प्रतिबिम्ब मीडिया में 7 अगस्त 2025 को वरिष्ठ कवि चिंतक जयपाल की ‘एक बच्ची जिसे खूंखार डाकू कहा गया’ शीर्षक से फूलन देवी पर केंद्रित कविता प्रकाशित की गई। कविता तीन अलग-अलग शीर्षकों से है और वह फूलन देवी के जीवन और व्यक्तित्व की व्य़ाख्या करती है। उस कविता पर सुधी पाठक और विद्वान साथी एस.पी.सिंह ने प्रबुद्ध दृष्टिकोण से विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया दी है। उसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है, साथ ही नीचे कविता भी दे रहे हैं ताकि जिन लोगों ने उसे नहीं पढ़ा है, पढ़ सकें। संपादक
जयपाल की कविता ‘एक बच्ची जिसे खूंखार डाकू कहा गया’ का एक दार्शनिक, भाषिक और वैचारिक विवेचन
एस. पी. सिंह
यह रचना केवल एक कविता नहीं, बल्कि भारतीय समाज की सामूहिक स्मृति में दबी एक ऐतिहासिक अनुगूँज है—फूलन देवी के बहाने वह समूचा विद्रोह जो सदियों से कुचले गए, दहकाए गए और फिर भी न मिटाए जा सके। जयपाल की यह कविता शब्दों में नहीं, बल्कि चेतना में घटित होती है। यह एक क्रांति की कविता है—अभिधा नहीं, व्यंजना है; वर्णन नहीं, उद्घोषणा है।
भाषा की बनावट और प्रतीकों की गहराई
जयपाल की काव्य-भाषा किसी एक लिपि या संस्कृति से बंधी नहीं। यह संविधान की घाटियों से लेकर मनुस्मृति के आदमख़ोर फरमानों तक की यात्रा करती है, जहां प्रतीक मात्र सौंदर्य-बोध के लिए नहीं, एक राजनीतिक आरोप हैं। शब्दों का चयन लोहे की भांति कठोर है—धर्मग्रंथों के तालीबान लड़ाके, सामंतवाद के हथियारबंद दस्ते—ये उपमाएं सामान्य नहीं, अपूर्व और कटु हैं। इनका उद्देश्य सौंदर्य नहीं, झटका देना है; ये काव्य नहीं, झकझोरने वाली घोषणाएं हैं।
फूलन: ‘डकैत’ नहीं, विमर्श का केंद्र
“कहते हैं, यह लड़की एक डकैत थी” — यह वाक्य नहीं, इतिहास पर प्रश्नचिह्न है। जयपाल इस एक पंक्ति में समूचे न्याय तंत्र, जातिवादी मीडिया विमर्श और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को नंगा कर देते हैं। यह एक ‘पैरोडि’ भी है—जो मुख्यधारा के नैरेटिव को उलटकर उसे खुद के ही शब्दों से खंडित करता है।
विवेचना की दृष्टि से
फूलन के अस्तित्व को कवि ने शंबूक, एकलव्य, भंवरीबाई, रूदाली, विरसा मुंडा, भगत सिंह के प्रतिमानों से जोड़ा है। यह नामांकन कोई भावुकता नहीं, एक सुनियोजित वैचारिक रणनीति है। यह कविता फूलन को केवल ‘दलित नायिका’ के सीमित दायरे में नहीं बांधती, बल्कि उसे समग्र प्रतिरोध का प्रतीक बनाती है।
️ दार्शनिक पटल पर विमर्श
यह कविता भारतीय दर्शन के उस हाशिए पर खड़े व्यक्ति की वापसी है, जिसे ‘प्रजा’ कहा गया लेकिन ‘राज्य’ ने कभी अपनाया नहीं। “फूल की तरह फैलना, गूंजना भंवरे की तरह, गाना पक्षियों की तरह…” — यह मात्र कवि की कल्पना नहीं, मानव स्वाभाविकता का दार्शनिक प्रतिरोध है। जब एक स्त्री केवल मनुष्य होना चाहती है, तब सारा सत्ता-संरचना तिलमिला उठती है।
शब्दों के सांप और शेर
