असद ज़ैदी एक प्रतिष्ठित प्रगतिशील जनवादी कवि और चिंतक है। वह वामपंथी हैं, और पिछले लंबे समय से विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया है। पिछले सालों में तमाम प्रगतिशील कैसे रातों रात बदल गए यह छिपा नहीं है। लेकिन असद जैदी ने अपनी लेखनी और विचारों से कोई समझौता नहीं किया। पिछले काफी दिनों से उनकी कविता ‘1857 ; सामान की तलाश’ को लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है। मैं उस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक ने असद जैदी की कविता को लेकर अपनी फेसबुक वाल पर एक टिप्पणी लिखी है। मैं साभार यहां उसे प्रकाशित कर रहा हूं। इस पर रअगर और कोई भी लिखना चाहेगा तो उसका स्वागत है।
त्रिभुवन
जैमिनी मुनि ने अपनी प्रसिद्ध न्यायमाला में धर्म, समाज और राजनीति के डिसाइडिड केसेज पर आधारित कुछ सूत्र दिए हैं।
इसमें एक सूत्र है : ब्राह्मण-श्रमण न्याय।
जैमिनी न्याय सूत्र में कहते हैं कि ब्राह्मण बौद्ध हो जाए तो भी अपने ब्राह्मणपन की मानसिकता नहीं छोड़ता। वह महात्मा बुद्ध की बराबरी वाली श्रमण व्यवस्था में भी वर्ण-व्यवस्था कायम करने से नहीं चूकता। वह वहां भी श्रमणों को शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण घोषित करते देर नहीं लगता। ऐसा किए बिना वह सदैव बेचैन रहता ही रहता है।
जैमिनी का यह सूत्र यह भी बताता है कि ब्राह्मण अगर मार्क्सवादी या साम्यवादी भी हो जाए तो भी वह अपने ब्राह्मणपने को नहीं जाने देता!
हिंदुत्ववाद के इस युग में ब्राह्मण लिंचिंग में भी उतर आता है और वह सबसे प्रासंगिक को भी अप्रासंगिक घोषित करते देर नहीं लगता।
शमशेर की एक कविता है : “मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत लेकिन इंसान के दर्शन हैं मुहाल।”
यही आज का सच है। इसे शमशेर ने भी भोगा और शमशेर से पहले भी और शमशेर के बाद भी इसे भोगने वाले हमारे बीच ही हैं।
पुरस्कार मिला विष्णु नागर को। विष्णु हिन्दी के बेहतरीन कवि और शानदार व्यंग्यकार हैं। बात होनी चाहिए थी विष्णु नागर के कृतित्व पर।
लेकिन जाने क्यों इस पर इतना अप्रासंगिक दर्द उठ गया है कि इसकी अवांछित तड़प ने बेवजह ही असद ज़ैदी जैसे कवि को भी बिना वजह विवादों में लिया।
और जब चारों तरफ से असद ज़ैदी के समर्थन में तार्किक आवाज़ें उठीं तो प्रतितर्क में कहा गया कि यह तो अप्रासंगिक हो चुका!
वाह क्या ही तर्क है! फ़िराक़ होते तो कहते “तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत, कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं!
अगर अप्रासंगिकता था तो वह कवि और उसकी वह कविता अचानक कैसे ज़ेहन में खलबली मचाने वाली याद लेकर आ गई?
क्या कभी अप्रासंगिकता की घोषणा की जाती है? क्या अप्रासंगिक के बारे में बताना पड़ता है?
