मनजीत ख़ान भावङिया की हरियाणवी कविता

खोटा ज़माना

घणा माड़ा टेम आग्या

परिवार कुमबे की इज्जत ढेर

एक बुझे रोटी की

दुसरा कह खा गा के

कौन सी रोटी

मोटी मोटी रोटी

पतली पतली रोटी

फूली होड़ रोटी

बिना फूली रोटी

तन्नै ना बेरा रोटी का

रोटी होवे सै चार ढ़ाल की

पहली रोटी हो सै मां की

जिसमें ममता, प्यार अर वात्सल्य हो सै

इसके गेल्यां गेल्यां स्वाद भी

पेट भर ज्या पर मन नी भरदा

दूसरी रोटी हो सै घरवाली की

जिसमें समर्पण अर प्यार हो सै

या स्वाद तो होव सै

मन अर पेट दोनों भर ज्या सै

तिसरी रोटी हो सै बुढ़ापे की

जो पुत्रवधू बणाकै देवे

जिसमें आदर सत्कार सम्मान होवे सै

स्वाद का पता नी मन भरज्या है

चौथी रोटी का के जिक्र करू मैं

या होव सै काम आळी बाई की

जिसमें ना पेट भर था

ना मन भरदा

ना स्वाद

ना ज़ायका

बस एक सै

चारो रोटी औरत के

हाथ म्ह होकर जावै सै

क्योंकि औरत के अन्दर

होती है

ममता, प्यार, वात्सल्य,

समर्पण,आदर, सत्कार

ज़माना खोटा न्यू सै

जो पहले था वो ईब नी।