इतिहास के झरोखे से
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में आजाद हिंद फौज की भूमिका : एक ऐतिहासिक विश्लेषण
डॉ. रामजीलाल
1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया. इस युद्ध के समय सुभाष चंद्र बोस तथा अनेक क्रांतिकारियों की यह नीति थी कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता’ है. इस युद्ध में एक ओर इंग्लैंड के नेतृत्व में ‘मित्र राष्ट्र’ थे और दूसरी ओर नाजीवादी हिटलर (जर्मनी) व फासीवादी मुसोलिनी (इटली) के नेतृत्व में “धुरी राष्ट्र” थे. सोवियत रूस (वर्तमान रूस) युद्ध में सम्मिलित नहीं था. उस समय तक सोवियत रूस (वर्तमान रूस) युद्ध में सम्मिलित नहीं था. नेताजीसुभाष चंद्र बोस{23जनवरी1897 –18 अगस्त 1945} दो विपरीत विचारधाराओं वाले राष्ट्रों साम्यवादी रूस और नाजीवादी जर्मनी व फासीवादी इटली से सहायता प्राप्त करके भारत से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करके स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए ‘सुनहरी अवसर मानते थे.
भारत से साम्राज्यवाद के उन्मूलन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नेताजी जनवरी 1941 में पेशावर से होते हुए काबुल, मास्को जाने में सफल हुए. 2 अप्रैल 1941 को हवाई जहाज के द्वारा मास्को से जर्मनी गए तथा हिटलर से मुलाकात की. जर्मनी में उन्होंने फ्री इंडिया लीजन और आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना की. जनवरी 1943 में, जापान ने बोस को पूर्वी एशिया में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को संगठित करके भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया. तीन महीने की जोखिम भरी पनडुब्बी यात्रा के बाद जर्मनी से 13 जून 1943 को जापान जाने में सफलता प्राप्त की.
12 फरवरी 1942 को जापान की सहायता से मनमोहन सिंह के द्वारा आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी—INA) की स्थापना की गई. रास बिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को नेताजी को आजाद हिन्द फौज की कमान सौंप दी.इसका मार्च गीत- ‘क़दम क़दम बढ़ाएँ जा’ आज भी लोकप्रिय है. 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया. इंडियन नेशनल आर्मी और जापानी सेना ने मिलकर 21मार्च 1944 को कोहिमा और इम्फ़ाल पर कब्जा करने में सफलता प्राप्त की.
सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को अंतरिम सरकार की स्थापना की जिसको विश्व के नौ देशों–जर्मनी, इटली,जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता प्रदान की. जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप अंतरिम सरकार को दे दिये एवं 30 दिसम्बर 1943 को स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया. सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून मेंआजाद हिंद फौज का मुख्यालय स्थापित किया.
6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम प्रसारण में नेता सुभाष चंद्र बोस ने जनता से अपील करते हुए कहा ‘यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये’’. महात्मा गांधी से आशीर्वाद प्राप्त करते के लिए संबोधित करते हुए कहा, ‘हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं.’’ नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ संबोधित करके यह साबित कर दिया कि वैचारिक मतभेदों के बावजूद आपसी सम्मान कम नहीं होना चाहिए. 18 अगस्त 1945 को टोक्यो जाते हुए वह हवाई जहाज में आग लगने के कारण वीरगति को प्राप्त हुए.
आजाद हिंद फौज के 17000 सैनिकों को अलग-अलग स्थानों पर जेलों में डाला दिया गया. जेलों में बंदी सैनिकों को फांसी देने के लिए मुकदमें नवंबर 1945 में शुरू हुए. इनमें सबसे प्रसिद्ध अभियोग लाल किले में चलाया गया. इसको ‘रेड फोर्ट ट्रायल’ के नाम से भी जाना जाता है. इसमें कर्नल प्रेम सहगल (हिन्दू ), कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों (सिक्ख) व मेजर जनरल शाहनवाज खान (मुस्लिम) आरोपी थे.
