रामचंद्र गुहा ने अपने कॉलम में उमर खालिद पर एक टिप्पणी लिखी है। प्रतिबिम्ब मीडिया रामचंद्र गुहा, उमर खालिद, पुलिस प्रशासन, राजसत्ता और न्यायालय पर बगैर किसी टिप्पणी के उसे यथावत यहां दे रहा हूं। आप भी पढ़े। संपादक
एक अधूरी ज़िंदगी
रामचंद्र गुहा
डॉ. उमर खालिद उन कई नेक, ईमानदार पुरुषों और महिलाओं में से एक हैं जो अपने राजनीतिक आकाओं के आदेश पर पुलिस द्वारा जल्दबाज़ी में दर्ज किए गए संदिग्ध आरोपों के तहत जेल में सड़ रहे हैं।
प्रारंभिक प्रेम आकर्षण शायद ही टिकते हैं, लेकिन शुरुआती विद्वतापूर्ण रुचियाँ अक्सर आजीवन रहती हैं। मैंने अपना करियर एक इतिहासकार के रूप में शुरू किया था- उन वन समुदायों का अध्ययन करते हुए जिनका जीवन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा बेरहमी से अस्त-व्यस्त कर दिया गया था। हालाँकि मैं बाद में अन्य दिशाओं में भटक गया, पर मैंने हमेशा उस क्षेत्र से अपना जुड़ाव बनाए रखा जिसे मैंने अपने अकादमिक जीवन की शुरुआत में जोता था। दरअसल, पिछले सप्ताह मैंने एक युवा शोधार्थी का पीएचडी शोधप्रबंध पढ़ा, जो वर्तमान झारखंड राज्य के सामाजिक और पर्यावरणीय इतिहास की पड़ताल करता है। शोध इतना उत्कृष्ट था कि मैंने सोचा, इस पर मुझे अपने इस कॉलम में लिखना चाहिए।
यह शोध ब्रिटिश शासन के दौरान सिंहभूम क्षेत्र में आदिवासी समाज के रूपांतरण पर केंद्रित है। इसमें पहले यह बताया गया है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस प्रकार धीरे-धीरे उस क्षेत्र पर सैन्य और प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित किया। फिर यह विश्लेषण किया गया है कि उपनिवेशवाद ने सिंहभूम के प्राकृतिक परिदृश्य, कानूनी ढाँचे और आर्थिक व राजनीतिक संरचनाओं को कैसे पूरी तरह बदल दिया। प्रमुख विषयों में शामिल हैं- औपनिवेशिक वन नीति का वाणिज्यिक पक्षपात, गाँव के मुखियाओं की बदलती स्थिति जिन्हें नयी सत्ता से समझौता करना पड़ा, और उन सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के प्रति आदिवासी समुदायों की प्रतिक्रियाएँ जिन्हें ब्रिटिश शासन ने जन्म दिया।
इन पुस्तकों को व्यापक रूप से सराहा गया है। मुझे कोई संदेह नहीं कि यह शोध भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित होने पर समान प्रशंसा प्राप्त करता। परंतु दुर्भाग्यवश, यह थीसिस 2018 में जमा की गई थी, और अब तक प्रकाशित नहीं हो सकी है। इसका कारण यह है कि उस शोधार्थी का नाम उमर खालिद है। एक निर्दयी और दंडात्मक राज्य, तथा धीमी न्याय प्रणाली ने- इस कॉलम के लिखे जाने तक- इस प्रतिभाशाली इतिहासकार को पाँच वर्ष से अधिक समय से बिना ज़मानत, यहाँ तक कि बिना औपचारिक आरोपपत्र के, जेल में रखा हुआ है।
मैंने स्वयं कभी डॉ. उमर खालिद से मुलाकात नहीं की है। हालाँकि दिसंबर 2019 के एक दिन हम दोनों ने एक भेदभावपूर्ण कानून के विरुद्ध शांतिपूर्ण राष्ट्रव्यापी विरोध में भाग लिया था- वे दिल्ली में और मैं बेंगलुरु में। तब से मैं अक्सर सोचता हूँ कि हमारे जीवन ने इतनी अलग राहें क्यों लीं- क्या मैं आज भी अपने शोध और लेखन में लगा रह सका, केवल इसलिए कि मेरा नाम रामचंद्र है और उमर नहीं?
मैंने यहाँ डॉ. खालिद के बारे में इसलिए लिखा है क्योंकि आधुनिक भारत का इतिहासकार होने के नाते मैं उनके शोध की गहराई और समृद्धि को भलीभाँति समझ सकता हूँ। लेकिन इस कॉलम को समाप्त करते हुए, मुझे यह भी कहना होगा कि वे उन कई नेक, ईमानदार पुरुषों और महिलाओं में से एक हैं जो अपने राजनीतिक आकाओं के आदेश पर दर्ज झूठे आरोपों के कारण जेलों में सड़ रहे हैं। इनमें कुछ विद्वान और शोधकर्ता हैं, तो कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी के सदस्य- जिन्होंने अपने जीवन और कार्य से अहिंसा और भारतीय संविधान के मूल मूल्यों के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता दिखाई है।
शायद यही बहुलतावाद और लोकतंत्र के प्रति निष्ठा उन्हें वर्तमान सत्तारूढ़ व्यवस्था की निरंकुश और बहुसंख्यकवादी प्रवृत्तियों के निशाने पर ले आई है। ये असाधारण युवा भारतीय अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ वर्ष अंधेरी, अस्वच्छ जेलों में गुज़ार रहे हैं – जबकि वे हमारे गणराज्य के जीवन में बहुत बड़ा योगदान दे सकते थे।
अब समय आ गया है कि हमारे न्यायाधीश वह शालीनता और साहस दिखाएँ, जिससे उन्हें वह स्वतंत्रता मिल सके जो उनसे अन्यायपूर्वक छीनी गई है। देवेंद्र सुरजन के फेसबुक वॉल से साभार

लेखक – रामचंद्र गुहा
