26 जनवरी और कम्युनिस्ट 

जगदीश्वर चतुर्वेदी

26 जनवरी के कम्युनिस्टों के लिए क्या मायने हैं , वे कितना लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों और संरचनाओं को आत्मसात कर पाए हैं ॽ इन सवालों पर विचार करने की जरूरत है। याद करें जब देश आजाद हुआ तो कम्युनिस्टों की धारणा थी ‘ यह आजादी झूठी है देश की जनता भूखी है’ , वे अंदर से लोकतंत्र को स्वीकार नहीं कर पाए,जबकि हकीकत में लोकतंत्र जन्म ले चुका था। इस कमजोरी का कम्युनिस्टों को जल्द ही एहसास हुआ और उनके नजरिए में बदलाब आया, लोकतंत्र में शिरकत की उनमें दृढ़ भावना थी और उनके सामने कठिन चुनौतियां थीं, पहले लोकसभा चुनाव में ही कम्युनिस्टों को जबर्दस्त सफलता मिली, बड़ी संख्या में वे जीते, आंध्र में किसानसभा के अध्यक्ष को लोकसभा चुनाव में उस समय सबसे अधिक नोटों से विजय मिली, सन् 1957 में केरल में पहली कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सरकार बनी, जिसने आधुनिक केरल के निर्माण की आधारशिला रखी।संसदीय कामकाज की नई परंपरा आरंभ की। नेताओं की नई जीवनशैली को पेश किया। यह नेहरू का वैकल्पिक मॉडल था। जो आज भी प्रासंगिक है।

मसलन्, जिस समय सादगी के प्रतीक राजेन्द्र बाबू के लिए राष्ट्रपति के नाते कारों का काफिला खरीदा जा रहा था। ईएमएस साइकिल से मुख्यमंत्री ऑफिस जाते थे.साइकिल में पीछे कैरियर में उनकी टाइप मशीन बंधी रहती थी। बिना किसी तामझाम और न्यूनतम सरकारी संसाधन के सत्ता चलाने की वैकल्पिक परंपरा की आधारशिला कम्युनिस्टों ने रखी जो आज भी महत्वपूर्ण है। कम्युनिस्टों ने किसानों-मजदूरों-छात्रों के लिए नए वैकल्पिक कार्यक्रम को जन्म दिया। उनके तेलंगाना किसान संघर्ष के कारण नेहरू सरकार को जमींदार उन्मूलन कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनके जवाब के कारण ही समाजवादी नमूने के समाज का नारा और कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य की अवधारणा पर नेहरू सरकार ने जोर दिया। देश में लोकतंत्र पर जब भी खतरा आया,कम्युनिस्टों ने उसका सामना किया। असंख्यकुर्बानियां दीं।हजारों कॉमरेड मारे गए। आपात्काल के सीपीआई के समर्थन को अपवाद के रूप में, बाद में सीपीआई ने आपातकाल को समर्थन देने को गलत माना।। देश में अनेक जनहितकारी नीतियों को बनवाने में कम्युनिस्टों और उनके संगठनों की बड़ी भूमिका है। खासकर महिलाओं के लिए नए कानून बनवाने में कम्युनिस्ट महिला संगठनों और उनकी नेत्रियों की केन्द्रीय भूमिका रही है। इसके अलावा केरल,बंगाल और त्रिपुरा में लाखों भूमिहीन किसानों को जमीन दी।

