‘शेर’ की दहाड़: जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रचार पर शेख अब्दुल्ला की विरासत की छाप दिखी

शेख मोहम्मद अब्दुल्ला का प्रभाव उनके निधन के 40 साल से अधिक समय बाद आज भी यहां बारामूला में कुछ अर्थों में चुनावी विमर्श को गढ़ने का काम करता है। उनके उपनाम ‘शेर-ए-कश्मीर’ को फिर से नया रूप दिया जा रहा है और इसे एक नारे के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।

एकता का प्रचार करने के लिए उनके आदर्श का जिक्र किया गया और उनकी भावना को कश्मीरी पहचान और लचीलेपन के एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया।

मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि इस संसदीय क्षेत्र में चुनाव प्रचार देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘शेर आया’ का नारा न केवल नेशनल कॉन्फ्रेंस (जिस पार्टी की स्थापना अब्दुल्ला ने की थी) के लिए एक शक्तिशाली ‘युद्ध घोष’ के रूप में उभरा है, बल्कि अपने उम्मीदवारों को लोकप्रिय, शक्तिशाली, शाही और अजेय बताने के लिए एक इसके प्रतिद्वंद्वी भी इस ‘युद्ध घोष’ का इस्तेमाल कर रहे हैं।

बारामूला निर्वाचन क्षेत्र में 20 मई को पांचवें चरण में मतदान होना है। यह क्षेत्र चुनावी मुकाबले के लिए तैयार हो रहा है। यहां लगभग 17.32 लाख मतदाता 23 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला (जो जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला के पोते हैं) ने तीन मई को अपना नामांकन पत्र दाखिल किया। उन्होंने इसके बाद हजारों लोगों की रैली को संबोधित किया। इस दौरान उनका ‘देखो, देखो, शेर आया’ कहकर जोरदार स्वागत किया गया।

उमर ने अपने चुनावी भाषणों विशेषकर बारामूला शहर में एकता के संदेश का प्रचार करने के लिए अपने दादा का जिक्र किया। बारामूला शहर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ता दिवंगत मकबूल शेरवानी ने 1947 में कई दिनों तक पाकिस्तानी हमलावरों को गुमराह किया था ताकि भारतीय सेना उन्हें रोकने के लिए समय पर वहां पहुंच जाए।

इसके बाद शेरवानी को पाकिस्तानी हमलावरों ने बारामूला के मुख्य चौराहे पर मार दिया था। उमर का मुकाबला पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सज्जाद लोन, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के फयाज मीर और जेल में बंद निर्दलीय उम्मीदवार शेख अब्दुल राशिद से है जिन्हें ‘इंजीनियर राशिद’ के नाम से भी जाना जाता है।

शेख अब्दुल्ला एक लोकप्रिय नेता थे और वे कश्मीरी गौरव के प्रतीक थे। धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों पर चलने और राष्ट्रीय एकता के लिए लड़ने वाले शेख अब्दुल्ला ने आजादी से पहले ‘शेर-ए-कश्मीर’ (कश्मीर के शेर) की उपाधि अर्जित की थी।

इसके विपरीत उनके आदर्शों और विचारों का विरोध करने वाले लोगों और पार्टियों को ‘बकरा‘ कहा जाता था, जिसने उन दिनों जम्मू और कश्मीर में तीव्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए मंच तैयार किया। यह ‘शेर-बकरा’ विमर्श 1980 के दशक की शुरुआत तक कश्मीर में राजनीतिक चर्चा पर हावी रही।

संसद के पुस्तकालय में रखी गयी एक उल्लेखनीय पुस्तक (मोनोग्राफ) शेख अब्दुल्ला के योगदान पर प्रकाश डालती है, जिसमें उन्हें एक स्वतंत्रता सेनानी और एक सम्मानित राजनीतिक व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है।

भाजपा समर्थित जनता दल सरकार के दौरान लिखी गयी यह पुस्तक उपमहाद्वीप के इतिहास पर शेख अब्दुल्ला के प्रभाव को दर्शाती है।