सामयिक परिदृश्य के सांप्रदायिकता विरोधी अंक का संपादकीय- अपनी बात

विमल वर्मा ने 90 के दशक में सामयिक परिदृश्य का सामंप्रदायिकता विरोधी अंक निकाला था। यह लेख उस अंक का संपादकीय है। इसमें हमने कोई संपादन  नहीं किया है। यह उनका मूल लेख है जो पत्रिका में   प्रकाशित हुआ था। इसे पढ़कर उस समय के माहौल और देश- दुनिया के हालात का पता लगेगा। लेख लंबा है, पढ़ने में थोड़ा धैर्य की जरूरत पड़ेगी। लेकिन हमें विश्वास है कि लेख आपको अच्छा लगेगा। भविष्य में विरासत के तहत उन सामग्री को प्रकाशित करेंगे जो हमें रोशनी देती हैं। 

विरासत

सामयिक परिदृश्य के सांप्रदायिकता विरोधी

अंक का संपादकीय- अपनी बात

विमल वर्मा

काफी अरसे बाद सामयिक परिदृश्य का प्रस्तुत अंक आपके हाथों में पहुंचाने में हमें सफलता मिली है। इस क्रम में हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और आपको लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ी। फिर भी ‘देर आये, दुरुस्त आये’ की बात सार्थक लगेगी। यह बात अंक को पाकर और पढ़कर आप शिद्दत से महसूस करेंगे, ऐसी आशा है।

सामयिक परिदृश्य के प्रकाशन के क्रम में हम लगातार अनुभव कर रहे हैं कि आज गंभीर साहित्य का प्रकाशन करना अत्यंत दुष्कर और दुश्वार है- खासतौर से सीमित साधन स्तरीयता के बीच संतुलन और सामंजस्य बनाए रखना और भी कठिन है। कारण- बदलते समय के साथ अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कारणों से हम गंभीर और महत्वपूर्ण चीजों, स्थितियों, सरोकारों से विरक्त या अनमनस्क होते जा रहे हैं। सतही, उत्तेजक और गुदगुदाहट पैदा करने वाले साधनों और वस्तुओं के प्रति आकर्षित होते जा रहे हैं। खतरा यहां तक बढ़ गया है कि गंभीर बातों, गंभीर सवालों से जुड़े साहित्य और संस्कृति के अस्तित्व के सामने संकट उत्पन्न हो गया है। लेकिन इस निऱाशापूर्ण माहौल में भी ऐसे लोग हैं और रहेंगे भी जो लाख जोखिम और कठिनाइयों के बावजूद, इस दायित्वपूर्ण कार्य और समकालीन भयावह चुनौतियों का सामना करेंगे ही। मनुष्य की जिजीविषा अत्यंत अदम्य होती है। वह अनेक संकटों और अड़चनों के बावजूद अपनी कठिन और कठोर यात्रा स्थगित नहीं करती। उसकी यह अदम्य और कठिन यात्रा निरंतर जारी रहती है। यही है मानवता की विजय यात्रा। हमारे लिए यही प्रेरणा है।

आज का हमारा समय  बड़ी तेजी से बदल रहा है और यह बदलाव नये-नये प्रश्नों और चुनौतियों को जन्म दे रहा है जो हमारे लिए संघर्ष की जमीन तैयार कर रहा है। हमें यह कंधा रोपने और सीना तान करक चलने की दोहरी चुनौती का न्योता देता है। हमें यह निर्णय लेना है कि हम इसमें से किसका वरण करें। जाहिर है, समय और दुनिया को बदलने वाली ताकतें किसी भी परिस्थिति का सामना कंधा रोपने के बजाय सीना तान कर चलने में विश्वास करती हैं। सामयिक परिदृश्य ऐसी परिवर्तनकामी शक्तियों का सहयात्री है। इसका संकल्प है कि इन कामों में अधिक से अधिक सहयोग करेंष मनुष्य की जय यात्रा का साथ दें।

