मदन कोश: भारत का पहला चरित कोश

मदन कोश: भारत का पहला चरित कोश

– योगेन्द्र नारायण

हिन्दी जगत में अपने महत्वपूर्ण योगदान ‘मदन कोश’ अर्थात जीवन चरित्रस्तोम देने के बावजूद पण्डित मदनलाल तिवारी का नामलेवा भी कोई नहीं दिखाई देता। जिस समय मदन कोश लिखा गया, उस समय तक उत्तर प्रदेश का नाम संयुक्त प्रान्त आफ आगरा एण्ड अवध था। सन् 1935 में इस प्रदेश का नाम बदला और केवल संयुक्त प्रान्त रह गया। सन् 1950 में यह नाम पुनः बदला और अब इसे उत्तर प्रदेश कहा जाने लगा। उस समय प्रदेश में केवल एक विश्ववि़द्यालय था, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
सन् 1907 में वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित ‘मदन कोश’ अर्थात ‘जीवन चरित्रस्तोम’ के लेखक पं. मदनलाल तिवारी इटावा के गवर्नमेण्ट हाई स्कूल में सहायक अध्यापक थे इसके अलावा तिवारीजी का केाई परिचय नहीं मिलता। वे इटावा के ही थे या कहीं और से बदली हो कर आये थे, इस बारे में भी कोई जानकारी नहीं। जीवन चरित्रस्तोम में स़ंसार के एक हजार महानुभावों का चरित्र संकलित है। स्तोम का अर्थ स्तुति या प्रशंसा होता है। यह कोंश उस समय की भाषा की ओर ध्यान आकर्षित करता है। तिवारीजी ने ‘कोश’ को लगातार ‘कोष’ ही लिखा है, जबकि बाद के सभी लेखकों ने ‘कोश’ ही लिखा है।
मदन कोश का दूसरा संस्करण वेंकटेश्वर प्र्र्रेस से ही सन् 1932 में प्रकाशित हुआ। लेखक तो पण्डित मदनलाल तिवारी ही थे, परन्तु पुस्तक का नाम मदन केाश से बदल कर ‘संसार के महापुरुष’ अर्थात संसार भर के सभी देशों के -प्रसिद्ध महापुरुषों का संक्षिप्त परिचय हो गया। इस संस्करण के संशोधन और परिवर्धन कर्ता थे बा.रुद्रनारायण अग्रवाल। मदन केाश में महापुरुषों के जन्म-मृत्यु की जानकारी परिचय के बीच में दी गयी थी परन्तु दूसरे संस्करण में नाम के बाद ही कोष्ठ में जन्म-मृत्यु का सन् दिया गया, परन्तु अखरने वाली बात यह लगी कि मदनमोहन मालवीयजी का परिचय ही हटा दिया गया। मदन कोश में मालवीयजी का परिचय ‘देशहितैषी’ की उपाधि के साथ करीब एक पृष्ठ में दिया गया था। दूसरे संस्करण में कुल छपे पृष्ठों की संख्या 434 है तथा कुछ महानुभावों के नाम परिशिष्ट में जोड़े गये हैं।

मदन कोष की प्रस्तावना में तिवारीजी ने लिखा है-
‘‘पश्चिमोत्तर और अवध देश के लेफ्टिनेण्ट गवरनर सर ए.पी.मैकडानल साहब बहादुर ने शिक्षाविभाग की रिपोर्ट का गुण-दोष का विवेचन करते हुए, रेजोल्युशन नं.448/150048/9 के द्वारा, नेनीताल से 8अक्टोबर , सन्1901 को उत्तेजना के साथ सूचना दी थी कि देशीय भाषा में अच्छे-अच्छे जीवन चरित लिखा जाना आवश्यक है, क्योंकि विचारशील चित्तवृत्ति छात्रों पर इतना प्रभाव किसी प्रकार के साहित्य का नहीं पड़ता है जितना कि अच्छे-अच्छे चरित्रों का।
लार्ड साहब के पूर्वोक्त कथन से प्रेरित होकर मैंने यह रचना की जो अपने ढंग की अनूठी है, क्योंकि इसमें संसार के एक सहस्त्र श्रेष्ठजनों के चरित्र हैं, जिनमें से बहुत से संस्कृत व हिन्दी साहित्य से संबन्ध रखने वाले हैं।

