुर। मीनार से कुछ दूर एक बड़ा सा तालाब और उसके चारों ओर भीटों पर बिंद लोगों के मकान। भीटों को देखने से लगता है कि संभवतः यह वह कच्ची सराय थी जिसे शेरशाह सूरी ने बनवाया होगा। वहीं पर मिले सरजू कुमार बिंद ने बताया कि गांव बाद में बसा है। आसपास किसी और मीनार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि इस मीनार के अलावा उन्होंने यहां से दक्षिण-पश्चिम के कोने लेवा रोड पर स्थित सेमरा और भुइली की मीनारें तो देखी हैं परन्तु पूरब की ओर बिहार में बहुअरा और मोहनियां के पास रतवार गांव में भी दो मीनारें हैं, परन्तु उन्होंने देखी नहीं है।
सासाराम से भुइली तक के कोस मीनारों से उस समय का एक मार्ग स्पष्ट होता है। यह मार्ग सासाराम से चुनार तक का है। शेरशाह का चुनार के किला पर भी अधिकार था, परन्तु उस समय के महत्वपूर्ण नगर जौनपुर तक के मार्ग में कोई कोस मीनार क्यों नहीं। जौनपुर पर भी शेरशाह का अधिकार था। इस मार्ग पर भी चहनिया(चन्दौली) में एक कोस मीनार करीब एक दशक पूर्व तक था, परन्तु अब वह नहीं है। इन मीनारों से यह स्पष्ट होता है कि शेरशाह ने बादशाह बनने के काफी पहले ही इन कोस मीनारों का निर्माण कराया होगा । इतना ही नहीं, जिन इलाकों पर अधिकार हुआ उन पर पुल भी बनवाये। आजमगढ़, जौनपुर, करनाल (हरियाणा) में उसके द्वारा बनवाये गये पुल अब भी चालू हालत में हैं।
पुराने समय में दूरी मापने का पैमाना
कोस शब्द क्रोश से बना है । क्रोश दूरी नापने की पुरानी इकाई है। गाय के रंभाने की आवाज जितने दूर तक जाती थी, उस दूरी को एक क्रोश मान लिया गया। एक कोस में दो धाप होता है। आज भी गावों में थोड़ी दूरी बताने के लिए पुराने लोग धाप शब्द का इस्तेमाल करते हैं। चार कोस का एक योजन होता है। दूरी नापने की प्राचीन पद्धति के अनुसार 2रज्जु=1 परिदेश=30मी.से40मी., 100 परिदेश =1 कोस(या गोरत)=3कि मी से 4कि मी, 4कोस = एक योजन =13कि मी से 16कि मी। एक हजार योजन=एक महायोजन= 13000 से 16000 कि मी। चन्दौली जिले के सेमरा और परमन्दापुर के दोनों कोस मीनारों को वहां के लोग मकतूल कहते हैं। मकतूल या मक्तूल का अर्थ तो ‘जो कत्ल कर दिया गया हो’ होता है। यह शब्द अदालतों में अब भी प्रचलित है। कोस मीनार मकतूल कैसे हैं। मकतूल की जगह मस्तूल हो सकता है, जिसे गांव के लोग मकतूल कहते हैं। मस्तूल बड़ी नावों या जहाजों में पाल बांधने के लम्बे खम्भे को कहा जाता है। मीनारों की लम्बाई को देखते हुए मस्तूल कहा जा सकता है।
धीरे धीरे खत्म हो गया कोस मीनार का अस्तित्व
ब्रिटिश काल में मील के पत्थरों के लगने और यातायात की व्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों के कारण इन मीनारों का महत्व कम होता गया और कालांतर में लोग इन्हें भूलने ही नहीं नष्ट भी करने लगे। इसमें सड़कों के चौड़ीकरण के कार्यों ने भी अपनी भूमिका निभाई। इस समय बंगाल में एक भी कोस मीनार के बची होने की जानकारी नहीं है। आसनसोल में बी एन आर (बंगाल नागपुर रेलवे) चौराहा के पास एक कोस मीनार करीब 15 वर्ष पूर्व तक थी जो अब नहीं है। वहां एक शाही कुआं बचा था जिसे करीब पांच वर्ष पूर्व देखा था। लोगो ने बताया था कि पहले आसपास के लोगों के लिए जल आपूर्ति का यही एक मात्र सहारा था, परन्तु अब वह कुआं बचा है या नहीं, नहीं जानता। प्राप्त जानकारी के अनुसार लाहौर(पाकिस्तान) में पुराने जी टी रोड के पास एक कोस मीनार सुरक्षित है। दिल्ली चिड़िया घर में भी एक मीनार संरक्षित है। पुरातत्व विभाग ने इन मीनारों को संरक्षित घोषित कर दिया है।पुरातत्व विभाग के अनुसार इस समय हरियाणा में 49 कोस मीनारें हैं जिनमें फरीदाबाद में 17, सोनीपत में 7, पानीपत में5, करनाल में 10 एवं कुरुक्षे़त्र में 9 मीनारें सुरक्षित हैं। भुइली(मिर्जापुर) और चन्दौली जिले के सेमरा और परमन्दापुर के कोस मीनारों को देखने से तो साफ लगता है कि उत्तर प्रदेश पुरातत्व विभाग ने इन मीनारों को भूलोभियों के लिए खुला छोड़ दिया है।
(लोकतंत्न सेनानी रहे लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)