इस समय हमारा अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिदृश्य अनेक चुनौतियों, प्रश्नों और संकटों से घिरा हुआ है। वैसे हर समय  चुनौतियां रही हैं जिसका सामना उस समय का मनुष्य करता रहा है। किन्तु इस समय ये संकट और चुनौतियां बहुत कठिन, कठोर और भयावह हैं। दुनिया  को बदलने वाली शोषित और पीड़ित जनता के लिए समाजवाद एक बहुत बड़ी शक्ति और सम्बल था, किन्तु पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के पराभव और विघटन से उसकी वह शक्ति और सम्बल छिनता सा प्रतीत हो रहा है। यह हमारे लिए चिन्तन और पुनर्विचार का समय है। यह आत्ममंथन की घड़ी, पुनर्विचार की बेला है और नयी तैयारी का समय है। हमारा तर्कसंगत विश्वास है कि मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत उतने ही प्रासंगिक हैं जितने बीसवीं सदी के प्रारंभ और मध्य में थे। जब तक संसार में शोषण, उत्पीड़न और दमन है, तब तक मार्क्सवाद प्रासंगिक रहेगा। हमें सजगता और जागरूकता से विचार करना है कि सिद्धांतों और उसके प्रयोग के बीच एक संतुलन और सामंजस्य की आवश्यकता है। किसी भी सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने में प्रायः त्रुटियां होने की संभावना बनी रहती है। विगत कुछ वर्षों से समाजवादी जगत में जो कुछ घटित हुआ है, व्यावहारिकता और प्रयोग की कमी है, मार्क्सवाद की अप्रासंगिकता की नहीं। मार्क्सवाद वैज्ञानिक दर्शन है। विज्ञान के सामान्य प्रयोग की असावधानी या अभाव में उसका असफल होना स्वाभाविक है।

समाजवादी जगत के विघटन से साम्राज्यवादी और पूंजीवादी जगत में प्रसन्नता  की लहर दिखाई पड़ रही है। इस उल्लास में विजय का जो भ्रम उत्पन्न हुआ है वह स्थायी नहीं है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में साम्राज्यवादी ताकतें जिस  प्रकार  सारे विश्व को अपनी आर्थिक गुलामी से जकड़ने की कोशिश कर रही हैं, वह हमारे समय का सबसे बड़ा संकट है। विश्व की जनता को इसके परति सजग और सक्रिय प्रतिरोध की आवश्यकता  है। हमारी चिन्ता इसलिए और भी बड़ी है कि विश्व के एकीकरण की यह साम्राज्यवादी प्रक्रिया एक ऐसी साजिश है जो न केवल हमारे आर्थिक हितों को नेस्तनाबूद करने का एक भयावह षड्यंत्र भी है। किसी देश को नष्ट करने और उसकी अस्मिता और अस्तित्व को विनष्ट करने के लिए यह आवश्यक होता है कि उसकी सांस्कृतिक धरोहर को समाप्त कर दिया जाय। आज साम्राज्यवादी शक्तियां वही कर रही हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर हमारे सामने अनेक  संकट उठ खड़े हुए हैं जो हमारे लिए गंभीर चुनौती हैं। लेखकों पर इनका सामना करने का गहरा दायित्व आ पड़ा है। इससे कतराना  या आंख मूंदना अपने लेखकीय दायित्व से मुकरना होगा। जो लोग इन चुनौतियों और  संकटों से मुकर कर आत्मान्वेषण अथवा कलात्मक कलाबाजियों में संलग्न होने का ढोंग कर रहे हैं वे दरअसल देश और समाज को एक अंध गुफा में धकेलने की क्रिया में संलग्न हैं।