अप्रासंगिकता को तो लंबे मौन और निष्क्रियता के माध्यम से अर्जित किया जाता है। लेकिन किसी को कोई अप्रासंगिक बता रहा है तो इसका मतलब साफ़ है कि यह अप्रासंगिक व्यक्ति और उसकी अप्रासंगिक कविता किसी को बहुत ही भयभीत किए हुए है।
हिन्दी साहित्य में पसरे सामंतवाद के गुमाश्ते जिस तरह बहुसंख्यकवाद के गंगाजल में अपनी चुटिया भिगोकर किसी को पापी और अप्रासंगिक और किसी को प्रासंगिक और पुण्यात्मा घोषित कर रहे हैं, वह बहुत अशोभनीय कारगुजारी है।
दरअसल, घृणा और नैराश्य से उपजी असंगत टिप्पणियां हो ही इसलिए जाती हैं, क्योंकि मन के भीतर के द्वंद्व कहीं से भी खींचकर ले आते हैं। जैसा कि विद्वेष और नैराश्य में डूबे लोगों की मानसिकता को रेखांकित करती कवि राजेश जोशी की एक मनोविश्लेषणात्मक कविता है : “निराशा।”
जोशी के शब्दों में वाक़ई निराशा एक बेलगाम घोड़ी है, जो भागना चाहो तो भागने नहीं देती और घसीटते हुए किसी चेहरा-मोहरा बिगाड़कर और आपके सारे विद्रूप अतीत को अपने सुमों से खोद कर आपको जंगल में छोड़ आती है।
यह सब भाषा, साहित्य और संस्कृति की उस गरिमा को गिराता है, जिसके लिए अभिव्यक्ति के इस माध्यम का जन्म हुआ है।
यह मानसिकता कितनी ज़लील है कि आपकी कोई लड़ाई अधूरी रह जाए तो आप उसे बाद में पूरी करने के लिए रखे रहें और मन में घृणा का पोषण करते रहें।
यह कफ़-आलूद व्यवहार उस दृष्टिकोण का परिचय देता है, जो अपने कुछ होने की दहशत पैदा करने से प्रेरित है।
आप किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से पराजित हुए और कालांतर में एक स्वस्थ बहस के बजाय अस्वस्थ और मैले-कुचैले अंदाज़ में गरियाहट शुरू करते हैं तो यह शोभन तो नहीं है।
असद ज़ैदी की कवि के रूप में महत्ता कम हो या ज़्यादा, उनकी कविता अच्छी हो या बुरी या वह साहित्यिक मानदंडों पर कितनी खरी है या खोटी है, इस पर कोई बहस करे, इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है; लेकिन एक ब्राह्मणवादी अहंकार इस अंदाज में कहे कि सामने वाला कितना घृणित या निंदनीय है, यह बता रहा है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति भीतर से कितना सताया हुआ है।
हिन्दी साहित्य के वर्तमान दौर में क्रिटिकल लिट्रेरी रिफ्लेक्शन के एक दीपस्तंभ की तरह मौजूद असद ज़ैदी इस समय के एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं। पोस्ट ट्रुथ एरा में जिन भारतीय लोक को जिन कविताओं ने अपने विश्लेषण से चौंकाया है, उनमें वे एक हैं।
हिंदी साहित्य के व्यापक परिदृश्य में, जहाँ आवाज़ें अक्सर प्रचलित विचारधाराओं और ऐतिहासिक विकृतियों के माध्यम से सीमित होती हैं, असद ज़ैदी बौद्धिक साहस और समालोचनात्मक दृष्टि के साथ अपनी बात रखते हैं और वे एक परिपक्व अध्येता के रूप में सामने आते हैं।
एक कवि और विद्वान् के रूप में उनका अवदान और योगदान ऐसी स्थापित धारणाओं के माध्यम से एक महत्वपूर्ण अंतर को दर्शाता है, जिन्होंने लंबे समय से हमारे इतिहास और संस्कृति की समझ को आकार दिया है।
ज़ैदी की कविता “1857: सामान की तलाश” दरअसल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उन मल्टिफ़ैसिटिड् इंटरप्रिटेशंस की गहन पड़ताल करती है, जिसके अगणित विवादास्पद ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मौजूद हैं।
ज़ैदी की कविता सिर्फ़ एक कलात्मक अभिव्यक्ति या आर्टिस्टिक एक्सप्रेशन भर नहीं है। यह कविता उन ऐतिहासिक और वैचारिक धाराओं की एक जटिल-संश्लिस्ट आलोचना है, जिन्होंने हमारे साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं को प्रभावित किया है।
