डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों का विध्वंस: संविधान और राष्ट्र का घोर अपमान–एक विश्लेषण

डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों का विध्वंस: संविधान और राष्ट्र का घोर अपमान–एक विश्लेषण

डॉ. रामजीलाल

 

यद्यपि एक ओर डॉ. अंबेडकर की जयंती (14अप्रैल) एवं महापरिनिर्वाण दिवस (6 दिसम्बर) पर अनेक समारोह, सेमिनार, परिसंवाद आदि आयोजित किए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अंबेडकरवादी विचारधारा के विरोधियों द्वारा उनकी प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने, तोड़ने व नुकसान पहुचाने, पुतले व चित्र जलानें की खबरें भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों-यूपी, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना इत्यादि में समाचार पत्रों, व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुर्खियां होती हैं. भारतीय समाज में दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य उभर रहा है. वास्तव में यह दो धारी तलवार की तरह है. एक ओर अंबेडकरवाद व अंबेडकर के योगदान के महत्व को कम करना और दूसरी ओर अनुसूचित जातियों का अपमान व दमन करना है. ‘जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपे हुए रंगभेद’ के कारण अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में निरंतर वृद्धि दलितों के लिये ही नहीं अपितु राष्ट्र और समाज के लिए भी हानिकारक है.

भारतीय इतिहास का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि दलित समाज में अनेक ऐसे महापुरुष पैदा हुए हैं जिन्होंने वर्ण व्यवस्था एवं मनुवादी व्यवस्था का निरन्तर विरोद्ध ही नहीं किया अपितु समाज सुधारों के लिए अपनी लेखनी का प्रयोग करके जागरूकता पैदा की और सुधारवादी के प्ररेणा के सूत्रधार रहे हैं. चेन्नैया (Chenniah–मोची) 11वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कन्नड़, कवि) व 12वीं शताब्दी में, दलित संत कुलवे ने पदानुक्रम पर सुस्थापित मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दी, जो ब्राह्मणों और उच्च वर्ग के लोगों को अधिक विशेषाधिकार देती है. मध्य युग में संत रविदास, उन्नीसवीं शताब्दी में, ज्योतिबा राव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने भारतीय समाज में व्याप्त जाति संरचना पर आधारित असमानता के मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया. 19वीं शताब्दी के अन्य विद्वान जिन्होंने मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उनमें सतनाम पंथ के संस्थापक गुरु घासीदास (Guru Ghasidas, 1756-1850) तथा 20वीं शताब्दी में महात्मा अय्यंकाली (Mahatma Ayyankali- 1863-1941- त्रावणकोर कोचीन-अब केरल में) और रामास्वामी पेरियार (17 सितंबर 1879 – 24 दिसंबर 1973), शामिल हैं. इस ऐतिहासिक श्रृंखला में डॉ भीमराव अंबेडकर (14अप्रैल 1891- 6 दिसम्बर 1956) का नाम ध्रुव तारे की तरह चमकता है.

दलित संतों, गुरुओं व समाज सुधारकों की हत्या: दलित विरोधी रुग्ण मानसिकता

दलित नेताओं और संतों की मूर्तियां ध्वस्त करना दलित विरोधी रुग्ण मानसिकता है. परंतु दलितों के विरुद्ध अत्याचार, हिंसा, दमन इत्यादि सदियों से चला रहा है. यही कारण है कि जब-जब दलित समाज सुधारकों ने दलित विरोधी परंपराओं को चुनौती दी उनके साथ भी दुर्व्यवहार किया गया और दलित संतों, गुरुओं व समाज सुधारकों – संत चक्रधर, संत नामदेव, संत तुकाराम, गुरु रविदास, संत चोखामेला; की हत्या की गई तथा महात्मा ज्योतिबा फुले और शाहूजी महाराज की भी हत्या करने का प्रयास किया गया.

डॉ भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों की स्थापना आरंभ : एक विहंगम दृष्टि

