जब एक विदुषी को सीमाओं ने रोक दिया
प्रो. फ्रांसेस्का ओरसिनी और भारत की बौद्धिक प्रतिष्ठा पर प्रश्न
विश्वगुरू भारत क्या अब बातचीत से डरने लगा है?
कुमार सौवीर
अगर आप टूरिस्ट-वीजा पर वेनिस जाएंगे तो सडक के बजाय जल-यातायात पर जानकारी लेंगे। हॉलीवुड में फिल्म की तकनीकी जानकारी जुटायेंगे, लंदन में टेम्स नदी के पुनर्जन्म पर बात करेंगे, अमरीका या आस्ट्रेलिया जाएंगे तो पता करेंगे कि वहां अंग्रेजों का शासन कैसा हुआ। चीन जाएंगे, तो विकास की हकीकत जानेंगे। वगैरह-वगैरह। फिर अगर हिन्दी की कोई प्रोफेसर भारत आयेगी, तो वह हिन्दी के बारे में ही तो बात करेगी। लेकिन भारत में उल्टा हो गया। दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर 21 अक्तूबर 2025 को एक ऐसी घटना घटी जिसने न केवल अकादमिक जगत को झकझोर दिया, बल्कि भारत की सांस्कृतिक छवि पर भी एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया।
लंदन के प्रतिष्ठित एसओएएस विश्वविद्यालय की हिंदीविद और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफेसर फ्रांसेस्का ओरसिनी को भारत में प्रवेश से रोक दिया गया। एयरपोर्ट पर उन्हें बताया गया कि उनका नाम “ब्लैकलिस्ट” में है, और उसी के आधार पर उन्हें वापसी की फ्लाइट से लंदन लौटा दिया गया। वजह अब तक स्पष्ट नहीं की गयी। सरकार खामोश है, और एकओएएस मुंह ढांपे।
सरकारी सूत्र बताते हैं कि प्रो ओरसिनी को मार्च 2025 में ब्लैकलिस्ट किया गया था। सात महीना पहले सरकार ने कहा था कि ओरसिनी ने अपने पिछले दौरे में टूरिस्ट वीज़ा की शर्तों का उल्लंघन किया, यानी कि “पर्यटक” होते हुए उन्होंने भारत में शोधकार्य किया। पर इस कथन के समर्थन में न तो कोई लिखित आदेश सार्वजनिक किया गया, न ही यह बताया गया कि क्या उन्हें इस निर्णय की जानकारी दी गई थी। और यहीं से यह मामला केवल एक इमिग्रेशन कार्रवाई नहीं रह जाता। यह एक गंभीर प्रशासनिक अपारदर्शिता का उदाहरण बन जाता है।
अब ज़रा सोचा जाए एक भाषा-शिक्षक, एक शोधकर्ता, जो हिंदी साहित्य और भारतीय संस्कृति पर अध्ययन करती है, अगर भारत आती है और यहाँ के लेखकों, कवियों या संस्थानों से संवाद करती है, तो वह आखिर और क्या करेगी? क्या सरकार सचमुच यह चाहती है कि हिंदी भाषा पर शोध करने आए लोग केवल ताजमहल देखकर लौट जाएँ?
हां, भारत के कानून के हिसाब से टूरिस्ट वीजा के बावजूद शोध करना दंडनीय है। तो सवाल यह भी बनता है कि जब वह पहली बार वीज़ा के लिए आवेदन कर रही थीं, तो उनके उद्देश्य का उल्लेख देखकर ही सरकार ने उन्हें रिसर्च वीज़ा क्यों नहीं दिया? या क्या यह सरकार का दोहरा रवैया है कि पहले अनुमति देना, फिर उसी पर दंड देना?