“1857: सामान की तलाश” के माध्यम से ज़ैदी 1857 के विद्रोह को रिविजिट करते हैं। 1857 भारतीय इतिहास की एक ऐसी असाधारण और महत्वपूर्ण घटना है, नाना प्रकार के आइडियोलॉजिकल लैंसेज ने या तो रोमैंटिसाइज किया है या फिर इसके डिस्टोर्टिड रूप प्रस्तुत किए हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि असद ज़ैदी से सहमत हुआ ही जाए; लेकिन इस कविता को लेकर एक सांप्रदायिक अंदाज़ में एक फ़ासीवादी कारकुन की तरह व्यवहार करना आपत्तिजनक है। चाहें तो इस कविता को धज्जी-धज्जी कर दें; लेकिन तर्क और अपने विश्लेषण से करें।
यह कविता हिन्दी साहित्य में पहली बार एक सूक्ष्म दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो सुभद्राकुमारी चौहान जैसे असाधारण व्यक्तियों के क्रांतिकारी रचनाकर्म को रेखांकित कर बाकी के लिए उलाहने रखती है। क्या किसी कवि को कभी भी किसी व्यापक ऐतिहासिक संदर्भ की आलोचनात्मक जांच-परख नहीं करनी चाहिए? बल्कि यह इस रूप में एक असाधारण कविता है कि इतिहास दृष्टि के भार को वहन करती हुई आगे बढ़ती है।
इससे कौन इनकार करेगा कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक जटिल संघर्ष था, जिसमें आधुनिकता और परंपरा का एक गतिशील डायनैमिक इंटरप्ले रहा है।
इस कविता को लेकर पहले भी कई बार विवाद उठे हैं। लेकिन यह सबसे अधिक हतप्रभ करता है कि कई जीनियस भी इस कविता के “सामान” शब्द में सामान ढूंढ़ते हैं।
यह तो लाक्षणिक अर्थ तलाशने या काव्य रूपक को समझने में गुलज़ार से भी पीछे रुक जाने वाला मामला हुआ। “मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है। सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं और मेरे एक ख़त में लिपटी रात पड़ी है।”
कई बार लगता है कि इस तरह के मामले दरअसल सोच के स्तर पर हुई दुर्घटनाएं नहीं, गहरी साज़िश और शैतानियत के उदाहरण हैं।
इस कविता और कवि के बारे में दिये जा रहे कुतर्क बताते हैं कि बहुसंख्यक सांप्रदायिक दृष्टिकोण हिन्दी विश्लेषण और आलोचना का हिस्सा बन गया है।
इसके बावजूद कि इस पर सवाल उठाने वाले न कविता के कोई मानदंड बताते हैं और न ही उसके अंदाज़। ग़ालिब के शब्दों में कहा जाए तो “हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है!”
संभवतः 1857 के बारे में सावरकर प्रेरित दृष्टिकोण ने बहुत से कथित प्रगतिशील कहलाने वाले ऐसे रूढ़िवादियों को भी अपने प्रभाव में ले लिया, जो अपने आपको वामपंथी समझने का वहम पाले हुए अपने सांप्रदायिक तेवरों को तरह-तरह से सान देते रहते हैं।
इस कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान का उल्लेख ही इस बात का प्रमाण है कि असद ज़ैदी कहना क्या चाहते हैं। “हिन्दी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आयी।”
असद ज़ैदी इस मामले में मुक्तिबोध का उल्लेख करते हुए बताते रहे हैं कि सुभद्राकुमारी चौहान को बाकी साहित्यकारों ने किस तरह अनदेखा किया।
ज़ैदी के विचार की पुष्टि मुक्तिबोध के उनके बारे में लिखे लेख से होती है, ‘‘सुभद्राकुमारी चौहान के साहित्य में जो स्वाभाविक प्रवाहमयी सरलता है और जो अहेतुक गंभीर मुद्रा का खटकता सा लगनेवाला अभाव है, उसका कारण है जीवन के उस मौलिक उद्वेग का राग, जिसने समाज में भिन्न-भिन्न रूप धारण किए।
राष्ट्रीय आंदोलन उसका एक रूप था, उसकी एक अभिव्यक्ति थी। स्त्रियों की स्वाधीनता का प्रश्न उसका दूसरा रूप था और पतित जातियों का उत्थान तीसरा। …कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिंदी में बेजोड़ है। क्योंकि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में पाई है।”
