संजय श्रीवास्तव की मसूरी डायरी 3: जहां की हवाओं में जादू है, फिज़ाओं में संगीत

मसूरी डायरी 3

जहां की हवाओं में जादू है और फिजाओं में संगीत

संजय श्रीवास्तव

मैं कोई 15 साल पहले मसूरी की बहन कही जाने वाली छोटी सी बस्ती लंढोर गया था. तब जब मैने मसूरी में टैक्सी वाले लंढोर-लाल टिब्बा चलने को कहा, तो वो हैरान होकर बोला, वहां कोई नहीं जाता, सब यहीं माल रोड पर घूमते हैं. आप वहां क्यों जा रहे हैं. खैर 500 रुपए में तब उससे सौदा पक्का हुआ और हमने उस स्वर्ग का आनंद लिया, जिसे लंढोर और थोड़ा आगे बढ़ो तो लाल टिब्बा कहते हैं.

तब वहां वाकई भीड़ नहीं थी. चार दुकान के अलावा कम से कम लाल टिब्बा के पिछले ट्रैक पर कोई दुकान नहीं थी. पक्षियों का एंबीएंस और हवा बहुत सुहानी थी. अबकी बार वहां ज्यादा ही भीड़ थी. ना जाने कैसे दो मंजिला लाल टिब्बा व्यू के नाम से एक खाने-पीने की दुकान खुल चुकी थी, इस जगह उसकी अनुमति कैसे मिली, यही हैरानी वाली बात थी.

हालांकि यहां की हवा में अब भी स्वर्गिक आनंद है और फिजाएं भी वैसी ही दिलकश. बस भीड़ ज्यादा. नाहटा एस्टेट में तब भी ताला पड़ा था और ये वीरान था. आज भी वैसा ही है. नाहटा एस्टेट की कहानी भी कुछ दिलचस्प नहीं. ये कोलकाता के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता हरक चंद नाहटा की प्रापर्टी है, जिनका बंगाल सिनेमा में बड़ा नाम था, बाद में उन्होंने बॉलीवुड की भी कुछ फिल्में बनाई. उनकी और इस प्रापर्टी की दिलचस्प कहानी बाद में. पहले लंढोर का आनंद ले लेते हैं.

—–

भोर जब ताजगी भरी सुबह में बदलने को होती है..जादुई समां संगीत सुनाता है.. आसमान कालिमा पर नीला – आसमानी रंग पेंट करने लगता है, तब लंढोर का खुशनुमा स्वर्ग जैसा इलाका कुहासे, हरियाली, पहाड़ और लाल छतों के बीच ध्यान योग में डूबा सा लगता है.

लंढौर यानि मसूरी की ट्विन सिटी. शांत. शुद्ध हवा, ऊंचे पहाड़ों की कतारें, वादियां, चर्च, देवदार के हजारों वृक्षों का सम्मोहित कर देने वाला संसार. कहा जाता है जब अंग्रेज यहां आये तो मोहित हो गये. उन्होंने इस शांत स्वर्ग में कॉटेज बनाये, एस्टेट खड़े किये. यहीं के होकर रह गये. बाद में लंढोर साहित्यकारों, कवियों और दार्शनिकों की पसंदीदा स्थली बनी.

यहां की फिजाओं में संगीत है और खुशबु. एक भरपूर सुकून भी. ये हसीन है. ये अलौकिक है. स्वर्गिक है. शायद इसलिए, क्योंकि यहां प्रकृति से ज्यादा छेडछाड़ नहीं हुई. हालांकि इसकी गारंटी नहीं कि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि शायद विकास के नाम पर यहां भी ऐसा होने वाला है. यहां चुनिंदा लोग रहते हैं. बौद्ध धर्म के रंगबिरंगी पताकाओं के बीच ये ऊपर अभिनेता विक्टर बनर्जी का आशियाना है. जिन्होंने यहां से 200 साल से ज्यादा कब्रिस्तान के ठीक बगल में घर बनवाया. इसका नाम पर्सोनिक. जब हम इनके घर के नीचे खड़े होकर इसकी फोटो खींच रहे थे, तब हमें नहीं मालूम था कि ये घर विक्टर बनर्जी का है. पिछली बार जब यहां आया था, तब वह अपनी खुली जीप में गुजरते दीख गए थे.