नवम्बर 1945 से मई 1946 तक दिल्ली के लाल किले में आयोजित कोर्ट मार्शल की एक श्रृंखला थी. लाल किले के अभियोग में आजाद हिंद फौज की पैरवी करने वाली कांग्रेस की रक्षा समिति में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में वकील भूलाभाई देसाई, सर दिलीप सिंह, आसफ अली, जवाहरलाल नेहरू, बख्शी सर टेकचंद, कैलाशनाथ काटजू, जुगलकिशोर खन्ना, सुल्तान यार खान, राय बहादुर बद्रीदास, पी.एस. सेन, रघुनंदन सरन आदि शामिल थे.
आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों को जेलों से छुड़वाने के लिए समस्त भारत में जनता का आक्रोश चरम सीमा पर था. समस्त हिंदुस्तान में यह दो उद्घोष गूंज रहे थे — ‘लाल किले को तोड़ दो, आजाद हिंद को छोड़ दो!’और ‘’लाल किले से आयी आवाज़, सहगल ढिल्लों, शाहनवाज ! तीनों की उम्र हो दराज !!’’आजाद हिन्द फौज के 17 हजार जवानों के खिलाफ चलने वाले मुकदमों के विरोध में जनाक्रोश के सामूहिक प्रदर्शन हो रहे थे. इन प्रदर्शनों में पुलिसिया जुल्म से दिल्ली, मुम्बई, मदुराई और लाहौर में 326 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी.
31 दिसंबर, 1945 को अदालत ने सहगल, ढिल्लों और शाहनवाज़ को ब्रिटिश राज के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. अंततः अंग्रेजी सरकार के कमाण्डर-इन-चीफ सर क्लॉड अक्लनिक ने 3 जनवरी, 1946 को इन तीनों वीरों को जेल से रिहा कर दिया गया. यह भारतीय जनमत की एक उल्लेखनीय विजय और ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार की एक ऐतिहासिक पराजय थी.
सामूहिक प्रदर्शनों के कारण ब्रिटिश सरकार का प्रभाव बिल्कुल नगण्य हो गया. दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने भारत के सचिव को 14 नवंबर 1945 को लिखा ‘’मैं लोगों पर सेवाओं में वफादार तत्व विशेष रूप में पुलिस व फौज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में चिंतित हूं. ’’ भारत सरकार के गृह विभाग के इंटेलिजेंस ब्यूरो ने दिसंबर 1945 में लिखा, ’हिंदुस्तान की जनता की भावनाएं आजाद हिंद फौज के व्यक्तियों के साथ शहरों से गांव तक है तथा सरकारी प्रचार का कोई प्रभाव नहीं है. आजाद हिंद फौज के प्रभाव के कारण भारतीय सेना में भी भारतीय सिपाही और भारतीय ऑफिसर जो अभी तक अंग्रेजों के साथ थे अपने आप को ‘राष्ट्र का गद्दार और नमक हराम’ समझने लगे हैं. वायसराय की कार्यकारी परिषद के तत्कालीन गृह सदस्य आर. एफ. मुडी ने कहा: “बंगाल पर आजाद हिंद फौज का प्रभाव काफी था’’
आजाद हिंद फौज के प्रभाव के कारण भारतीय नागरिक सेवा, भारतीय सेना – इंडियन नेवी, एयरफोर्स, पूर्वी कमान कोलकाता और पुलिस में बगावत हो गई. परिणाम स्वरूप इस प्रकार की रिपोर्ट जब गवर्नर ऑफ इंडिया के द्वारा इंग्लैंड की कैबिनेट को भेजी गई तो उनके सामने एक ही वैकल्पिक था और उन्होंने भारत को विभाजित राष्ट्र के रूप में छोड़कर जाना पड़ा.
अंततः भारत को एक विभाजित राष्ट्र के रूप में 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद, भारतीय नरेशों व नवाबों के नियंत्रण एवं शोषण से मुक्ति प्राप्त हुई.
लेखक- सामाजिक वैज्ञानिक एवं दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा) के पूर्व प्राचार्य हैं।