यह बहुत दुःखद है कि हिन्दी कविता की आलोचना दृष्टि की नाव को बहुसंख्यकवाद हिंदूवाद की वैतरणी में उतार कर ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण के चप्पू से खेकर नव-फ़ासीवादी की एक नई लहर पैदा करके हिन्दी को हिन्दू भाषा बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है।
दु:खद यह है कि यह काम राष्ट्रीय स्वयं सेवक के बजाय मार्क्सवाद के मंत्रोच्चार करने वाले ब्राह्मणों के श्रीमुख से हो रहा है। कई बार तो ऐसा लगता है कि हिन्दी में अघोषित रूप से ब्राह्मण महासंघ, पुरुष महासम्मेलन या दलित विरोधी महाभियान या कि क्षत्रिय सेनाओं ने अपने-अपने मोर्चे बहुत कुशलता से संभाल रखे हैं। इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं, ये इतनी सहजता से बन जाते हैं कि किसी को आभास भी नहीं होता।
इस दूषित दृष्टि ने हिन्दी की साहित्य आत्मा में विष इंजेक्ट करने में सफलता पा ली है। यह और भी निराशापूर्ण और क्षोभजनक है कि हिन्दी के आलोचक लाक्षणिक अर्थों को न समझने की कोशिश करते हुए महज़ इसलिए तोड़मरोड़ रहे हैं; क्योंकि कोई व्यक्ति आपकी गिरोहबंदियों के दायरे से बाहर है।
किसी और प्रकरण में असद ज़ैदी की कविता को नाहक़ बीच में ले आना यह भी बताता है कि अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य को लेकर हिन्दी साहित्यकारों का हृदय कितना विषाक्त और दृष्टिकोण कितना संकीर्ण है।
मीर तक़ी मीर ने कितना सही कहा था, “नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया”।
प्रगतिशील और रूढ़िवादी प्रवृत्तियों के बीच का द्वंद्वात्मक तनाव बहुत पहले से है और यह एक व्यापक सामाजिक संघर्ष को दर्शाता है, जिसे उपनिवेशी और उपनिवेशोत्तर प्रभावों ने बहुत बढ़ाया है।
छायावाद और रहस्यवाद में प्रगतिशीलता तलाश की जा रही है। लेकिन यहाँ मुझे पद्मसिंह शर्मा के आज़ादी के तत्काल बाद प्रकाशित एक साक्षात्कार की याद आ रही है, उस काल के सबसे चर्चित साहित्यकार आचार्य चतुरेसन शास्त्री से था। वह संवाद गुणावगुण पर विचार किए बिना बहुत ध्यान देने लायक है, जो “मैं इनसे मिला” में संकलित है :
पद्मसिंह : “छायावाद ओर रहस्यवाद के सम्बन्ध में आप क्या कहते हैं ?
चतुरसेन : “तीन को फांसी और, शेष सबको काला पानी !” इतना कहकर आचार्य अपने चश्मे से घूर-घूरकर हमें देखने लगे। अचकचाकर मैंने उनकी ओर देखा । उन्होंने कहा, -“सर्वश्री प्रसाद, महादेवी वर्मा और पंत को फांसी और बाकी छायावादी कवियों को काले पानी का पहली क़लम हुक़्म दूं, यदि अधिकार पाऊं। यह काव्य-धारा क्या है? दरसअल, आचार्य चतुरसेन ने यह विश्लेषण आज़ादी के आंदोलन के दौरान राष्ट्रमुक्ति के संग्राम की आवाज़ों से पीठ फेर लेने के कारण अपना यह विचार बनाया।
ज़ैदी की आलोचना यह स्पष्ट करती है कि कैसे इन वैचारिक विरोधाभासों को समय के साथ विकृत और शोषित किया गया है। विशेष रूप से हिंदुत्ववादी तत्वों ने इन ऐतिहासिक अस्पष्टताओं का उपयोग कर एक ऐसा आख्यान तैयार किया है जो प्राचीन भारत के आदर्शीकृत दृष्टिकोण के माहात्म्य को षड्ज स्वरों में गाता है और हाशिये पर मौजूद वंचित समुदायों के योगदान और दृष्टिकोणों को सिरे से खारिज करता और नकारता है।
अब हिन्दी का आलोचक और विश्वविद्यालयों में अध्यापन करने वाला शिक्षक एक मुसलमान कवि से अपेक्षा करता है कि वह रहीम की तरह “अहं चित्तेनाश्मा पशुरपि तवार्चादिकरणे । क्रियाभिश्चांडालो रघुवर नमामुद्धरसि किम्। अर्थात् मेरा चित्त पत्थर है, आपके पूजन में पशु समान हूं और कर्म से भी चांडाल सा हूँ। इसलिए मेरा क्यों नहीं उद्धार करते!” क्यों नहीं लिखता!