ग्रन्थ की सामग्री केवल अत्यंत विश्वसनीय स्रोतों से एकत्र की गयी है और प्राचीन तथा रहस्यमय चरित्रों के लिखने में पुरातत्ववेत्ताओं के अन्वेषण का भलीभांति व्यवहार किया गया है। जिन बातों के विषय में प्रामाणिक विद्वानों का मतभेद है, उनके निर्णय करने में केवल अधिक बुद्धि सम्मत तथा न्याय संगत मतों को ग्रहण किया गया है।

बहुधा स्थलों में तो चरितान्वेषण के लिए केवल मूल स्रोतों का ही आश्रय लिया है और यदि कोई चरित संग्रह ग्रन्थों के आधार पर लिखा है तो उसकी शुद्धता की परीक्षा सावधानी से कर ली है।
यह ग्रन्थ अध्यापक जिज्ञासु तथा पाठकों को समान रूप से लाभदाई होगा। क्यों कि बहुत से चरित्र विस्तृत रूप से भी लिखे गये हैं।जिज्ञासुओं की आवश्यकता पूरक इस प्रकार का यह पहला ही ग्रन्थ है। संस्कृत और हिन्दी साहित्य शिक्षा की इससे सबसे बड़ी उन्नति होगी और पढ़ने वाली दुनियां पर नीति तथा बुद्धिमत्ता का , जिससे यह ग्रन्थ ओतप्रोत है, अवश्य ही यह प्रभाव पड़ेगा।

इटावा 7मार्च 1907 मदनलाल तिवारी’’

इस क्रम में दूसरे लेखक हैं चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा। हिन्दी साहित्य के आरम्भिक लेखकों में दूसरे व्यक्ति चतुर्वेदी जी का जन्म इटावा में ही सन् 1920 में ही हुआ था परन्तु उत्तर प्रदेश के गठन के बाद वे इलाहाबाद में बस गये। इनकी लिखी करीब 150 पुस्तकें बतायी जाती हैं, जिनमें दो शब्दकोश शब्दार्थ कौस्तुभ (संस्कृत से हिन्दी) और शब्दार्थ पारिजात(हिन्दी) हैं। इनका बाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद काफी चर्चित रहा है। इसके अलावा वारेन हेस्टिंग, रावर्ट क्लाइव,, रामानुजाचार्य, अल्लाह, माधव प्रसाद मिश्र निबन्धावली, बासुदेव-श्रीकृष्ण्चन्द्र, बाल साहित्य माला (20पुस्तकें) आदि हैं। चतुर्वेदीजी ने दो मासिक पत्रिकाओं श्रीराघवेन्द और श्रीयादवेन्द्र नामक दो पत्रिकाओं का भी सम्पादन किया। वारेन हेस्टिंग की जीवनी ही इटावा में इनकी रारकारी नौकरी जाने का कारण बताया जाता है। इसके बाद तो वे साहित्य लेखन में ही रम गये।
नवल किशोर पे्रस, लखनऊ से सन््् 1919 में प्रकाशित ‘भारतीय चरिताम्बुधि के संग्रहकर्ता द्वारका प्रसाद शर्मा ने कोश में 2550 व्यक्तियों के चरित का संग्रह किया है। इस हिसाब से कोश का कलेवर काफी बडा है। कोश के आवरण पृष्ठ पर ही इसमें किस-किस तरह के लोगों चरित्र संग्रह किया है, स्पष्ट कर दिया है। वैदिक, पौराणिक, ऋषि, मुनि, राजा, रानी, स्थान तथा ऐतिहासिक पुरुषों, कवियों आदि का हिन्दी भाषा में संक्षिप्त परिचय देना ही उद्येश्य है।
भारतीय चरित्रकोश मण्डल , पूना से सन्1932 में भारववर्षीय प्राचीन चरित कोश, डा.सिद्धेश्वर शास्त्री चि़त्राल के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ। कोश निर्माण की दिशा में यह संस्था महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। इससे पहले मराठी में प्राचीन चरित्र कोश, मघ्यकालीन चरित्र कोश तथा अर्वाचीन चरित्र कोश, साहित्य कोश, साहित्यकार कोश, पात्र कोश, मानक शब्दकोश आदि लिखे गये एवं प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से प्राचीन चरित्रकोश का परिवर्धित एव संशोधित रूप हिन्दी में प्रस्तुत किया गया है। भारतवर्षीय चरित्र कोश दो भागों में है तथा पृष्ठों की संख्या 1204 है।
च्रित्र कोशों में सबसे नयी प्रविष्टि भारतीय चरित्र कोश है। लीलाधर शर्मा ‘पर्वतीय ’ द्वारा लिखित इस कोश केा सन 2009 में राजपाल एण्ड संस ने प्रकाशित किया। इस कोश में दो हजार भारतीयों के व्यक्तित्व को समाहित किया गया है। कहना न होगा कि इस कोश का कलेवर भी बड़ा है।
लीलाधर शर्मा ‘पर्वतीय’ का जन्म अल्मोड़ा जिले के बक्साड. गांव में सन् 1919 में जन्म हुआ। पढ.ने में रुचि के कारण वे वाराणसी आये और काशी विद्यापीठ से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। प्रेमचन्द की कहानियों से प्रभावित हो कर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड.े। इस सिलसिले में वे जेल भी गये। आजादी के बाद वे हिन्दी साहित्य सेवा में लग गये तथा उ़ प्ऱ हिन्दी समिति के दस वर्षों तक सचिव रहे। भारतीय चरित कोश में वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का परिचय दिया गया है तथा कई लोगों के चित्र भी दिये गये हैं। पृष्ठों की संख्या एक हजार है।
चरित्र कोशों की सन् 1907 से लेकर 2025 तक की यात्रा में चरित्र कोशों की संख्या और कलेवर दोनेां दृष्टियों से काफी विस्तार हुआ, हिन्दी भाषा भी खासी परिष्कृत हुई, परन्तु संसार के महत्वपूर्ण व्यक्तियों से प्रारम्भ हुई इस यात्रा में हम भारतीय सीमा में बंधे रहे और यात्रा प्रारम्भ करने वाले पहले यात्री की पहचान भी हमारे पास न