इन तमाम बड़ी उपलब्धियों के वाबजूद उनकी कुछ कमजोरियां भी हैं। जिनके कारण अपूरणीय क्षति हुई। मसलन् , नक्सलबाडी आंदोलन और माओवादी संगठनों की हिंसक कार्रवाईयों ने नुकसान पहुँचाया। अपने पत्रों में भी संवाद नहीं चलाते ! अब आप ही बताएं बिना संवाद-विवाद के कहीं पर भी कम्युनिस्टों ने फतह हासिल की है ? आखिरकार प्रचार भी तो करना आना चाहिए !! मैं फिर कहूंगा,यदि कम्युनिस्ट हो तो प्रचार करना,संवाद करना, मित्रों को संवाद में व्यस्त रखना सीखो। कम्युनिस्ट कहने या मानने या पार्टी सदस्यता मात्र से कोई कम्युनिस्ट नहीं बन जाता, मार्क्सवाद पढ़ो, पार्टी करो और उदारतावाद सीखो। लोकतंत्र में कम्युनिस्टों को सांगठनिक और देशज हकीकत की रोशनी में चुनाव लड़ना चाहिए। ह्रास के दौर में चुनाव लड़ने से बचना चाहिए। अनेक जगह वे हकीकत से आँखें बंद करके चुनाव लड़ते हैं और हारते हैं। फिर भी उनके लड़ने का प्रचार मूल्य है, कम से कम दस-बीस हजार लोगों तक वामदल अपना चुनाव चिह्न तो पहुँचा पाते हैं।इससे ज्यादा उनकी कोई बड़ी भूमिका नजर नहीं आती।यदि किसी को नजर आती है तो बेहतर बात है।कम्युनिस्ट यदि अपने चुनाव चिह्न के प्रचार के लिए लड़ रहे हैं तो उनका लक्ष्य बहुत सीमित है।वे किस तरह सीमित ढ़ंग से काम करते हैं,हम सब जानते हैं। सब जानते हैं सामंती भावों में वे अव्वल हैं,आलोचना करोगे,काम करने के लिए कहोगे तो व्यक्तिगत हमले करने लगते हैं, दोस्त-दुश्मन की उनको एकदम पहचान नहीं है।मार्क्स-एंगेल्स के लिखे को देखो वहां पर गैर कम्युनिस्टों से वे कितना सीखते हुए लिखते हैं,लेकिन भारत में कम्युनिस्टों में कभी गैर कम्युनिस्टों की प्रशंसा नहीं मिलेगी,वे सामान्य संवाद तक में अन्य विचारधारा के आदमी की प्रशंसा नहीं करते,यह तो विलक्षण किस्म की अज्ञानता है जो मार्क्स-एंगेल्स के पठन-पाठन के अभाव में पैदा हुई है।

पता करो कॉमरेडों के घरों में मार्क्स-एंगेल्स का साहित्य भी है या नहीं,जबकि कायदे से उनके यहां सभी किस्म का साहित्य होना चाहिए।सच यह है विचार साहित्य वे नहीं पढ़ते और न खरीदते हैं। यि क़ॉमरेड मार्क्सवादी साहित्य खरीदते तो मार्क्सवाद के भारत में करोड़ों पाठक होते।पार्टी साहित्य के करोडों पाठक होते।

कॉमरेड कुछ तो सीखो ,आपको दुनिया के सभी विचारों को जानना चाहिए,हर आदमी से संवाद करना चाहिए,कूपमंडूकता से निकलना चाहिए,भारत में कूपमंडूकता ने मार्क्सवाद की जगह ले ली है,मार्क्सवाद का मतलब कूपमंडूकता नहीं है।सीखो और बदलो,सिर्फ देखना बंद करो।मार्क्सवाद तो परिवर्तन का विज्ञान है,वह आस्था की चीज नहीं है,जीवन बदलने की कला है। मार्क्सवाद के ज्ञान के बिना पार्टी सदस्य भक्त होता है।बेहतर कम्युनिस्ट वह है जो दुनिया के बेहतरीन विचारों को पकड़े न कि पार्टी लाइन तक सीमित रहे।पार्टीलाइन में सर्वस्व खोजना मृग-मरीचिका है।पार्टी लाइन में ही जीना-मरना कॉमरेड का नहीं खूंटे से बंधे बैल का लक्षण है। भारत में सभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य जिस यथार्थ में रहती हैं उसमें अधिकांश सदस्य समाजवाद के उपभोक्ता मात्र हैं।’उपभोक्ता कम्युनिस्ट ‘ बनाकर क्रांति या सामाजिक चेतना पैदा नहीं कर सकते। अधिकांश कामरेड तो समाजवादी उपभोक्ता हैं, उन्हें क्रांतिकारी न समझें ।सामाजिक राजनीतिक यथार्थ से कटी हैं कम्युनिस्ट दलीय संरचनाएं स्टीरियोटाइ प हैं। कई दशकों से अपरिवर्तित हैं।स्टीरियोटाइप कम्युनिज्म मार्क्सवाद का अंत है। कम्युनिस्ट दलीय अवधारणाओं के बाहर सोचो, दुनिया साफ नजर आएगी। मार्क्सवाद पढ़ो विकल्प खोजो। नया समाज नए विकल्प चाहता है। जगदीश्वर चतुर्वेदी के फेसबुक वाल से