आलोक वर्मा
केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री मनसुख मांडविया ने लोकसभा में दावा किया कि देश में बड़ी संख्या में नौकरियां उपलब्ध हैं। इसके लिए उन्होंने ‘नेशनल करियर सर्विस पोर्टल’ पर उपलब्ध 19 लाख से अधिक रोजगार के अवसर हवाला दिया। विदित हो कि यह पोर्टल सरकारी और प्राइवेट क्षेत्रों में उपलब्ध रोजगार के लिए एक एकीकृत मंच प्रदान करता है, हालाँकि इस पोर्टल पर उपलब्ध अधिकतर रोजगार संविदा आधारित ही हैं। मांडविया ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने रोजगार सृजन के लिए कई योजनाएं चलाई हैं और अब बेरोजगारी दर घटकर 3.2 प्रतिशत रह गई है तथा भविष्य में इसके तीन प्रतिशत से नीचे आने की उम्मीद है। उन्होंने कहा कि रोजगार को लेकर चिंता करने की बात नहीं है। मंत्री का कहना था, ‘‘आपके परिवार में किसी को नौकरी चाहिए…अगर उनकी योग्यता होगी तो नौकरी मिलेगी। देश में नौकरियों की कोई कमी नहीं है।’’
इससे पहले 2024-25 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने रोजगार शब्द का 23 बार उल्लेख किया। इससे पता चलता है कि लोकसभा चुनाव में युवाओं ने बढ़ती बेरोजगारी के प्रति नाराजगी जताते हुए भाजपा को जो झटका दिया उससे केंद्र सरकार ने भलीभांति महसूस किया है, नहीं तो इससे पहले सरकार की नजर में बेरोजगारी कोई मुद्दा नहीं था। बजट में 23 बार रोजगार का नाम लेने यह तो स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार के लिए रोजगार प्रमुख मुद्दा बन चुका है। लेकिन श्रम मंत्री के दावे से यह मान लेना चाहिए कि क्या देश में पर्याप्त औपचारिक नौकरियाँ सृजित हो रही हैं?
इसके लिए आर्थिक सर्वेक्षण पर एक नजर डाल लेते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, 2022-23 में भारत का कार्यबल लगभग 56.5 करोड़ होने का अनुमान है। इसका 45% से अधिक कृषि में, 11.4% विनिर्माण में, 28.9% सेवाओं में और 13% निर्माण में कार्यरत है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ये आंकड़े जमीनी हकीकत को नहीं दर्शाते, क्योंकि देश में बड़ी संख्या में बेरोजगार हैं। कई नौकरी चाहने वाले लोग खेतों या असंगठित खुदरा क्षेत्र में या आकस्मिक मजदूर के रूप में काम कर रहे होते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक कार्यबल में लगभग 18.3% को अपने श्रम के लिए कोई मज़दूरी नहीं मिलती है, क्योंकि वे घरेलू उद्यमों में अवैतनिक कर्मचारी हैं। इनमें अधिकांश महिलाएं हैं।
जनवरी- मार्च 2024 की तिमाही में शहरी बेरोज़गारी दर 6.7% थी, जबकि 2022-23 में युवा बेरोज़गारी 10% थी। 2017-18 में नियमित वेतनभोगी कर्मचारी 22.8 फीसदी थे, जो घटकर पांच साल बाद 20.9 प्रतिशत रह गए। सरकार प्रमाण के रूप में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) में नामांकन का हवाला देती है। ईपीएफओ के 7.3 करोड़ योगदानकर्ता ग्राहक हैं, हालांकि कुल खाते 30 करोड़ हैं, जिनमें निष्क्रिय खाते और व्यक्तियों द्वारा रखे गए कई खाते शामिल हैं।
युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से बजट में एक पैकेज प्रधानमंत्री के नाम पर पेश किया गया। वित्त मंत्री के मुताबिक इनमें से तीन योजनाएं रोज़गार से जुड़े प्रोत्साहन प्रदान करती हैं। पहली योजना का उद्देश्य पहली बार काम करने वाले कर्मचारियों को काम पर रखने में सहायता करना है, जिसमें कर्मचारी को 15,000 रुपये तक की वेतन सब्सिडी दी जाती है, और इसके तहत एक करोड़ लोगों को शामिल किए जाने की उम्मीद है। दूसरी योजना का उद्देश्य पहली बार काम करने वाले कर्मचारियों