हिन्दी का शिक्षक और आलोचक चाहता है कि कोई मुसलमान कविता लिखे तो वह रसखान के सुर में सुर साधे और हिन्दी के ब्राह्मण साहित्येतिहासकारों के स्थापित मानदंडों पर कोई सवाल खड़ा नहीं करे। उसका विचार-चिंतन बस रख इस दायरे में लिखे, “मानुष हों तौ वही रसखानि बसौं व्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धेनु मॅझारन । पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन। जो खग हौं बसेरो करौं मिल कालिंदी कूल कदंब की डारन।”
यह मानसिकता सिर्फ़ मुसलमान को लेकर ही नहीं है। अछूतों को लेकर भी है।
चालाक ब्राह्मणवादी समालोचकों ने हिन्दी साहित्य से दलित साहित्य की एक अलग बस्ती बसा दी है और तोहमत यह है कि वे हर समय ब्राह्मणों को गरियाते हैं, ताकि उस वर्ग से सामने आ रही मेधाओं के ताप से हिन्दी का ब्राह्मणवादी अहंकार जल कर राख न हो जाए। इसीलिए सूर-सूर, तुलसी ससि और उडुगन केसवदास! इसमें न कबीर, न रैदास, न नानक और न मीरा!
इसलिए असद ज़ैदी तो एक नाम भर है। यह एक समूचे परिवेश, हिन्दी की गतिशील और मानवतावादी धारा पर गहरा हमला है।
यह सेलेक्टिव हिस्टॉरिकल रिविज़निज्म एक व्यापक हिस्टॉरियोग्रैफिकल डिस्टोर्शनंस के पैटर्न का हिस्सा है, जहाँ ऐतिहासिक तथ्यों को समकालीन वैचारिक एजेंडों के अनुकूल बनाने के लिए विकृत किया जाता है। इन विकृतियों का प्रभाव हमारी साहित्यिक परंपराओं को देखने से स्पष्ट हो जाता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल और अन्य के कार्य अपने आप में अग्रणी होते हुए भी उस कालखंड के प्रचलित वैचारिक पूर्वग्रहों को वाचालता से दर्शाते हैं।
आप उनकी रचनाओं में जाति आधारित पूर्वग्रह देख लें या साम्प्रदायिक निहितार्थों की उपस्थिति को रेखांकित कर लें। यह सब उस व्यापक सामाजिक और ऐतिहासिक तनावों की पहचान है, जिसने उनके दृष्टिकोण को आकार दिया।
असद ज़ैदी ने भारतीय रिनेसां के अग्रदूत कहलाने वाले वर्णव्यवस्थावादियों पर भी बहुत खुलकर प्रहार किया है।
असद ज़ैदी ने अपनी कविता के माध्यम से साहसिकता के साथ चुप्पियों और अनुपस्थितियों को रेखांकित किया है। उनकी कविता उन छिपे हुए पूर्वग्रहों और विचारधाराओं को सामने लाती है, जिन्होंने साहित्यिक और ऐतिहासिक परिघटनाओं को प्रभावित किया है।
ऐतिहासिक और वैचारिक विकृतियों को समझने और उनका समाधान करने के मामले में असद ज़ैदी के वैदुष्य और काव्यात्मक प्रयास महत्वपूर्ण हैं। वे अपनी आलोचना दृष्टि से एक काउंटर नैरेटिव प्रस्तुत करते हैं, जो उस उपेक्षित, वंचित और हाशिए के समुदायों को लेकर है, जिसकी उपेक्षा करके इतिहास की एक समझ को आकार दिया गया है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विरोधाभासों और जटिलताओं के साथ जुड़कर असद ज़ैदी हमारे अतीत की एक अधिक सूक्ष्म और समावेशी व्याख्या प्रस्तुत करने में योगदान करते हैं। कोई इससे असहमत है तो भी इसकी महत्ता और इसकी उपयोगिता को खारिज नहीं किया जा सकता।
हिन्दी कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में रूढ़िवादी, ब्राह्मणवादी, बहुसंख्यकवादी, पुरुषवादी, जैव-प्रकृतिविरोधी विचारधाराएँ इतनी हावी हैं कि उनके स्थापित मानकों का विरोध करना या उन्हें चुनौती देना आग से खेलना है।