आज जब हम अपने देश के परिदृश्य पर निगाह डालते हैं तो हमें साफ-साफ दिखाई पड़ता है कि आज समूचा देश और समाज साम्प्रदायिक उन्माद, आतंकवाद, विघटन, क्षेत्रीय तथा भाषायी विच्छिन्नता, आर्थिक विपन्नता, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेकारी, जातिपांत के भेदभाव आदि समस्याओं की गिरफ्त में बुरी तरह फंस गया है। ये समस्याएं इतनी भयावह और जटिल प्रतीत होती हैं कि जैसे इनसे मुक्ति का कोई मार्ग ही दिखायी नहीं पड़ता है। किन्तु गहराई से देखा जाए तो इन विराट और भयावह समस्याओं के समानान्तर इनसे मुक्ति  क संघर्ष भी चल रहा है। हमें पूरी आशा है कि संघर्षशील और परिवर्तनकारी  इस  पन पर निकट भविष्य में अवश्य मुक्ति पा लेंगी। साहित्यकार का दायित्व है कि वह आम जनता के इस संघर्ष में ईमानदारी से  सहभागी बने। हमारी परम्परा रही है कि देश और  समाज पर जब भी इस प्रकार के संकट आए हैं , साहित्यकारों ने पूरी निष्ठा, ईमानदारी और  अदम्य  साहस केसाथ इसका सामना किया है।

विगत चार – पांच वर्षों में हमारे देश में सबसे बड़ी और खतरनाक समस्या साम्प्रदायिकता की रही है। प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी शक्तियां बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि को  केंद्र बनाकर समूचे भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता का जहर घोलकर फासीवादी प्रयास कर रही हैं। देश को एक और विभाजन के कगार पर खड़ा करने का उपक्रम बना रही हैं। इतिहास साक्षी है कि हमारा देश बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक तत्वों का मिला जुला स्वरूप हे। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि इस देश में शताब्दियों से अनेक जातियां बाहर से आती रही हैं और अपने पूरे अस्तित्व के साथ इसमें विलीन होती रही हैं। आज हम जिसे हिन्दू समाज कहते हैं वह अनेक जातियों और अनेक धर्मों का मिश्रित स्वरूप है। आज धर्म और जाति के नाम  पर उन्हें विभक्त और विघटित करने का प्रयास किया जा रहा है। क्या साम्प्रदायिकता एक सुसंगठित सुव्यवस्थित, शक्तिशाली विचारधारा नहीं बन गई है?इतिहास को मिथक का रूप दिया जा रहा है। धर्म की अत्यंत संकीर्ण और आक्रामक व्याख्या के जरिए झूठी एकता और मिथ्या चेताना का निर्माण किया जा रहा है। आम जनता में जनमत बनाने वाला बुद्धिजीवी स्वयं साम्प्रदायिक सोच के जाल में उलझता जा रहा है।