“दहाड़ना शेर की तरह, फुत्कारना साँप की तरह” — यहां जयपाल का प्रतीक-चयन अत्यंत सटीक और दार्शनिक है। शेर, जो जंगल का राजा है, और साँप, जो उसकी आँखों में आँख डाल सकता है—इन दोनों का संगम फूलन में दृष्टिगोचर होता है। सत्ता के जंगल में फूलन न शिकार बनती है, न शिकारी, वह एक स्वतंत्र सत्ता की घोषणापत्र बन जाती है।
व्यंग्य और कटाक्ष का रस
“राजा को स्वीकार नहीं था, महल के सामने से आंख उठाकर देखना”—यह व्यंग्य और कटाक्ष की पराकाष्ठा है। यहाँ ‘राजा’ कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि समूचा वर्गवादी, जातिवादी, पुरुष-प्रधान राज्य तंत्र है, जो किसी स्त्री के आत्म-सम्मान को अपनी सत्ता के लिए खतरा समझता है। यह व्यंग्य फूलन के बहाने भारतीय लोकतंत्र के खोखलेपन पर खुला तमाचा है।
निष्कर्ष: यह कविता एक घोषणापत्र है
जयपाल की यह कविता कोई फूलन का शोकगीत नहीं, नायकत्व की पुनर्परिभाषा है। यह ‘क्रांतिकारी आत्मकथा’ की शैली में शोषित की हुंकार है, सत्ता से प्रतिशोध है, संविधान का असल पाठ है। भाषा की शुद्धता या अशुद्धता से परे यह कविता ज़ुबानों से बाहर एक ज़मीर की चीख है—जिसे पढ़ा नहीं, सुना जाना चाहिए।
– यह रचना उस मनुष्य की आत्मा है, जिसे व्यवस्था ने डकैत कहा, और समय ने उसे देवी बना दिया।
– यह कविता उस प्रश्न की तरह है, जो उत्तर से अधिक डरावना है।
– फूलन को पढ़ता है, वो दरअसल सत्ता की विवेचना करता है।
एस पी सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार अजीत समाचार हैं
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जयपाल की कविता
एक बच्ची जिसे खुंखार डाकू कहा गया
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एक थी फूलन
जयपाल
लोकतंत्र का बियाबान-जंगल
संविधान की बीहड़-घाटियां
सामंतवाद के हथियार-बंद दस्ते
पितृसत्ता के बंदूकधारी-सैनिक
मनुस्मृति के आदमख़ोर-फरमान
उच्च-जातियों के बिगड़ैल-घोड़े
धर्म ग्रंथों के तालीबान लड़ाके
इतने मोर्चे
इतनी फौजें
इतने हथियार !
निशाने पर
एक अकेली लड़की
कहते हैं
यह लड़की एक डकैत थी !
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हवा के खिलाफ
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फूलन जैसे
पाश की बेचैन कविता
सुभद्रा कुमारी चौहान की ललकार
‘खूब लड़ी मर्दानी’
झलकारी बाई की प्रतिज्ञा
राम राज्य का शंबूक
एकलव्य का अंगूठा
भंवरी-बाई की दास्तान
रूदाली का एकांत
विरसा मुंडा का विद्रोह
भगत सिंह की हुंकार
‘देखना है ज़ोर कितना बाजुए-क़ातिल में है’
जी हां, एक थी फूलन
हवा के खिलाफ !
फूलन का होना
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एक फूल थी फूलन
जंगल के राजा को स्वीकार नहीं था
किसी का फूल हो जाना
फूल की तरह खिलना
हंसना-मुस्कुराना
महकना- चहकना
फूल की तरह
फैलना सुगंध की तरह
बजना संगीत की तरह
गूंजना भंवरे की तरह
गाना पक्षियों की तरह
राजा के जंगल में
विचरना राजकुमार की तरह
दहाड़ना शेर की तरह
फुत्कारना सांप की तरह
उड़ना पक्षी की तरह
राजा को स्वीकार नहीं था
सर उठाकर गुजरना
महल के सामने से
आंख उठाकर देखना
उसके किले की तरफ
दरिया में रहकर मगरमच्छ से बैर
जीना-मरना मनुष्य की तरह।