मानव का पाखंड
ओमप्रकाश तिवारी
पुण्य कमाने के लिए
प्याऊं बनवाने वाले देश में
बोतलों में बिक रहा है पानी
लोगों की धार्मिकता में
कमी तो नहीं दिखती
शायद सूख रही है
संवेदना की सरिता
बाजार में खड़ा इन्सान
समाज में हो गया है बेमतलब सा
समाजसेवा अब धंधा है
पैसा हो गया है
बाजार का देवता
बेची और खरीदी जा सकती है हर वस्तु
भावनाओं और संवेदनाओं का भी
किया जा रहा है कारोबार
कुछ हो रहे हैं मालामाल
बहुतों की खिंच रही है खाल
तकनीक का फुन्तुरु
हाथों में थमाकर
खत्म कर दिया गया है
एक दूसरे से ऐतबार
मनुष्य के जीवन में
अनादिकाल से रहा है बाजार
सभ्यता के विकास में
निभाता रहा है अहम भूमिका
लेकिन अब बन गया है नियंता
पर्यावरण की चिन्ता के बीच
उपभोग के लिए मची है मारकाट
यह जानते हुए भी कि
उपभोग बढ़ने का मतलब है
पर्यावरण का सत्यानाश
लेकिन नहीं
आने वाली पीढ़ियों की चिन्ता करते हुए
बचाने की की जा रही है बात
जल-जंगल और जमीन को
मगर कुदरत के बहीखाते में
दर्ज किया जा रहा है
मानव का एक एक पाखंड
आने वाली पीढ़ियां
खुदाई में मिले अवशेषों में
इनकी करेंगी व्याख्या ।
(2016)