यह देश विभिन्न राज्यों का संघ है। इस भारतीय संघ में हर राज्य इसका अविभाज्य अंग है। परंतु उसे यथोचित स्वायत्तता हासित करना होगा, तभी इस देश में बसी विभिन्न जातीयताओं के लिए वास्तविक समता तथा स्वायत्तता के आधार पर राष्ट्र के जनतांत्रिक ढांचे का विकास संभव है और इसी शर्त पर भारतीय संघ की एकता की रक्षा की जा सकती है। परंतु पूंजीवाद की रणनीति होती है कि क्षेत्रीय हितों को बांट दे। ध्यान रखने की बात है कि हर क्षेत्र का अपना इतिहास और अपनी संस्कृति होती है। यहां अलग-अलग भाषाएं, संस्कृतियां और उनकी क्षेत्रीय परंपराएं हैं, उनको संरक्षण मिलना चाहिए। चूंकि भारत अनेक राष्ट्रीयताओं का समूह है , इसलिए यहां विभिन्न राष्ट्रीयताएं अपने विकास का प्रयत्न कर रही हैं। जहां पूंजीवाद का विकास पहले हुआ (बंगाल) वहां की राष्ट्रीयता अधिक विकसित है। परंतु ज्यों-ज्यों उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों द्वारा ही निर्मित केंद्रीकृत ढांचे को और शक्ति संपन्न बनाने की प्रक्रिया में फूट, दमन, उत्पीड़न के शिकंजे में कसा जा रहा है। इसमें देश का लोकतांत्रिक ढांचा चरमरा चरमरा रहा है। आज भारत को जातीयताओं के आधार पर अनेक संपभ्रु राष्ट्रों में नहीं बांटा जा सकता किन्तु उन्हें स्वायत्तता जरूर प्रदान करनी होगी। कुछ क्षेत्रीय और भाषायी कट्टरपंथियों की अवधारणा है कि केंद्र को कमजोर होना चाहिए। इस अलगाववाद से भारतीय संघ को जनवादी केंद्रीयकृत बनाना चाहिए। इसलिए विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक परम्पराओं को बेहद संवेदनशील और आत्मीय ढंग से आत्मसात करके स्वस्थ राष्ट्रवाद की व्यावहारिक धारणा को विकसित करने के लिए व्यापक संगठित जनआंदोलन करने की जरूरत है।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने का शर्मनाक कुकृत्य भारत के धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र पर हमले के एक चरण का चरमोत्कर्ष ही कहा जा सकता है। कुछ पत्रकार विशेषकर जिन्हें सोवियत पतन से पहले समाजवाद की हिस्टीरिया आती थी आज वे मुसलमानों के साथ ‘तुष्टीकरण’ का नारा उछालकर कम्युनिस्ट पार्टियों, मार्क्सवादियों, वाम मोर्चे की सरकार पर योजनावद्ध ढंग से हमले कर रहे हैं। “हिन्दुत्व” का यह अभियान सिर्फ मुसलमानों पर ही नहीं, बल्कि हिन्दू परम्परा के उन महान नैतिक सिद्धांतों पर भी हमला बोल रहा है जो रामायण गीता में वर्णित लोक परम्परा में मूर्त है। आज यह उन तमाम महती आकांक्षाओं के मर्मस्थल पर आघात है जो मध्य युगीन ढांचे की जगह आधुनिक संपन्न भारत का स्वप्न देखता है। हमने ऊपर जिस भिन्नता वं वैविध्य वाली साझा संस्कृति की विकास परम्परा की बात की ती उसका तकाजा यह है कि हमारी विरासत के जो भी सकारात्मक पहलू हैं, चाहे वे किसी धारा के हों उन्हें विकसित किया जाए। जहां तक जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का प्रश्न है वहीं हिमाचल, महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैण्ड इत्यादि को भी संविधान के विभिन्न आम प्रावधानों के अमल से बाहर रखा गया है। हिमाचल में भी तो बाहरी आदमी जमीन नही खरीद सकता है।

ऐसा कहा जाता है कि हिन्दू सहिष्णु और मुसलमान असहिष्णु होते हैं। क्या सहिष्णुता और असहिष्णुता निरपेक्ष धारणाएं हैं? नहीं। वास्तव में सापेक्ष धारणाएं हैं। किस सम्प्रदाय में ज्यादा पायी जाती है और किसमें कम, यह उन सम्प्रदायों की स्थितियों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। विविधतापूर्ण और असमान विकास वाले सम्प्रदायों और स्थानों की विकास प्रक्रिया भी असमान और विषमहोती है। इस सिलसिले में धार्मिक और नस्ली समूह में भी अगड़ापन और पिछड़ापन होता है। तनाव, हिंसा, विरोध, आक्रमण के पीचे इसी विषमता, विकास एवं पिछड़ेपन की मुख्य भूमिका होती है। इसलिए धार्मिक आदर्श असहिष्णुता को जन्म देता है, यह कारण तर्कसंगत नहीं है। बचपन में ही दंत कथाओं के माध्यम से दोनों संप्रदाय परस्पर घृणा-भावना के संस्कार से अनुप्राणित किए जाते रहे हैं। हमारे अवचेतन मन में बचपन से ही अंधविश्वास अत्यंत सूक्ष्म रूप में जमे होते हैं। समय-समय पर वे प्रबल रूप में अपनी चपेट में ले लेते हैं। जाहिर है यदि कोई धार्मिक विचारधारा यदि किसी समय में अलगाव का प्रचार करती है तो इसका कारण उस समय की विशिष्ट राजनीति, सामाजिक परिस्थिति में खोजना चाहिए।

पाकिस्तान बन जाने के बाद निश्चित रूप से उत्तर भारत के कुछ मुसलमान ‘पाकिस्तानी मनोग्रंथि’ के शिकार हुए। यह स्वाभाविक है क्योंकि पाकिस्तान के मुसलमानों के साथ इनके भाषा, परिवार तथा सांस्कृतिक संबंध हैं। यह धार्मिक नहीं, ऐतिहासिक कारण है। दक्षिण भारत के मुसलमानों में यह नहीं के बराबर है। दरअसल साम्प्रदायिक पत्रकार न तो अपनी परम्परा में कुछ ग्रहण कर पा रहे हैं न तो स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास से।

