व्यंग्य :
…तो यूनिकार्न स्टार्टअप्स की ब्रह्मांडीय ऊर्जा कैसे जागेगी?
विजय शंकर पांडेय
कई मीडिया संस्थानों के मुखिया रह चुके हैं शेखर गुप्ता। एक वेबसाइट पर गुप्ता जी की एक टिप्पणी पढ़ते ही दिल से एक आह सी निकली—हाय रे, सफलता! जी हां, सफलता वह मायावी चिड़िया है, जिसे पकड़ना किसी की भी हसरत हो सकती है, मगर कुछ लोग सिर्फ सुबह 9 से शाम 5 के बीच ही उसके पंख देख पाते हैं। और फिर आते हैं हमारे “कामयाबी 24/7” क्लब के संरक्षक— नारायण मूर्ति-सुब्रह्मण्यम और उनके समर्थक, जिनके अनुसार अगर आपकी नींद पूरी हो रही है, तो आप देशद्रोही नहीं, तो कम से कम अर्थव्यवस्था के दुश्मन ज़रूर हैं।
काम के घंटों पर लगाम के पक्ष में सरकार भी नहीं
कुछ माह पहले बड़ी सुर्खिया बंटोरा था लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यन का यह बयान – 90 घंटे काम करो, पत्नी को कितनी देर निहारोगे? सुब्रह्मण्यन के इस बयान के बाद बड़ी हायतौबा मची थी। उससे पहले इन्फोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दे चुके थे। वर्क लाइफ बैलेंस के मुद्दे पर इसके बाद सोशल मीडिया से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया तक में जमकर बहस हुई। बड़ी हायतोबा मची। मगर सच तो यह है कि बजट 2025 से पहले केंद्र सरकार ने अपने इकोनॉमिक सर्वे में कहा था कि हफ्ते में काम के घंटों पर लगाम लगाना मैन्युफैक्चरर्स को नुकसान पहुंचा रहा है। मगर इस बात पर कम लोगों का ध्यान गया।
नेटफ्लिक्स पर कोई असफलता का महाकाव्य देख लेता है
वैसे शेखर गुप्ता ने बिलकुल सही कहा, उद्यमी और संपदा सृजक, वह महान आत्माएं हैं, जो एक्सेल शीट में सांस लेते हैं और अपने कर्मचारियों के सपनों को पॉवर प्वाइंट में कन्वर्ट कर देते हैं। लेकिन अफ़सोस! यह कृतघ्न समाज, उन्हें उतना प्यार नहीं देता, जितना उसे रियलिटी शो के जजों से होता है। अब आइए इस तथाकथित “लोअर मिडिल क्लास इन्कम” वाले समाज पर भी थोड़ा ध्यान दें, जो दिन भर की खटर-पटर के बाद घर आकर मूर्ति-सुब्रह्मण्यम की प्रेरणादायक लिंक्डइन पोस्ट नहीं पढ़ता, बल्कि नेटफ्लिक्स पर कोई असफलता का महाकाव्य देख लेता है। क्या इन्हें नहीं पता कि वे देश की प्रगति में बाधक हैं? यदि ये लोग रात 2 बजे तक धक्कामुक्की नहीं करेंगे, तो यूनिकार्न स्टार्टअप्स की ब्रह्मांडीय ऊर्जा कैसे जागेगी?
कॉर्पोरेट वालों की मलामत करना आसान है
गुप्ता जी के इस विचार में बड़ा दर्शन छिपा है—“कॉर्पोरेट वालों की मलामत करना आसान है।” बिल्कुल! जैसे रोज़ दाल में नमक डालना आसान है। मगर कोई यह नहीं देखता कि वो सीईओ साहब, जो हफ़्ते में छह दिन बोर्ड मीटिंग करते हैं और सातवें दिन लिंक्डइन पर ‘ग्रैटिट्यूड पोस्ट डालते हैं, असल में इस देश की रीढ़ हैं। रीढ़ भी ऐसी जो कभी-कभी बोनस न मिलने पर खुद ही टेढ़ी हो जाती है। और उद्यमियों की बात करें तो वे आज के युग के ऋषि हैं। वे जंगल में तप नहीं करते, बल्कि कोवर्किंग स्पेस में बैठे जूम कॉल में आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। इनके दर्शन में “बर्नआउट” को “बैज आफ आनर” समझा जाता है और नींद को “प्रोडक्टिविटी किलर।” लेकिन जब समाज इन्हें “सामाजिक असंवेदनशीलता” के चश्मे से देखता है, तो यह प्रगतिशीलता की सीधी पीठ पर करारी चपत है। इसलिए, हे समाज! अब जागो। अपनी नींद और संतुलित जीवन की यह मूर्खता त्यागो।
जब कोई कहे कि “9-5 से बाहर भी ज़िंदगी है,” तो पूछो
अपने बच्चों को सिखाओ कि सपनों की असली उड़ान तभी भरती है, जब तुम अपने बॉस के ईमेल का जवाब आधी रात को भी दे सको। वरना तुम इसी “निम्न-मध्यवर्गीय आय” की जंजीरों में जकड़े रहोगे, जहाँ तुम वीकेंड का इंतज़ार करते हुए सोमवार को कोसते रहोगे। और हां, अगली बार जब कोई कहे कि “9-5 से बाहर भी ज़िंदगी है,” तो पूछो—“क्या उस ज़िंदगी में ESOP अर्थात कंपनी में हिस्सेदारी लेने का कर्मचारियों को मौका हैं?