और अगर सरकार का दावा सही है कि मार्च में उन्हें ब्लैकलिस्ट किया गया, तो फिर उस समय उन्हें सूचना क्यों नहीं दी गई? ब्लैकलिस्टिंग की सूची में नाम डाल देना, और व्यक्ति को उसके अगले दौरे पर अचानक रोक देना, किसी लोकतांत्रिक शासन की निष्पक्ष प्रक्रिया नहीं कहलाती। यह तो ठीक वैसा है जैसे किसी अदालत का आदेश हो, पर आरोपी को कभी बताया ही न गया कि उस पर मुकदमा चल भी रहा है।
यहाँ सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि सरकार ने अपने कदम का कोई औपचारिक बयान तक नहीं दिया। न विदेश मंत्रालय, न गृह मंत्रालय, न विश्वविद्यालय अनुदान आयोग। किसी ने भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि इस रोक की वजह क्या थी। और उधर अंतरराष्ट्रीय अकादमिक समुदाय के विद्वान इसे “बौद्धिक असहिष्णुता” की श्रेणी में रख रहे हैं। कुछ ने कहा कि यह “अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला” है, जबकि कुछ ने इसे “भारत के ज्ञान-संवाद पर आत्मघाती चोट” बताया।
भारत और ब्रिटेन के बीच संबंधों का यह पहला ऐसा प्रसंग नहीं है जहाँ किसी शोधकर्ता को वीज़ा या एंट्री से रोका गया हो। इससे पहले क्रिस्टोफ जैफरलो, ऑड्री ट्रश्के, डेबोरा बेकर जैसे कई शोधार्थियों को भी ऐसे ही प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था। हर बार कारण वही कि “वीज़ा उल्लंघन”। पर असल में यह उल्लंघन था या असहजता, यह प्रश्न बार-बार अनुत्तरित रह गया।
कूटनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मामला शायद किसी राजनयिक संकट में नहीं बदलेगा, लेकिन इसके सांस्कृतिक प्रभाव गंभीर हैं। भारत लंबे समय से यह दावा करता आया है कि वह ज्ञान, संवाद और वैचारिक खुलापन का प्रतिनिधि देश है। परंतु जब वही देश एक हिंदी-शिक्षक को “पर्यटक” कहकर रोक देता है, तो यह छवि दरकने लगती है।
ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में हिंदी और भारतीय अध्ययन के छात्र इस घटना के बाद सशंकित हैं कि क्या भारत अब शोध के लिए खुला देश रह गया है या नहीं। और अगर विदेशी विश्वविद्यालयों में भारत-केन्द्रित शोध घटता है, तो यह केवल विदेशी विद्वानों का नुकसान नहीं होगा। यह भारत की सॉफ्ट पावर, उसकी सांस्कृतिक पहुंच और वैश्विक बौद्धिक साझेदारी का नुकसान होगा।
सरकार यह कह सकती है कि “वीज़ा नियमों का उल्लंघन किसी के लिए भी अस्वीकार्य है।” लेकिन सवाल यह है कि क्या नियमों को लागू करने में विवेक और संवाद की कोई जगह नहीं रह गई? क्या हर टूरिस्ट-वीज़ा धारक, जो किताब पढ़ने या किसी लेखक से मिलने जाता है, अपराधी हो गया? और यदि ओरसिनी का कार्य सचमुच “शोध” की श्रेणी में आता है, तो क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि उनकी मंशा में कोई वाणिज्यिक या राजनीतिक उद्देश्य नहीं था, वह तो भाषा और साहित्य की सेतु थीं, भारत और यूरोप के बीच एक संवाद का पुल।
अब यह मामला केवल फ्रांसेस्का ओरसिनी का नहीं रह गया है। यह प्रश्न है कि क्या भारत विचारों से डरने लगा है? क्या हमारे लिए किसी बाहरी आवाज़ का आना अब असहज हो गया है? क्या हम संवाद से ज़्यादा नियंत्रण में भरोसा करने लगे हैं?
सरकार को स्पष्ट करना होगा कि उसने किस प्रक्रिया से यह निर्णय लिया, कौन-सा प्रावधान लागू किया, और क्यों उसे जनता के सामने बताना उचित नहीं समझा गया। अगर यह निर्णय विधिसंगत है, तो पारदर्शिता उसमें विश्वास बढ़ाएगी; और अगर यह निर्णय जल्दबाज़ी या पूर्वाग्रह से प्रेरित है, तो वही पारदर्शिता उसे सुधारने का अवसर भी देगी।
भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी सबसे बड़ी शक्ति न हथियार है, न संसाधन। उसकी सबसे बड़ी शक्ति उसका ज्ञान, उसकी भाषा, और उसकी बातचीत की परंपरा है। जिस दिन यह परंपरा संदेह और भय के अधीन हो जाएगी, उस दिन भारत की रोशनी भीतर से मद्धम पड़ने लगेगी।
सरकार को अब सभी पक्षों को जवाब देना होगा — न सिर्फ विद्वान को बल्कि विश्वविद्यालय को, और अंततः समाज को जो इन शोध-विचारों से लाभान्वित होता है। प्रश्न ये हैं: क्या वीज़ा-श्रेणी बनाते समय गतिविधियों की व्याख्या पर्याप्त थी? क्या ब्लैकलिस्टिंग के समय सूचना-प्रक्रिया की पारदर्शिता थी? और क्या विश्वविद्यालयों तथा विद्वानों को आगे आने से रोका जा रहा है कि आने वाले शोध-काल में कोई ‘अनचाही’ टिप्पणी न दे दें?
