अजय शुक्ल एक लंबी कहानी लिख रहे हैं। यह कई पार्ट में होगी। पहला भाग प्रस्तुत है। कार्टून भी अजय जी ने ही मुहैया कराया है। आभार
पहला भाग
व्यंग्य
पटरीआकी-पटरीमाकी
अजय शुक्ल
बलभद्दर कई दिनों से अपनी रामकली से नाराज़ चल रहे थे। नयागंज में अपनी किराने की दुकान बढ़ा कर रात नौ बजे जब घर पहुंचते तो उनका स्वागत बड़ी बेरुखी से होता। 15 साल पुरानी पत्नी न तो मुस्कुराती, न ही यह पूछती कि दिन कैसा रहा। वे हाथ पांव धोकर आते तो चौके में पाटा पड़ा मिलता। सामने थाली रखी होती। कभी कद्दू की सब्जी मिलती तो कभी तोरी या टिंडे की। रोटियां भी चूल्हे से नहीं, कटोरदान से निकलतीं। तीन घंटे पहले बनी हुई।
खाने के बाद हाथ पोछने के लिए गमछा भी नहीं मिलता। वे अपनी धोती के सिरे से ही हाथ मुंह पोछते और बिस्तर पर जाकर लेट जाते। बच्चे पहले ही सो चुके होते। रामकली भी हाथ में कोई किताब लेकर आती। मुंह घुमाकर लेटती और बेडलाइट जलाकर किताब पढ़ने लगती।
उधर, बलभद्दर को किताबों से नफरत थी। वे मानते थे कि किताबें पढ़ने से औरत आवारा हो जाती है। उनके लिए रामचरित मानस औरत के लिए अंतिम किताब थी। हालांकि उन्होंने खुद कभी मानस का पाठ नहीं किया था। उनकी भावनाओं को रामकली जानती थी। इसीलिए 14 साल तक उसने भावनाओं का सम्मान किया। फिर उसने सम्मान बंद कर दिया। इन दिनों शाम के वक्त वह पड़ोस में खुले मातृशक्ति नामके एक संस्थान से भी जुड़ गई थी, जहां औरत को पितृसत्ता के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी जाती थी। कभी कभी संस्थान में भाषण देने के लिए ऐसी नेत्रियां भी आती थीं जो अंग्रेजी में भाषण देती थीं। उनके भाषणों में पैट्रीआर्की और मैट्रीआर्की शब्दों का बार बार इस्तेमाल होता था।
दोनों शब्द सुनकर रामकली को गुदगुदी सी होने लगती थी। वे उसको रट गए थे। घर में बर्तन मांजते या आटा गूंथते हुए वह उन्हें गाने की तरह गुनगुनाया करती: पटरीआकी मटरीआकी। गुनगुनाते गुनगुनाते यह मटरीआकी कब मटरीमाकी बन गया, वह जान ही नहीं पाई। जब जान पाई तो उसे बड़े जोर की हंसी आई। उसे इसमें मर्दाना गाली ध्वनित होती प्रतीत हुई: पटरीआकी मटरीमाकी। इसकी मां…उसकी मां…। अब तो यह हो गया था कि जब कभी उसके अंदर क्रोध उमड़ता, वह पटरीआकी मटरीमाकी गाकर खुद को शांत कर लेती।
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उस रात जब बलभद्दर धनिया मिर्चा बेचकर घर लौटे तो उन्हें बहुत देर तक कॉल बेल दबानी पड़ी। आखिर में दरवाज़ा खुला तो रामकली के हाथ में वनिता थी और वह मुस्कुरा रही थी। बलभद्दर अरसे बाद उसका मुस्कुराता चेहरा देख रहा था। उसको बड़ा भला लगा। खुश होकर बोला, “बहुत खुश हो आज। कोई खास बात?”
“अरे कुछ नहीं” वह बोली, “बस इस कहानी को पढ़कर हंसी आ गई।”
“क्या है कहानी में…ज़रा हम भी हंस लें”
“यह तुम्हारे हंसने लायक नहीं” रामकली हंसने लगी।
“बता भी दो अब..”
“तो सुनो, इस कहानी में एक आदिवासी औरत अपने पति का सर काट डालती है और कटे सर को लेकर थाने पहुंच जाती है।”
“तो इसमें हंसने वाली क्या बात है?”
“हंसी इस बात पर आई कि महिला जब सर लेकर अपना जुर्म कबूल करने थाने पहुंची तो दारोगा जी थर थर कांपने लगे।” रामकली फिर हंसने लगी।
बलभद्दर को कुछ समझ में नहीं आया क्योंकि नीला ड्रम तब तक अस्तित्व में नहीं आया था। वह हाथपैर धोकर पाटे पर बैठ गया।
“अरे, तुम पाटे पर बैठ गए! सोरी सोरी” रामकली मैगज़ीन को किनारे रख कर खेद जताते हुए बोली, ” आज तो अभी तक खाना ही नहीं बना। बच्चे एक बर्थडे पार्टी से खा आए थे। मैंने भी सामने चाट वाले से टिकिया ले ली थी..”