डॉ भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में बौद्ध धर्म को अंगीकृत कर लिया था. यह सर्व विदित है कि बौद्ध धर्म जातिवाद, कुलीनतंत्र और मूर्ति पूजा के विरुद्ध है. इसके बावजूद भी आज दुनिया के असंख्य देशों में महात्मा बुद्ध की मूर्तियां स्थापित की गई है. महात्मा बुद्ध का अनुयायी होने के कारण डॉ. भीमराव मूर्ति पूजा एवं नायक पूजा के खिलाफ थे. इसके बावजूद भी उसके जीवन काल में ही उनके अनुयायियों विशेषतः दलित वर्गों ने दूर दराज गांवों में हाशिए पर रहने वाले लोगों ने भी अंबेडकर की मूर्तियों की स्थापना आरंभ कर दी थी. परंतु आधिकारिकतौर पर अंबेडकर की प्रथम मूर्ति सन् 1962 में मुंबई में इंस्टीट्यूट आफ साइंस के क्रॉसिंग पर स्थापित की गई थी. इसके पश्चात संसद (अब संविधान सदन) के प्रांगण में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णनन के द्वारा डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्ति का अनावरण सन् 1966 किया गया था. इस मूर्ति में डॉ. अंबेडकर एक हाथ में संविधान है और दूसरे हाथ से एक उंगली का इशारा है. यह मूर्ति आज विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय है. करनाल में डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्ति की स्थापना का चयन तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर के. एस. भौरिया तथा लेखक (डॉ. रामजीलाल) के द्वारा किया गया था और इसका अनावरण हरियाणा की राजनीति के दिग्गज तत्कालीन नेता- मुख्य मंत्री ताऊ देवीलाल के द्वारा 6 दिसंबर 1988 को किया गया था . जहां अंबेडकर की मूर्ति का प्रतिष्ठान किया गया है उसे अंबेडकर चौक के नाम से जाना जाता है.आज भारत सहित विश्व के अनेक देशों– इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, नेपाल इत्यादि में कई हजार मूर्तियां स्थापित की गई है. विदेशों में इन मूर्तियों की स्थापना का श्रेय प्रवासी भारतीयों को जाता है. विश्व में अंबेडकर की सबसे ऊंची 40 मूर्तियां हैं. इन 40 मूर्तियों में 206 फीट सबसे ऊंची मूर्ति विजयवाड़ा (आंध्र प्रदेश) में है जिसे ‘सामाजिक न्याय का प्रतीक’ माना जाता है तथा इसके पश्चात दूसरी 175 फीट ऊंची मूर्ति हैदराबाद (तेलंगाना) में है.

डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों को ध्वस्त करने के मूल कारण क्या हैं?: एक यक्ष प्रश्न

यह एक यक्ष प्रश्न है इस संबंध में अधोलिखित चर्चा महत्वपूर्ण है.:

प्रथम, भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों को ध्वस्त करने का मूल कारण अम्बेडकरवाद – उनकी विचारधारा है. अम्बेडकरवाद विचारों का एक समूह है, जिसमें समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, सामाजिक/ आर्थिक/ राजनीतिक न्याय, मानव गरिमा, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समाजवाद, और समाज के हाशिए पर पड़े उपेक्षित वर्गों –दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, लघु किसानों औरकृषि विहीन कृषि श्रमिकों, संगठित एवं असंगठित श्रमिकों का सशक्तिकरण, उत्थान तथा एक ऐसे समतावादी समाज की स्थापना शामिल है, जहां बुनियादी जरूरतें – भोजन, आश्रय, वस्त्र, सार्वभौमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, काम करने का अधिकार, और समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार – पूरी हों. अंबेडकरवादी चिंतन वर्तमान शताब्दी में प्रचलित उदारीकरण, निजीकरण, एवं वैश्वीकरण सहित कॉरपोरेट्रीकरण के विरुद्ध है. अम्बेडकरवाद एक ऐसे समाज की स्थापना कल्पना करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य जीवन के हर क्षेत्र में समान हो, न कि जन्म, जाति, क्षेत्र, धर्म, भाषा, लिंग आदि की संकीर्णताओं और सांप्रदायिक अवधारणाओं के आधार पर. भारत में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के आधार पर बहुत अधिक विविधताएं हैं. इसलिए, अम्बेडकरवाद सामाजिक सद्भाव और एकता बनाए रखने के लिए ‘विविधता में एकता के मूल सिद्धांत’ की वकालत करता है.अम्बेडकरवाद असमानता, सामाजिक अन्याय, अमानवीय व्यवहार, अस्पृश्यता, मनुवाद (मनुस्मृति), ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद, नौकरशाही के जन-विरोधी रवैये, बहुसंख्यकवाद की तानाशाही, हिंसक आंदोलनों, धर्म-आधारित या धर्म-प्रधान राज्यों, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू या मुस्लिम राष्ट्र के खिलाफ है.

इसी विचारधारा के कारण डॉ. अंबेडकर की मूर्तियों को ध्वस्त किया जाता है क्योंकि यह दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थकों, कार्पोरेटस, पूजीपतियों और धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए एक चुनौती है. अंबेडकरवादी चिंतन एक ऐसे वैकल्पिक पर जोर देता है जिसमें समता वादी समाज की स्थापना हो औरजहां आम जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, व रोजगार की सुविधाएं प्राप्त हों तथा सभी को सम्मानित जीवन व्यतीत करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो. परंतु आधिपत्य वर्ग –वर्तमान व्यवस्थाओं को नियंत्रित करने वाले लोग जो संपूर्ण सुविधाओं पर अधिपत्य स्थापित करके लाभ उठा रहे हैं वह किसी भी रूप में इस वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना के विरूद्ध हैं.