भारत का सबसे बड़ा सौदेबाजी हथियार उसका ज्ञान-संवाद, उसकी भाषा-संपदा और उसका अंतरराष्ट्रीय संवाद है। यदि हम इन हथियारों को खुद बंद कर लें, तो परिणामतः हम अपने संसाधनों को निष्क्रिय कर देंगे। प्रो. ओरसिनी का मामला इसलिए सिर्फ व्यक्तिगत नहीं है — यह “क्या भारत अब खुला मंच है?” का परीक्षण है। जब एक विद्वान “पर्यटक” की तरह देखा जाए, और प्रवेश से रोका जाए — तब हमें चिंतित होना चाहिए कि कहीं हम विचारों से नहीं, बल्कि विचार-विक्रिया से डरने लगे हैं।
अब यह समय है, न मूल्यांकन के बाद बल्कि सर्वदर्शी जवाबदेही के लिए। यदि सरकार, विश्वविद्यालय और शोध-समुदाय ने आज जवाबदेही नहीं दी, तो कल हम इस कथन को सुनेंगे: “भारत में शोध करने वाला सुरक्षित नहीं है”। और तब प्रभाव होगा, तुरंत नहीं, पर निश्चित रूप से।
जब किसी विद्वान को बिना कारण प्रवेश न मिले, तो अगली यात्रा योजना को संशय घेर लेगा। इस प्रकार भारत-आधारित शोध, भाषा-विस्तार और सांस्कृतिक संवाद की प्रक्रिया धीरे-धीरे सुस्त पड़ सकती है। और सरकार की ओर से कोई भी स्पष्टीकरण न जारी करने से सरकारी कार्यशैली बदबू करने लगेगी।
भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि अक्सर उसकी प्राचीन सभ्यता, बहुभाषी संस्कृति और सक्रिय शैक्षणिक-मंच के रूप में वर्णित होती है। लेकिन 21 अक्टूबर 2025 को दिल्ली एयरपोर्ट पर जो हुआ — अर्थात् एक प्रतिष्ठित हिन्दी-विद्वान के भारत प्रवेश से अचानक रोके जाने की घटना — उसने यह छवि झटके में हिलायी है। प्रो. फ्राँसेस्का ओरसिनी को पाँच-वर्षीय वीज़ा के बावजूद प्रवेश न मिलने का निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह केवल एक व्यक्ति की समस्या नहीं है: यह भारत की ज्ञान-स्वतंत्रता, विचार-आज़ादी और वैश्विक संवाद पर सवाल है।
यह प्रश्न सिर्फ नियामक प्रक्रियाओं के लिए नहीं, बल्कि भारत-विज्ञान-निधियों, विश्वविद्यालयों और संवाद-मंचों के लिए है। विदेशी विश्वविद्यालयों की ओर से हिंदी, भारतीय धर्म, संस्कृति और सामाजिक अध्ययन पर आए शोधकर्ताओं का अवरोध यह संदेश दे रहा है: “यह क्षेत्र अब खुला नहीं, बल्कि नियंत्रित है।” और जब यह संदेश वैश्विक शैक्षणिक समुदाय में पहुँचता है, तो परिणामस्वरूप भारत-के-विषय पर होने वाला शोध कम हो सकता है — जो दीर्घकाल में भारत की सॉफ्ट-पावर को कमजोर करता है।
ब्रिटेन-भारत संबंधों के संदर्भ में यह मामला सीधे राजनयिक विवाद का कारण नहीं बनेगा, लेकिन उस संबंध की शैक्षणिक/संस्कृतिक जटिलता पर असर अवश्य डालेगा। मान लें कि एक ब्रिटिश विश्वविद्यालय में हिंदी-साहित्य का विभाग है।

लेखक – कुमार सौवीर

फ्रांसेस्का ओरसानी के भारत-प्रवेश पर रोक का मुद्दा दुर्भाग्यपूर्ण है। कम से कम साहित्य के क्षेत्र में किसी भी देश में जनता यह उम्मीद नहीं करती कि विद्वानों के आवागमन और साहित्यिक विमर्श एवं शोध पर किसी किस्म की पाबंदी लगाई जाए? क्योंकि यह कैसा मेरा पद क्षेत्र है जिससे किसी देश की सुरक्षा का मसाला नहीं जुड़ा हुआ है। शताब्दियों पहले से भारत में विदेशी विद्वान आते-जाते रहे हैं व्हेन सॉन्ग और अलबरूनी का नाम अक्सुसर सुनने में आता है? प्राचीन और मध्यकालीन भारत के बारे में हम ज्यादातर विदेशी विद्वानों के जरिए ही जान पाए हैं किस दौर का भारत कैसा था? यहां का समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था कैसी थी? इसका ऑथेंटिक विवरण उन विद्वानों की लिखतों के जरिए ही हमें मिल पाता है। और ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने किसी विद्वेष और कोई पक्षपात पूर्ण दृष्टि से भारत को देखा समझा है? बल्कि हम कह सकते हैं कि उन विदेशी यात्रियों की दृष्टि जिज्ञासा पूर्ण ही रही होगी, तभी वह ऐसा कर पाए हैं, लिख पाए हैं!