ओमप्रकाश तिवारी की कविता- जंगल के फूल का कथन

कविता

जंगल के फूल का कथन

ओमप्रकाश तिवारी

 

तमाम कांटों और झाड़ियों के बीच

मैं खिला था तुम्हारे लिए

एक दिन तुम देखोगे और सराहोगे मेरी ख़ूबसूरती को

थोड़ी सराहना करोगे मेरे संघर्ष को

पर मैं ग़लत था

तुम तो आए ही नहीं

तब भी जब मेरी ज़रूरत तुमको थी

मैं तो खिला ही था मुरझाने के लिए

दर्द को सहते हुए जीने के लिए

और एक दिन सूख जाना था

सूख भी गया जोकि होना ही था

तुम देख लेते तो सुकून मिलता

किसी की आँख को अच्छा लगा

किसी के दिमाग़ को सुंदर सोच का बना पाया

जो इस नज़रिए से संसार को देखता

अफ़सोस कि मेरा होना बेकार गया

तुमको आना चाहिए था

न केवल मुझ तक बल्कि

उन तमाम जंगल के फूलों तक

जो खिले ही थे तुम्हारे लिए

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