द्वितीय,राजनीतिक व्यवस्था व्यवस्था के निवेशों और निर्गत में दलित वर्ग की सहभागिता में वृद्धि एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है. अंबेडकरवादी चिंतन के कारण दलित समाज मेंअनेकपरिवर्तन हुए हैं. एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य के कारण दलित मतदाताओं का महत्व बढ़ा है तथा चुनाव के समय उच्च जातियों के लोगों को वोट मांगने के लिए उनके दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं. संविधान में आरक्षण के प्रावधान के परिणाम स्वरूप पंचायत से लेकर संसद तक दलित वर्ग के लोगों की राजनीतिक सहभागिता मेंवृद्धि हुई है. भारत के राष्ट्रपति पद के से लेकर शहरी स्थानीय निकायों व पंचायती राज संस्थाओं तक दलित जातियों के लोगों ने पद ग्रहण किए हैं. राष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों, प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों, मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल के सदस्यो, प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों, न्यायपालिका में जज और मुख्य न्यायाधीश के पद पर दलित जातियों के व्यक्तियों को जब तथाकथित उच्च जातियों के लोग देखते हैं तो उनके दिमाग में ईर्ष्या व नफरत की भावना पैदा होती है.

तृतीय, आरक्षण के कारण दलित वर्ग के बच्चे पढ़ लिख कर सरकारी नौकरियों में प्रवेश कर गए और उनकी जीवन शैली में अब अभूतपूर्व परिवर्तन आया है. इसके परिणाम स्वरूप दलित वर्ग की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन हुआऔर उनकी क्रय शक्ति में वृद्धि हुई. जिसके कारण यह वर्ग तथाकथित उच्च वर्ग की बराबरी करने लगा .उनके पास तथाकथित वर्गों की भांति मोटरसाइकिलें, कारें, बढ़िया मकान, बेहतरीन पोशाक इत्यादि के कारण समाज में सम्मान बढ़ने लगा. परिणाम स्वरुप उच्च वर्ग का अधिपत्य व वर्चस्व समाप्त होने की दिशा की ओर अग्रसर है. उच्चवर्ग आरक्षण के लिए डॉ. अंबेडकर को दोषी मानता है.यही कारण है कि अंबेडकर की मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किया जाता है व उनके पुतले भी जलाए जाते हैं.

चतुर्थ,डॉ अंबेडकर की मूर्तियां दलित वर्ग के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, प्रेरणा एवं सम्मान का प्रतीक है. परंतु जब मूर्तियों को ध्वस्त किया जाता है तो समाज के हाशिए पर खड़े लोगों के सम्मान को ठेस पहुंचती है क्योंकि अंबेडकर की जयंती एवं महापरिनिर्वाण दिवस पर समस्त विश्व में दलित और शोषित वर्ग के लोग अंबेडकर की मूर्तियों पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर के उनका सम्मान करते हैं. इसके परिणाम स्वरूप उनमें एकता, संगठन और संघर्ष की भावना पैदा होती है. जयंती एवं महापरिनिर्वाण दिवस विभिन्न आयोजनों के जरिए अंबेडकर के द्वारा किए गए कार्यों का व्यापक वर्णन किया जाता है ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिले. यद्यपि अंबेडकर भगवान तो नहीं हैं परंतु दलित वर्ग के लिए भगवान से कम भी नहीं हैं क्योंकि उनकी धारणा है कि अंबेडकर के कारण संविधान में उनके लिए प्रावधान किए गए एवं उनको अन्य जातियों के बराबर अधिकार प्राप्त हुए हैं. संविधान निर्माता के रूप में अंबेडकर ने अन्य वर्गों की भांति दलित वर्ग को सम्मान पूर्वक जीवन जीने की रक्षा का अधिकार मिला है. इसके अतिरिक्त अंबेडकर के प्रयासों से श्रमिक वर्ग के लिए अनेक ऐसे कानून बनाए गए हैं जिनसे दलित वर्ग लाभान्वित हुए हैं. अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील है. आज अंबेडकरवादी चिंतन पर आधारित दलित वर्गों के असंख्य संगठन और राजनीतिक दल है केवल यही नहीं अभी तो अंबेडकर के विचारधारा का प्रचार करने के लिए उनके अपने चैनल और कुछ समाचार पत्र भी है. दलित वर्ग के अतिरिक्त समाजवादी चिंतकों और नेताओं तथा मार्क्सवादियों के द्वारा भी अंबेडकर का सम्मान किया जाता है तथा जिस प्रकार अंबेडकर जाति रहित समाज के निर्माण की बात करता है इस प्रकार मार्क्सवादी वर्ग रहित समाज के निर्माण बात करते हैं. अंबेडकर का चिंतन जब राष्ट्रीय साधनों पर राजकीय नियंत्रण की वकालत करता है जिसके कारण अंबेडकर समाजवादियों की अग्रिम श्रेणी में स्थान रखते हैं. इन सभी के परिणाम स्वरूप दलित वर्गों में चेतना व जागरूकता में निरंतर वृद्धि हो रही है और जैसे-जैसे वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे वैसे-वैसे तथाकथित उच्च वर्गों के द्वारा उनके मार्ग में असंख्य समस्याएं खड़ी की जाएगी और मूर्तियों का ध्वस्तीकरण भी बढ़ाने की संभावना है. परंतु सरकार को चाहिए कि वह मूर्तियों के ध्वस्तीकरण को रोके और ऐसा करने वाले लोगों को कड़ी से कड़ी सजा देने संबंधी कानूनी प्रावधानों में परिवर्तन किया जाए. क्योंकि डॉ. भीमराव अंबेडकर की मूर्तियों का विध्वंस संविधान और राष्ट्र का घोर अपमान है.