जैसे जैसे आप इसके सीमेंटनुमा संकरे घुमावदार रास्तों से ऊपर की ओर बढेंगेे, ये इलाका अपने सुहानेपन की परतें खोलने लगेगा। देवदार, हिमालयन ओक, चीड़ पाइन, ब्लू पाइन और तमाम पहाड़ी पेड़-पौधों के बीच फूलों की छटा मिलेगी. पंक्षियों का एंबियंस होगा. ये जगह एक जीती जागती बर्ड सेंचुरी भी है. यहां दिनों दिन पंक्षियों की प्रजातियां बढ रही हैं. मोटे तौर पर यहां 350 पक्षियों की प्रजातियां हमेशा मिल जाएंगी.

कहा जाता है नाहटा एस्टेट यहां का सबसे हाई पाइंट है, यहां से सामने हिमालय रेंज की प्रसिद्ध चोटियां नजर आ जाती हैं. जाड़े के दिनों में ये बर्फ से ढकी मिल जाएंगी.ये इलाका तिब्बत का करीबी पड़ोसी भी कहा जाता है.

अंग्रेज सेना का अफसर कैप्टेन यंग 19वीं सदी के शुरू में यहां पहुंचा. यहां सबसे पहला पक्का घर भी कैप्टन यंग का ही बना था. फिर यहां गोरखा सैनिकों की छावनी बनी. इस छोटे, खूबसूरत और शांत कस्बे को 1827 में ब्रिटिश आर्मी ने बसाया. ये मसूरी से करीब 300 मीटर और ऊपर है. समुद्र की सतह से 7500 मीटर से ज्यादा. देवदार जहां बहुतायत में होते हैं, वैसे भी तब वो पूरे माहौल को शांति से भरे जादुई वातावरण में बदल देते हैं, सो यहां भी है.
यहां एक साधारण से घर में प्रसिद्ध लेखक रस्किन बांड भी बचपन से ही रहते हैं. उनकी तमाम कहानियों में यहां की खूबसूरती, निश्छलता झांकती है. टाम अल्टर नहीं रहे.

यहां हर एस्टेट की अपनी कहानी है. जो यहां सबसे पहले मालिक बने अंग्रेजों से जुड़ी हैं. अब तो खैर ये इलाका उद्योगपति या कारोबारी खरीद रहे हैं. सचिन तेंदुलकर ने भी पिछले दिनों यहां एक आशियाना खरीदा था, जो टूट गया. एनडीटीवी के पुराने मालिक प्रणव राय-राधिका राय की भी एक बड़ी प्रापर्टी यहां है. फिल्मकार विशाल भारद्वाज भी रस्किन के पडोसी हैं.

वर्ष 1840 में बने सेंट पॉल चर्च के अंदर घुसिए तो आंतरिक सादगीभरी सजावट मुग्ध करती है. चर्च के ठीक बगल में है छोटा सा बाजार चार दुकान। ये चार दुकानें डेढ सौ साल पहले से हैं. टिप टॉप टी शाप के मालिक विपिन प्रकाश बताते हैं कि ये दुकान उनके पितामह ने 130 साल पहले खोली थी. सप्ताहांत में इन दुकानों पर करीबी स्कूल वुडस्टाक के बच्चों की भीड़ सजती है.

वैसे आपको बता दूं कि 60 के दशक तक मेरे बाबा और उनके भाइयों ने मिलकर यहां एक स्टेशनरी की दुकान खोली थी. यहीं लंढोर में किराया का मकान लेकर वो रहते थे. लेकिन वो बीती कहानी है.

वैसे ये तो पक्का मान लीजिए कि लंढौर और लाल टिब्बा की हवा और माहौल में आते ही मूड बदल जाता है. तनाव उडनछू. शरीर में न जाने कहां से स्फूर्ति आने लगती है. थकावट काफूर. दिमाग तरावट का अनुभव करता है. लंढोर में भीड़ बढ़ रही है लेकिन तब भी यहां का एक संगीत है. उसे महसूस करना चाहिए.