इस तरह के हालात में किसी स्त्री, किसी अल्पसंख्यक, किसी दलित-पिछड़े या किसी महिला को बोलने पर अद्वितीय चुनौतियों और स्क्रूटिनी का सामना करना पड़ता है। साहित्य और इतिहास के क्षेत्र में क्रिटिसिज्म और मार्जिनैलाइजेशन एक आफ़त है।
दरअसल, इसे बेहतर तरीक़े से समझने की ज़रूरत है कि असद ज़ैदी और उनकी कविता का बार-बार सूक्ष्म परीक्षण किसी एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्क्रूटिनी नहीं है, बल्कि यह हमारे अकादमिक और साहित्यिक क्षेत्रों में व्याप्त वैचारिक पूर्वग्रहों, गिरोहबाज़ियों और व्यक्तिगत कुंठाओं के सुस्थापित सुपोषित तंत्र को दर्शाता है।
लेकिन इन चुनौतियों के बावजूद सत्य और क्रिटिकल रिफलेक्शन के प्रति कमिटमेंट असद ज़ैदी की अडिग प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उनका काम साहित्य की शक्ति का टेस्टामेंट तो है ही, सत्योत्तर युग में प्रचलित आख्यानों को चुनौती देने की उनकी साहसिकता की शक्ति का भी प्रमाण है।
असद ज़ैदी बिना किसी अल्पसंख्यक अलगाववाद के पोषण या उसके संरक्षण के प्रतिकूल बहुसंख्यकतावादी अलगाववाद को खारिज कर एक नई तरह की अधिक इनक्लूज़िव अंडरस्टैंडिंग को सामने लाते हैं और वही हमारी आज की बड़ी ज़रूरत है। उनकी कविता और कविताएं बौद्धिक साहस और यथार्थ की निरंतर खोज के महत्व की शक्तिशाली याद दिलाती हैं। विविधता भरे पर्सपेक्टिव और विविधता से आप्लावित आवाज़ों को संरक्षित करना ही हमारे समय की ज़रूरत है।
एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे एक व्यक्ति मुस्लिम पृष्ठभूमि वाले एक कवि को लेकर अचानक ही ट्रोल्स में शामिल नहीं हो गए। यह वही हिन्दूवादी मानसिकता है, जो कथित गो-तस्करों पर हमलावर होकर बिना सोचे-समझे उनकी लिंचिंग कर डालती है। उनके लिए हर मुसलमान मांस खाता है तो जैसे गोमांस ही खाता है और वह कोई गाय ले जा रहा है तो ज़िब्ह के लिए ही ले जा रहा है, लिंचिंग वाली मानसिकता से अलग नहीं है।
यह एक पूरा वैचारिक पुंज है, जो अल्पसंख्यक विरोधी है, दलित विरोधी है और जो स्त्री को समानता का अधिकार नहीं देता और इन सबको सम्मान और गरिमा से नहीं देखना चाहता। यह एक मानसिकता है। इसीलिए तो एक बूढ़े ब्राह्मण कवि-आलोचक को किसी नि:संकोच नृत्यांगना का शिथिलगात अवस्था में नाचना विद्रूप लगता है। और यह मानसिकता अचानक ही नहीं चली आई है।
यह गिलक्राइस्ट मानसिकता है, जो हिन्दुओं और मुसलमानों की भाषाओं को अलग मानती है। इसके लिए सिद्धांत रचती है।
यह रिज़ले मानसिकता है, जो धर्म के आधार पर दो क़ौमें गढ़ती है।
यह ग्रियर्सन मानसिकता भी है, जो भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में विभाजन की पगडंडियां तय करती है।
यह वह सर सैयदवादी मानसिकता भी है, जो अपने लश्करों में नई भाषा बनने की तजवीज़ पेश करती है।
यह वह मानसिकता भी है, जिसे हमारी एक पूरी पीढ़ी के वैचारिक चिंतन को आधार देने वाले राहुल सांस्कृत्यायन जैसे क्रांतिकारी साहित्यकार से तथ्यों को परे रखकर घोषणा करवा देती है कि मुसलमानों ने राष्ट्रीय जीवन में हिस्सा ही नहीं लिया।
त्रिभुवन जी के फेसबुक वाल से