यह सही भी है कि यदि हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर दृष्टि डालें तो यह साफ हो जाएगा कि साम्प्रदायिकका उस दौर में भी अपनी जड़ें जमाने में संलग्न थी. स्वतंत्रता संग्राम से जहां एक ओर धर्म निरपेक्ष शक्तियां सक्रिय थीं वहीं साम्प्रदायिक ताकतें भी सचेष्ट थीं। हमारे अनेक नेता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन तर्कों के आधार पर राष्ट्रीयता के प्रचार में जुड़े थे और आज जो साम्प्रदायिकता समूचे देश में दिखाई पड़ रही है, उसकी जड़ें मुक्ति संग्राम से जुड़ी हैं। इस प्रश्न पर इतिहासकार और आज के वामपंथी विचारक भी अन्तरविरोधों के शिकार हैं लेकिन उन नेताओं में सकारात्मक तत्व भी थे। मैं अपनी बात प्रो. इरफान हबीब के उद्धरण से कहना चाहूंगा।… “ जिसकी शुरुआत और पहले राजा राम मोहन राय तथा आरंभिक बंगाल पुनर्जागरण से और और ब्रिटिश परम्पराओं के मुकाबले भारतीय परम्पराओं की हिमायत करने की उसकी कोशिश से होती है। अग्रेजों के लिए भारत की छवि क्या थी? एक ओर वे मानते थे कि हिन्दू अतार्किक, जातिवादी विभाजन से ग्रस्त, मूर्ति पूजक और बहुदेववादी हैं। दूसरी तरफ मुसलमान उनके लिए दुराचारी थे। उनकी चार बीवियां होती थीं वगैरह।” एकेश्वर वाद की वकालत करते हुए राम मोहन राय ने तुहफुतुल मुवाहिदीन में इन हमलों से जिन भारतीय परम्पराओं की हिफाजत करने की कोशिश की है, उससे हिन्दू तथा इस्लामी दोनं ही परम्पराएं शामिल हैं और उन्होंने एकेश्वरवाद को मूलतः उसी परम्परा का जिक्र किया है जिसका प्रतिनिधित्व कबीर करते हैं।

इसके बाद केशव चंद्र सेन के धार्मिक प्रवचन का उदाहरण हमारे सामने है और महादेव गोविंद रानाडे के लिए भी महाराष्ट्र धर्म के विचार, जो रामदेव तथा तुकाराम के एकेश्वरवाद तक तथा खासतौर पर नामदेव तक जाता था, बहुत ही महत्वपूर्ण है।

मैं तिलक और अरविंद में अंतर करना चाहूंगा। तिलक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपने अभियान में परम्परागत धर्म को लेकर, परंपरागत हिंदू और परम्परागत इस्लाम, दोनों को लेकर चल रहे थे। वहीं 1916 के, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुए लाहौर समझौते के मुख्य निर्माता थे, जिसके तहत कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की बात स्वीकार की थी और मुस्लिम लीग ने होमरूल की। अरविंद के मामले में स्थिति बहुत भिन्न थी। अरविंद के साथ हिन्दू राष्ट्रवाद का विचार, वास्तव में जड़ पकड़ता है।

वास्तव में तिलक के अनुयायी उनके बारे में जो कहते हैं, उसके आधार पर हम तिलक की परीक्षा नहीं कर सकते। हमें याद रखना चाहिए कि लाहौर समझौते के अलावा तिलक 1919 क दलित वर्गों के सम्मेलन में भी एक मुख्य ताकत रहे थे और उन्होंने खासी दूरदृष्टि का परिचय देते हुए इस बात को समझ लिया कि राष्ट्रीय आन्दोलन को निचली जातियों की समस्याओं को भी हाथ में लेना होगा। इसलिए हिन्दू पुनरुत्थान वादी इस दौर की तिलक को, परिपक्व तिलक की दुहाई नहीं देते हैं।

