मक़बूल फ़िदा हुसैन के चित्रों को निशाना बनाना बंद करो!

 

जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यालय ने मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को निशाना बनाने की घोर निन्दा की

22 जनवरी 2025 को दिल्ली की एक अदालत ने विख्यात भारतीय चित्रकार, स्मृतिशेष मक़बूल फ़िदा हुसैन के दो चित्रों को ज़ब्त करने की अनुमति दी है। हाल ही में एक वकील ने उक्त चित्रों को धार्मिक भावनाएँ आहत करने वाला बताते हुए शिकायत दर्ज की थी। कला दीर्घा पर एफ़आईआर दर्ज करने की माँग पर अदालत ने अपना आदेश अभी सुरक्षित रख लिया है।

उल्लेखनीय है कि डीएजी (देल्ही आर्ट गैलरी), नयी दिल्ली द्वारा अक्टूबर-दिसंबर 2024 में एक प्रदर्शनी ‘हुसैन : द टाइमलेस मॉडर्निस्ट’ आयोजित की गयी थी। हुसैन के लम्बे और बेहद सक्रिय रचनात्मक जीवन के विविध चरणों के चित्रों में से, जिन्हें हज़ारों दर्शकों ने देखा और सराहा, दो को इन शिकायतकर्ता ने हिंदू देवताओं के प्रति अपमानजनक बताया था।

याद रखा जाना चाहिये कि स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक चर्चित भारतीय चित्रकार के प्रति सांप्रदायिक ताक़तों ने लम्बे समय तक नफ़रती प्रचार चलाया था। जन्मना मुसलमान होने के कारण हिंदू मिथकों के उनके चित्रांकनों पर व्यर्थ विवाद खड़े किये गये थे। देश की विभिन्न अदालतों में अपने विरुद्ध लाद दिये गये अनेक मुक़दमों से त्रस्त क़रीब 90 बरस के हुसैन ने तब आत्म-निर्वासन की राह चुनते हुए देश छोड़ दिया था। 2011 में 95 की उम्र में लंदन में निधन हो जाने तक वे अपने वतन नहीं लौट सके थे।

उस दौरान सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी उपद्रवियों से डरकर न केवल सरकारी कला अकादमियों और संसाधनों, बल्कि हुसैन की कलाकृतियाँ बेच कर सम्पन्न हुईं व्यावसायिक कलादीर्घाओं ने भी उनका अघोषित बहिष्कार कर दिया था।

विगत वर्षों में ऐसी अनेक घटनाएँ हुई हैं, जब कला-संस्थानों, अकादमियों, विश्वविद्यालयों में विविध कलाभिव्यक्तियों पर संकीर्ण फ़िरकापरस्त सोच ने हिंसक हमले किये हैं। लगभग सभी मामलों में शासन-प्रशासन का रुख भी कला-विरोधी और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य-विरोधी ही दिखायी दिया है।

वर्तमान प्रसंग ख़बरों में भी पर्याप्त जगह और चर्चा नहीं पा सका है। सोशल-मीडिया पर भी इस बाबत लगभग ख़ामोशी है। आयोजक कलावीथिका ने एक रस्मी वक्तव्य ज़रूर जारी किया है किंतु कला-जगत से इस पर एकजुट प्रतिक्रिया आती नहीं दिखी है। आक्रामक हिंदुत्व को मिलती राजनीतिक शह से भयग्रस्त कलाकारों की आत्म-सेंसरशिप हमारे कला-इतिहास और सांस्कृतिक जगत के लिए नुक़सानदेह है। लोकतांत्रिक देश में कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्रों में असहमति की आवाज़ों और निर्भिक अभिव्यक्तियों का सम्मान ज़रूरी है, जो विगत दस-ग्यारह वर्षों में निरंतर घटता चला गया है।

जनवादी लेखक संघ हुसैन की कलाकृतियों को, और सामान्य रूप से कलाभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निशाना बनाने की हिंदुत्ववादी राजनीति की भर्त्सना करता है और यह उम्मीद करता है कि प्रशासन तथा न्यायालय इस राजनीति के खिलाफ़ संविधानसम्मत अधिकारों की रक्षा का अपना दायित्व निभायेंगे।