“तो मैं क्या खाऊं?”
“अभी लाती हूं। ब्रेड खाओगे?”
“सूखी ब्रेड?”
“कहो तो मक्खन लगा दूं?” रामकली ने स्निग्ध स्वर में कहा, ” सूखी ब्रेड न खाना चाहो तो चोखा देती हूं। आलू का। उबले रखे हैं। खूब जीरा, हींग, चाटमसाला डाल दूंगी। खूब मिर्ची वाला। जैसा तुमको पसंद है।”
बलभद्दर ने चोखा का चुनाव किया और दो मिनट में उसके सामने प्लेट सज गई। उसने ब्रेड में ढेर सारा चोखा समेट कर एक बड़ा सा कौर बनाया और मुंह के सुपुर्द कर दिया।
अगले ही पल उनका मुंह जल उठा। वे चोखे में गलती से अनकटी समूची मिर्च चबा बैठे थे। उन्होंने गुस्से में प्लेट पटक दी। रामकली दौड़ कर कांसे के लोटे में पानी लाई। बलभद्दर ने पानी पिया लेकिन जलन कम न हुई। गुस्सा और भड़क गया। उन्होंने आव देखा न ताव और रामकली के सर का निशाना लेकर लोटे को बम की तरह चला दिया।
रामकली ने झुककर अपना सर बचा लिया। क्षण भर को उसने अपने धरम पति को जलती हुई नजरों से देखा और बिना कुछ बोले बड़े पुत्र के कमरे में चली गई। उधर पति देव भी मुंह में घी मलकर बिस्तर पर जा लेटे। नींद तब खुली जब उनके सर पर भीषण प्रहार हुआ। उन्होंने दर्द से बिलबिलाते हुए आँखें खोलीं तो उनके सामने रामकली खड़ी थी। उसके हाथ में बेटे का बैट था। बलभद्दर ने भागने की कोशिश की तो रामकली ने दोहत्था बैट घुटने पर दे मारा।
इसके बाद वे भागने के लायक नहीं बचे। उन्होंने खुद को रामकली की भलमनसाहत के हवाले कर दिया। बैट की मार बंद नहीं हुई। बस प्रहार हल्का हो गया। रामकली प्रहार करती जाती और हर प्रहार के साथ चिल्लाती, “साले, औरत पर हाथ उठाता है…अभी तेरी पटरीआकी-पटरीमाकी निकालती हूं।”
पटरीमाकी शब्द तो उन्हें मां की गाली जैसा कुछ लगा लेकिन पटरीआकी में वे अटक गए। दसवीं तक की अपनी पढ़ाई में उन्होंने यह शब्द नहीं सुना था। बलभद्दर कराहते रहे और पटरीआकी-पटरीमाकी के बारे में सोचते रहे। दसवीं फेल आदमी ने पैट्रीआर्की शब्द कभी सुना न था।
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रामकली अंततः थक कर चली गई। बलभद्दर रात भर कराहते रहे और सुखद अतीत को याद करते रहे।…15 साल पहले की बातें।
…15 साल पहले उनकी शादी हुई थी। बला की ख़ूबसूरत थी रामकली। बलभद्दर देखते ही न्योछावर हो गया था। बड़ी बड़ी शरबती आंखें। गोरा रंग। अंडाकार चेहरा। छरहरी काया। और, बेहद फुर्तीली। वह उसे हेमा मालिनी कहा करता था। सुनकर वह लजा जाया करती थी।
रामकली ने ससुराल आते ही पूरा घर संभाल लिया।
सुबह पांच बजे उठती। झाड़ू-बुहारा-पोंछे के बाद स्नान। फिर पूजा। पूजा के बाद सास ससुर को चाय। चाय के बाद वह देवर के लिए नाश्ता और टिफिन बनाने में लग जाती, जो गनफैक्ट्री में फिटर था। उसे सात बजे से पहले निकलना होता था।
उसने खुद चाय नहीं पी होती थी अब तक। अभी नौवीं में पढ़ने वाले 15 साल के छोटे देवर के लिए नाश्ता और टिफिन तैयार करना होता था। उसे विदा कर वह दो कप चाय बनाती। एक अपने लिए और एक अपने उनके लिए।
चाय लेकर बेडरूम जाती तो बलभद्दर चाय तो बाद में पीता, पहले रामकली को पलंग में खींच लेता। चाय ठंडी होती रहती और सांसें गरम। कई बार इन्हीं लम्हों के बीच ससुर जी की पुकार सुनाई देती: बहू, एक कप चाय और मिल जाएगी क्या। सुबह वाली ज़रा फ़ीक़ी थी। इस बार दालचीनी, लौंग, इलायची, जायफल और इलायची भी डाल देना।”
वह पति को धक्का देकर चाय बनाने को भागती। पीछे से बलभद्दर हंसता, “खुद को भी कूटकर चाय में डाल देना। पता नहीं बापू को चाय की कितनी प्यास है! बेटे की भूख प्यास की सोचते ही नहीं।”