“ मेरे ख्याल में चह मामला सिर्फ घुलने मिलने का नहीं है। वास्तव में यह हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों की ही सीमाएं तोड़कर बाहर निकलने का भी है। हमारे यहां राष्ट्रवादी इतिहास लेखन का एक हिस्सा , जिसकी मिसाल ताराचन्द हैं और मेरे ख्याल में यह हिस्सा बहुत ही सकारात्मक था, वह रहा है जो इन आंदोलनों को इस्लाम के प्रभाव का नतीजा मानता था। 20 के दशकों में ताराचंद ने इस समझ के आधार पर एक पूरा का पूरा सिद्धांत ही विकसित किया था। ” (लोकलहर)

सबसे बड़ी गलती यह हुई कि हमने संस्कृति को साम्प्रदायिक नजरिये से देखा है। इसलिए साम्प्रदायिकता हमेशा संस्कृति का मुखौटा लगा कर आती है क्योंकि अभी तक हम संस्कृति और साम्प्रदायिकता को अलग-अलग परिभाषित करने में सफल नहीं हो पाए हैं। दरअसल संस्कृति वर्गीय होती है , साम्प्रदायिकता नहीं। हमारी कमजोरी रही है कि हम अभी तक संस्कृति को वर्गीय स्थिति और वर्ग संघर्ष से जोड़ नहीं पाए। संस्कृति को वर्ग संघर्ष से जोड़ने के बाद ही उसका धर्म निरपेक्ष स्वरूप स्पष्ट होता है , जो जन साधारण की इच्छा-आकांक्षा , विचार और चेतना के विकास में सहयोगी भूमिका निभाता है। इस कमजोरी का फायदा साम्प्रदायिक शक्तियां सहजता से उठा रही हैं।

साहित्य संस्कृति का एक विशिष्ट अंग है। वह समाज की चेतना का सर्वश्रेष्ठ वाहक है। विश्व स्तर पर आज साहित्य के इस स्वरूप को विकृत और विनष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद का गठजोड़ साहित्य की विचारधारा, सामाजिक कार्य, इतिहास और उसके व्यापक उद्देश्य से काट कर प्रतिक्रियावादी रुझानों में फंसाने का प्रयास कर रहा है। आश्चर्य होता है कि यह देख कर अति आधुनिकतावादी और प्रतिक्रियावादी साहित्यकारों की अवधारणा, सांप्रदायिकता के सवाल पर एकमत होती जा रही है। (पांचजन्य में विद्यानिवास मिश्र और निर्मल वर्मा साम्प्रदायिकत साहित्यकारों की लिस्ट में उद्धृत किए गए हैं।)

यह देखकर यह कहना उचित लगता है कि दो ध्रुवांत एक ही जगह मिलते हैं। मतलब साम्प्रदायिकता एक आधुनिकतावादी अवधारणा है, उसे पिछड़ा या व्यतीत नहीं का जा सकता । यह प्रतिक्रिया स सामन्तवाद, साम्राज्यवाद,पूंजीवाद के गठजोड़ का जीता जागता नमूना है। आधुनिकता के छद्म के अनेक रूप हैं। यह जनेऊ और टाई का गठजोड़ है जो समाज को विकृत कर रहा है। इस सौन्दर्योपासक संत लेखकों के बारे में फास्टर की उक्ति याद आती है कि ‘ वे आधी आँख यश ख्याति को, आधी आँख से ऱॉयल्टी देखते हैं। आधी आँख अखबारी आलोचना पर टिकी रहती है। शेष चौधाई आँख से साहित्य रचते हैं। इधर धर्म को राजनीति से जोड़ने की मुहिम में कुछ लेखक शामिल हो रहे हैं। और साहित्य भी इनकी चपेट में आ रहा है। कौन नहीं जानता कि राजनीति का धर्म और साहित्यसे या तो तटस्थता का संबंध होता है या विरोध या विडम्बना का। यद्यपि इन सौन्दर्योपासक संतों पर सभी मुग्ध हैं लेकिन इन साम्प्रदायिक विद्वानों के प्रेम के गर्भ में घृणा, त्याग के पीछे  लोभ, मैत्री में बैर, क्षमा में प्रति हिंसा तथा मित्रता में विश्वासघात छिपा है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका एक ओर साम्प्रदायिकता के पक्ष में तर्क पेश करना, वहीं दूसरी ओर धर्म को मिटा देने का संकल्प. यह अभिनय नहीं तो और क्या है?

