दीपक वोहरा की कविता- बच्चे

दीपक वोहरा

बच्चे

नंग धड़ंग बच्चे

ईंटें थापते बच्चे

नंगे पैर चलते बच्चे

मिट्टी में खेलते बच्चे

या मिट्टी में मिटते बच्चे

धूप में काम करते बच्चे

ठेकेदार की डाँट खाते बच्चे

पुलिस की मार खाते बच्चे

फुटपाथ पर भीख मांगते बच्चे

चाय की दुकानों पर काम करते बच्चे

ट्रैफिक जाम में रंगीन गुब्बारे बेचते बच्चे

ढाबों पर बड़े-बड़े बड़े पतीले, कड़ाह मांजते बच्चे

हमारे सामने आते हैं न जाने कितने ही ऐसे दृश्य

क्या कभी ठहर कर सोचा है?

क्या उनके भी होते हैं कोई हसीन सपने?

क्यों लूट ली हैं ज़माने ने उनकी खुशियां?

आने वाली नस्लें पूछेंगी हमसे

क्यों थे हम ख़ामोश

जब लुट रही दुनिया उनकी

क्यों सोए हुए थे कवि?

मुझे उम्मीद है कि

एक दिन उनका भी सूरज चमकेगा

व्यवस्था पर नए नए सवाल उठेंगे

अब तक बच्चों की दुनियां थी गायब

उसका भी होगा हिसाब बेहिसाब

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