व्यंग्यः
अब सड़क पर चलना, तिरंगा उठाकर रणभूमि में कूदने जैसा
विजय शंकर पांडेय
एलपीजी, पेट्रोल और डीजल वगैरह की कीमतों ने जैसे ही छलांग मारी, वैसे ही जनता की सांसें अटक गईं। अब इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है। आखिर ये महंगाई है, कोई आम बुखार नहीं, जो दवा से ठीक हो जाए। ये तो एक महामारी है—अदृश्य, मगर असरदार! टूथपेस्ट की तरह एक बार ट्यूब से बाहर निकल गई तो कोई आप्शन नहीं बचता।
जब बाइक बीच रास्ते में पेट्रोल पी गई हो और धक्का देने की नौबत आ जाए, तो समझिए किस्मत भी मंदी में चल रही है। लेकिन असली समझदारी तो तब आती है जब आप पहले पहिए की हवा खुद ही निकाल देते हैं। क्यों?
ताकि लोग सोचें कि पेट्रोल नहीं खत्म हुआ है, पंचर है।
अब देखिए, जहां लोग पहले हँसते थे—“पेट्रोल डलवाया क्यों नहीं?”, वहीं अब सहानुभूति से कहते हैं—“अरे यार, बड़ा खराब वक्त है, पंचर हो गया बेचारे का!” बेइज्जती से बचाव, और इमोशनल सपोर्ट फ्री में! यह है असली ‘सड़क पर जीवन कौशल’—जहां हवा कम, मगर हवाबाजी से इज़्ज़त बची रहती है।
इसलिए सरकार डिजिटल इंडिया का डिजिटल दंड का नुस्खा ले आई है। अब सड़क पर चलना नहीं, तिरंगा उठाकर रणभूमि में कूदने जैसा हो गया है। पहले ट्रैफिक पुलिस सीटी मारती थी, अब मोबाइल बीप करता है —”₹500 कटे आपके खाते से, हेलमेट नहीं पहने थे!”
रामू काका सुबह दूध लेने निकले, वापसी तक ₹1500 का झटका लगा — एक बार हेलमेट नहीं, दूसरी बार दूध वाला बैग ओवरलोड! परिवहन विभाग अब माया का जादू है — न रुको, न झुको, बस बैंक बैलेंस को छोटा होता देखो। लोग अब गाड़ी से कम, बैलेंस देखकर सफर तय करते हैं। पत्नी पूछी, “कहां जा रहे हो?” पति बोले, “इतनी ही रकम बची है, तो बस गेट तक!” बधाई हो! अब चालान से पहले अपराध का पछतावा नहीं, बल्कि बैलेंस चेक करना सीखिए। चलिए घर में ही रहिए। पेट्रोल डीजल का लफड़ा खत्म। डिजिटल इंडिया में फाइन नहीं कटता, आत्मा कट जाती है!
सरकार कहती है, “डरो मत, बस डटे रहो।” और सच कहें तो इससे बेहतर सलाह और क्या हो सकती है? महंगाई से बचना है तो बाहर जाना ही नहीं है। गाड़ी में पेट्रोल नहीं है? बहुत बढ़िया! अब साइकिल निकालिए, वो भी नहीं है? तो पैदल चलिए। इससे पेट्रोल का नहीं, आपके मोटापे का भी समाधान हो जाएगा। फिटनेस और फाइनेंस—दोनों की चिंता एक साथ खत्म!
अब कपड़ों की बात करें। ब्रांडेड कपड़ों की कीमत सुनते ही होश उड़ जाते हैं। लेकिन चिंता मत कीजिए, सरकार की नई योजना है—‘फटे-पुराने पहनो, इज्ज़त बचाओ’। पुराने कपड़े फैशन में हैं, और अगर फटे हों, तो समझिए कि आप ‘ग्रामीण फैशन वीक’ के रनवे पर चल रहे हैं।
रोटी, कपड़ा और मकान—ये सपना था। अब बस “रोटी” पर फोकस कीजिए, वो भी एक वक़्त की। खाना उतना ही खाइए जितना जीवित रहने के लिए ज़रूरी हो। पेट भरने की कोशिश मत कीजिए, वरना जेब खाली हो जाएगी। ये इंटरमिटेंट फास्टिंग का दौर है, जो हेल्थ के लिए भी अच्छा है और वॉलेट के लिए भी। सरकार नहीं कह रही, लेकिन आपकी सेहत का पूरा ध्यान रख रही है—इसीलिए खाने का खर्च इतना बढ़ा दिया कि अपने आप डाइटिंग शुरू हो जाए।
अब सवाल उठता है कि जनता क्या करे? जवाब है—कुछ नहीं। सरकार खुद ही परेशान है, आपके बारे में 18-18 घंटे सोच-सोच कर, सो नहीं पा रही है। इसलिए विरोध करना व्यर्थ है। मोमबत्तियाँ जलाने का ज़माना गया। अब घर में दिए जलाइए, क्योंकि बिजली का बिल भी बेशर्मों की तरह बढ़ता जा रहा है।
हमारी जिम्मेदारी है कि हम महंगाई से लड़ें, सरकार से नहीं। सरकार हमारी है, और हम उसके हैं—बस जेब उसकी नहीं है। वो खुद कह रही है—”आपके पास जो है, वो भी हम ले लेंगे।”
तो आइए, इस महंगाई महामारी को अवसर में बदलें। व्रत रखें, उपवास करें, पुराने कपड़े पहनें और चलें पैदल। आप न केवल आर्थिक रूप से मजबूत होंगे, बल्कि आध्यात्मिक ऊँचाइयों को भी छू लेंगे।
और अंत में याद रखिए, ये सब ‘आत्मनिर्भर भारत’ की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है—जहाँ आत्मा निर्भर है, लेकिन जेब सरकार पर।