इसलिए साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष  बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के क्रांतिकारी कार्यक्रम का प्रमुख हिस्सा है। यह संघर्ष  जनता की चेतना के धरातलपरकिया जाना चाहिए। आन्दोलन की सफलता यह है कि संघर्ष के माध्यम से परिवर्तन के वैज्ञानिक विचार का विकास हो। इसलिए आज जरूरत है कि समकालीन वास्तविकता, इतिहास और परम्परा से एक साथ टकराने की।इस टकराव में जनता के साथ संवाद की प्रामाणिक भाषा अर्जित करनी होगी। एक बात पर विशेष ध्यान देने की और जरूरत है कि पहले आप धार्मिक  आस्था की प्रक्रिया को समझें। आज भी जहां एक ओर मध्यम वर्ग की मूल चेतना में सामंती मूल्य के अति सूक्ष्म प्रभाव मौजूद हैं वहीं दूसरी ओर शिक्षित मध्यम वर्ग में अति विशिष्टवादी व्यक्तिवादी रुझान भी है। इस वर्ग की मूल्य चेतना में अनेक अमूर्तताएं, रिक्तियां, असंगतियां हैं। आज मध्य वर्ग में पायी जाने वाली  बौखलाहट और उसके अंदर जोर पकड़ रही अतिविशिष्टतावादी प्रवृत्ति पीछे विरासत में मिले जनतांत्रिक मूल्यों के भीतर यही कमजोरियां काम कर रही हैं। इसलिए व्यापक संघर्ष में वह सहयात्री के साथ साथ  प्रतिद्वंद्वी के रूप में भी उभर आती है। क्या कारण है कि कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी साम्प्रदायिक मसले पर स्वयं को शासक-शोषक वर्ग और उसके दमन  तंत्र से  जोड़कर देखने लगते हैं? आज की विभीषिका यह है कि मध्यवर्गीय सर्वग्रासी नकारात्मकता समाज की उर्वरता के स्रोतों को सोख ले रही है। डॉक्टर चाहता है कि बीमारी और फैले, वकील चाहते हैं मुकदमें बढ़ें। शिक्षक चाहता है कि शिक्षा का स्तर गिरे और ट्यूशन मिले। अधिकारी चाहता है रिश्वत मिले। व्यापारी  काला धन को और बढ़ाना चाहते हैं। राजनीतिज्ञ इन सबमें अपना हिस्सा मांगता है  ’ जिसमें जी हुजूरी संस्कृति’ प्रबल हो उठी है। परिणाम स्वरूप निरंकुशता को बढ़ावा मिल रहा है जो फासिज्म का ही पूर्व रूप है। गौर करने की बात है कि यही संस्कृति समूची समाज व्यवस्था को निगल गई है। संस्कृति तो जीवन मूल्यों के निरंतर विकास की प्रक्रिया है परंतु यहां जीवन मूल्यों का निरंतर  क्षरण हो रहा है। स्टालिन ने ठीक ही कहा था कि “पूंजीपति वर्ग ने अपना  राष्ट्रवाद  मण्डी में सीखा है।” इसलिए हम अस्तित्व के प्रति भी शंकालु हो उठे हैं। क्या यह समस्या मात्र सतही है,तात्कालिक है या इसकी  वजह सामाजिक संरचना, मानसिक गठन, ऐतिहासिक सन्दर्भों में, असमान विकास से जुड़े सरोकारों से भी है।

हमें हर स्तर पर और हर  तरफ से ईमानदारी, साहस और निष्ठा से इस समस्या का सामना करना है। अगर इस  पर नियंत्रण नहीं किया गया तो हमारा राष्ट्र और समाज ही छिन्न-भिन्न नहीं होगा, बसल्कि हमारे भीतर का मनुष्य भी खंडित होगा। वह मनुष्य जो हमारे साहित्य संस्कृति और कला का केंद्र बिन्दु है।