को काम पर रखना है, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में, जिसमें कर्मचारियों और नियोक्ताओं दोनों को चार साल के लिए वेतन सब्सिडी दी जाएगी, इसमें अधिकतम प्रोत्साहन 25,000 रुपये मासिक वेतन का 24% होगा। तीसरी योजना उन नियोक्ताओं को सहायता प्रदान करती है जो नए कर्मचारियों को काम पर रखते हैं, ज़रूरी नहीं कि वे पहली बार काम करने वाले हों, उन्हें उनके मासिक ईपीएफओ अंशदान का 3,000 रुपये तक प्रतिपूर्ति किया जाएगा। चौथी योजना का उद्देश्य औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई) को उन्नत करना और कौशल विकास प्रयासों को बढ़ावा देना है। वित्त मंत्री को उम्मीद है कि इससे 20 लाख छात्रों/ युवाओं को लाभ मिलेगा।
अंतिम योजना, का उद्देश्य नौकरी के दौरान कौशल प्रदान करना है, जिसमें एक करोड़ युवाओं को भारत की शीर्ष कंपनियों में इंटर्नशिप देने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है, जिसके तहत उन्हें एक वर्ष के लिए 5,000 रुपये मासिक भत्ता दिया जाएगा, जिसमें कंपनियां प्रशिक्षण लागत और भत्ते का 10% वहन करेंगी। इसके लिए कांग्रेस ने दावा किया है कि यह उसके घोषणापत्र के प्रस्ताव से लिया गया है।
लेकिन छोटे उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों की राय में इन योजनाओं की शर्तें और प्रक्रियाएं योजना के क्रियान्वयन में बाधा पैदा कर सकती हैं। जैसे, पहली बार नौकरी करने वाले कर्मचारियों के लिए प्रोत्साहन योजना, जिसमें 15,000 रुपये की सब्सिडी तीन किस्तों में दी जाएगी; दूसरी किस्त तभी देय होगी जब कर्मचारी अनिवार्य ऑनलाइन वित्तीय साक्षरता पाठ्यक्रम पूरा कर लेगा। इसमें सरकार ने एक पेच फंसा रखा है कि अगर पहली बार काम करने वाले व्यक्ति की नियुक्ति 12 महीने के भीतर खत्म हो जाती है तो नियोक्ता को सब्सिडी वापस करनी होगी। अगर कर्मचारी 10 महीने में नौकरी बदलता है तो उसे पहले ही इस योजना का लाभ मिल चुका है, लेकिन नियोक्ता को लागत वहन करनी होगी। श्रम विशेषज्ञों का कहना है कि बहुत कम छोटे नियोक्ता यह जोखिम उठाने को तैयार होंगे। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन की योजना के तहत न्यूनतम 50 लोगों या मौजूदा कर्मचारियों के 25% को काम पर रखने की आवश्यकता है, जो कि किसी भी फर्म के लिए मामूली लाभ के बदले में एक बार में काम पर रखे जाने वाले लोगों की एक महत्वपूर्ण संख्या है।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमित बसोले का मानना है, “अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन न हो पाने का एक बड़ा संरचनात्मक कारण है, और वह है अपर्याप्त मांग, जो कम खपत के कारण होती है… और निजी निवेश की कमी। और अगर ऐसा होता है, तो ये लागतें मायने नहीं रखेंगी।” उनकी राय है कि इन योजनाओं को नियोक्ताओं के उस खास समूह को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए, जिनके लिए ऐसी लागतें मायने रखती हैं, आमतौर पर ये छोटे मार्जिन वाली छोटी फर्में होती हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि रोजगार सृजन एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) क्षेत्र में, श्रम प्रधान क्षेत्रों में, छोटे शहरों में होना चाहिए, न कि शीर्ष 500 कंपनियों में। जरूरत है कि वहां मजदूरी बढ़ाई जाए, एमएसएमई में पैसा डाला जाए। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ग्रामीण रोजगार योजना, मनरेगा में मजदूरी बढ़ाना और शहरी श्रमिकों के लिए एक समान रोजगार गारंटी योजना बनाकर के जरिये खपत बढ़ाकर मांग को प्रोत्साहित करना चाहिए।