मदन कोश (भाषा और चरित्र के नमूने

अबुल फैज फैजी-(प्रसिद्ध विद्वान) शेख मुबारिक नागौरीका बेटा तथा अब्बुल फजल का बडा भाई था। 14 वर्ष की अवस्था में अर्बी फारसी तुर्की भले प्र्रकार पढ.कर संस्कृत पढ.ने बनारस गया। जब पढ.कर पूर्ण विद्वान हुआ ब्राह्मण गुरुने निज पुत्री इसको विवाहनी चाही, तब फैजीने उससे सच्चा हाल कहा कि मैं मुसलमान हूं। गुरु यह सुन शोकितहो फैजीसे बोला ‘‘ जिस ग्रन्थ का चाहो अनुवाद करना, पर वेदों का अनुवाद न करना। अकबरने गद््दी पर बैठनेसे 12 वर्ष पीछे फैजीको अपने दर्बार में उच्च पद दिया। पश्चात फैजी ने अपने कनिष्ठ सहोदरको दर्बारमें पहुंचाया।

फैजीकी समान तत्व तथा ब्रह्मपिद्याका ज्ञाता कोई दूसरा दर्बारमें न था। उससे अकबर तथा दर्बारमें और सबलोग प्रसन्न थे। अकबरने उसको राजकविके पद पर नियुक्त किया था। बेनुकतकुरान सुलेमान बिल्कीस, हफ्तकिश्वर, हफ्तपैकर, मसनवी नलदमन इत्यादि फारसी ग्रन्थ और बादशाह अकबरकी आज्ञानुसार रामायण,महाभारत, लीलावती,बीजगणित इत्यादि संस्कृत पुस्तकों का फारसी अनुवाद फैजीने किया था और अथर्वण वेदमें अल्लोपनिषद् बनाकर मिलाया था।

फैजी की तनख्वाह का अधिक भाग पुस्तकें खरीदनेमें खर्च होता था। स. ई.1599में फैजीका देहांत हुआ।4600 पुस्तकें उसके कुतुबखानेमें निकलीं। भाषा में उसके बनाये दोहरे अनेक मिलते हैं। ऐसा तीब्र बुद्धि पुरुषथा कि जो पुस्तक एक दफे पढली याद हो गई।

कौसल्या-(महाराज रामचन्द्रकी परम पूज्यमाता) इनके चरित्रोंमें धर्म और धीरजका पालन जो राम सरीखे पुत्रको वनजाते समय इन्होंने किया प्रधान है। ये उत्तर कौशलके राजा रविमंतकी पुत्री थीं। रविमंतने अपना राज्य दशरथ जी को दहेज में दिया था।

लेखक -योगेन्द्र नारायण