चूंकि हमारे सामने साम्प्रदायिकता की समस्या पर गंभीर विचार-विमर्श और विश्लेषण की अपरिहार्यता थी, इसलिए प्रस्तुत अंक में रचनात्मकता से अधिक आलोचनात्मक सामग्री देने का प्रयास किया गया है जिससे उसके विविध पक्षों की जांच पड़ताल की जा सके और एक सामान्य निष्कर्ष तक पहुंचने में थोड़ी सफलता प्राप्त हो सके। हम इस प्रयास में कहां तक सफल हुए हैं इसका निर्णय पाठकों पर है। आशा है अपने सुझाव और मत अवश्य भेजेंगे। इसे खुली बहस  की ओर आगे बढ़ाना है ताकि हम एक निष्कर्ष तक पहुंचने में सफल  हो सकें। हम लेखकों, अनुवादकों, आर्थिक सहयोगियों विशेषकर पने मित्र देवेंद्र कुमार सिन्हा तथा श्री पंचदेव के आभारी हैं। साथ ही प्रसिद्ध चित्रकार श्री अशोक भौमिक को धन्यवाद देना हम नहीं भूलेंगे जिन्होंने अपनी अत्यंत व्यस्तता के बावजूद सामयिक परिदृश्य के आवरण पृष्ठ के  लिए चित्र बनाकर हमें सहयोग किया क्योकि बिना इसके यह अंक निकालना हमारे लिए और कठिन होता। आपका यह उत्साहवर्धन और सहयोग ही हमारा संबल और प्रेरणा है।

इस बीच हमारे बीच से सत्यजित  राय, उत्पल दत्, शमशेर बहादुर सिंह, क्षेमचंद्र सुमन, चंद्रभूषण तिवारी, रमाकांत, ठाकुर प्रसाद सिंह, गोपालकृष्ण कौल, प्रशांत  वेदालंकार, कुमारेंद्र पारसनाथ  सिंह, प्रियदर्शी प्रकाश, मुक्तिनाथ पांडेय, गोपाल कृष्ण सर्राफ, देविका रानी, आर.डी.वर्मन, गोपी कृष्ण, सुमति अय्यर, अलख नारायण आदे के अचानक चले जाने से कला, संस्कृति, साहित्य की अपूरणीय  क्षति हुई है। हम इन्हें अपनी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

‘सामयिक परिदृश्य’ के लिए सबसे दुखद रहा का. मुक्तिनाथ पांडेय का आकस्मिक निधन। पाँडेय  जी कुशल शिक्षाविद, प्रशासक, जनवादी आंदोलन, संस्कृति साहित्य के प्रति समर्पित व्यक्तित्व थे। यद्पि छपने-छपाने में वह अत्यंत संकोच करते थे। वह सामयिक परिदृश्य के प्रेरणा सोत, मार्गदर्शक, सहयोगी और शुभेच्छु थे। सामयिक परिदृश्य के प्रकाशन की परिकल्पना से लेकर उसके प्रकाशित होने तक हमें हर संभव सहयोग देते रहे। उनका वादा था कि वे नियमित रूप से सामयिक परिदृश्य में लिखेंगे। उदाहरण स्वरूप हम उनकी एक टिप्पणी इस अंक में प्रकाशित कर रहे हैं। अब तो उनका आश्वासन मात्र आश्वासन ही रह गया हैष हम सामयिक परिदृश्य का यह अंक उनकी शेष स्मृति को समर्पित करके उनके ऋण से क्या उऋण हो सकते हैं?

हम प्रयास करेंगे कि भविष्य में सामयिक परिदृश्य का प्रकाशन नियमित और समय पर हो सके। उसके लिए आपका सहयोग अपेक्षित है। साम्प्रदायिकता पर केंद्रित होने के कारण जिन लेखक मित्रों की रचनाएं इस बार प्रकाशित नहीं सकर पाये उनसे क्षमा प्रार्थना करते हैं। वे रचनाएं अगले अंक में प्रकाशित होंगी।