रामकली मशीन बन गई थी। चाय के बाद पूरे घर के लिए भोजन। भोजन के बाद घर भर के कपड़ों की धुलाई, आयरन। शाम ढलती तो फिर चाय की बारी। चाय के बाद फिर भोजन। भोजन के बाद सासू के पांव दबाने का दायित्व। फिर पति का दायित्व, जो बेडरूम में उसकी बाट जोहता रहता था।
वह हंस कर सारे दायित्व निभाती गईं। सब उसकी तारीफ करते। पड़ोसी और नाते रिश्तेदार सब कहते: बहू हो तो रामकली जैसी। प्रशंसा उसे ऊर्जा देती और वह बैल की मानिंद घर के कोल्हू में घूमती गई। हालांकि वह बैल नहीं थी। पति हाइस्कूल फेल था तो वह भी इंटर फेल थी। किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने का शौक था उसे। उस घर में लेकिन न तो किताबें थीं और न ही समय।
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समय बीतता गया। सास ससुर गुजर गए। देवरों ने अलग घर बसा लिए। लेकिन रामकली की मजदूरी के घंटे कम न हुए। वह उदास रहने लगी। रात में बिस्तर पर आते आते उसे कभी सर में तो कभी कमर में दर्द रहने लगा। पति नाराज़ रहने लगा। धीमे धीमे दोनों के बीच प्रेम में कमी आने लगी। तो भी उसने घर को चलाने में कोई कोताही न आने दी। फर्श और बर्तन चमकते रहते। सुस्वादु भोजन बनता रहा। अलबत्ता पति को अब कभी दाल में नमक कम या ज्यादा लगने लगा था। लेकिन थाली फेंकने की नौबत अब तक न आई थी।
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यही सब सोचते बलभद्दर जी की सुबह हुई। उम्मीद के विपरीत रामकली हल्दी वाला दूध लेकर आई। फिर दोपहर में उन्हें मातृशक्ति संस्था से जुड़ी एक डॉक्टरनी के पास ले गई। डॉक्टरनी को पूरा केस समझाया। उसने मरहम पट्टी की। उसने बलभद्दर को बताया कि रामकली रोज़ शाम उनकी संस्था मातृशक्ति में सत्संग करने आती है। औरतों को हमीं सिखाते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर से दो। इसीलिए तुम्हें तुम्हारे लोटे का जवाब बैट से मिला। अब गलती न करना। विदा देते हुए उसने सर पर हाथ फेरा। इस मातृभाव से बलभद्दर द्रवित हो उठा। उसकी आंख में आंसू और दिल में थोड़ी सी हिम्मत आ गई। बोला, “थैंक यू डाक्टर साहब। एक सवाल मुझे मथ रहा है। आप मुझे बस पटरीआकी-पटरीमाकी का मतलब बता दीजिए।” डॉक्टर ठहाका मारकर बोली, अब जाओ। अपनी बीवी से पूछ लेना।
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एक हफ्ते बाद थोड़ा चलने लायक होने पर बलभद्दर बाबू जब नयागंज स्थित अपनी किराने की दुकान पर जब बैठे तब भी उनके दिमाग में वही शब्द, पटरीआकी-पटरीमाकी गूंज रहे थे। सो, दुकान पर जैसे ही एक प्रोफेसर साहब गरम मसाला बंधवाने आए तो उन्होंने जायफल, जावित्री और दालचीनी आदि तोलते हुए पूछ ही लिया, “परफोसर साहब, ये पटरीआकी-पटरीमाकी क्या होता है? आजकल की मेहरियां ये लफ़ज़ बहुत बोलती हैं।”
“तुमने कहां सुना भाई?” प्रोफेसर ने पूछा।
मर्द की ज़ात बलभद्दर से जवाब देते न बना।
“बोलते क्यों नहीं?” प्रोफेसर साहब ने पूछा।
“कुछ नहीं साहब” बलभद्दर मुंह घुमा कर कालीमिर्च निकालते हुए बोला, “वो मेरे पड़ोस में एक औरतिया है। अपने पति को आए दिन पीटती है। और जब पीटती है तो पटरीआकी-पटरीमाकी चिल्लाती रहती है। मुझको तो कोई गाली टाइप बात मालूम होती है…”
प्रोफेसर साहब कुछ नहीं बोले। बस लाल मिर्च की बोरी को घूरते रहे और मसाला बंधवाने के बाद चुपचाप चले गए। बलभद्दर ने देखा, प्रोफेसर साहब लंगड़ा कर चल रहे थे।
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