सुंदर कल का रचनाकार: मुल्कराज आनंद
गुरबख्श सिंह मोंगा
मुल्कराज आनंद पुनर्जागरण के मानव, उपन्यासकार, निबंधकार, आलोचक एंव विचारक थे। उनकी शीघ्र एंव स्वेग पहचान के पीछे उनके दो उपन्यासों ‘अछूत’ (1933) एवं ‘कुली’ (1936) का महत्वपूर्ण योगदान है। अछूत उपन्यास में भारतीय समाज की लज्जाकर समस्या जाति एवं छुआछूत को सम्बोधित है। प्रसिद्ध विचारक ई0एस0 फोरस्टर इस समबन्ध में लिखते हैं, ‘‘अछूत को केवल एक भारतीय ही लिख सकता था और वह भी इसे बाहर से निरीक्षण करने वाला। कोई यूरोपियन, चाहे वह कितनी भी सहानूभूति क्यों न रखता हो, इस उपन्यास के पात्र बाखा का सृजन नहीं कर सकता क्योंकि वह उसकी समस्याओं से परिचित नहीं है। और कोई अछूत इसलिए इसका सृजन नही कर पाता क्योंकि वह रोष और आक्रोश में फंसा रहता।’’ मानवीय शोषण एवं सामाजिक अन्याय के विमर्श मुल्कराज आनंद अपने दूसरे उपन्यास ‘कुली’ के पात्र ‘मुन्नू’ के माध्यम से व्यक्त करते हैं। मोटे तौर पर अछूत और कुली परस्पर सम्बन्धित रूपक हैं जिनमें सार्वभौमिक मानवीय पतन, क्रूरता और यंत्रनाएं शामिल हैं। कुली के रूपक को विस्तार देते हुए तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक हालात के वर्ग-चरित्र को दर्शाता 1937 में उपन्यास ‘टू लीवज़ एंड ऐ बड’ (दो पत्ते एंव एक कली) आता है जिसमें चाय की पत्ती और गरीब किसान के परिवार की व्यथा दिखाई गई है। आनंद के पहले तीन उपन्यास जो तीन वर्ष के छोटे से अन्तराल में प्रकाशित हुए, उससे इनकी छवि दबे कुचले लोगों, हासियागत समाज और तमाम सताए गए लोगों के हकों के लिए प्रगतिषील अडिग, हिमायती के तौर पर उभरी।
मुल्कराज आनंद का जन्म 12 दिसम्बर 1905 को पेशावर (अब पाकिस्तान में) के एक क्षत्रिय परिवार में हुआ। उनके पिता लाल चन्द ने जिंदगी की शुरूआत ठठेरे के रूप में की और बाद में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में क्लर्क के रूप में कार्य किया। माता श्रीमती ईष्वर कौर एक सिख किसान की बेटी थीं। मुल्कराज पांच भाई बहनों में तीसरे नम्बर पर थे। 1924 में मुल्कराज ने खालसा कालेज अमृतसर से स्नातक की डिग्री अंग्रेजी (आनर्स) में प्राप्त की और उस समय तक ये राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल हो चुके थे। 1921 से 1924 के तीन वर्षों में नागरिक अवज्ञा आंदोलन में इनकी सक्रिय भागीदारी के दौरान दो घटनाओं ने इनके जीवन पर अमिट छाप छोड़ी। पहली इनकी नौ वर्षीय चचेरी बहन कौशल्या की मौत और दूसरा एक विवाहित मुस्लिम युवती यासमीन के प्रति इनका लगाव, जिसने आत्महत्या कर ली थी। उनका पहला निबन्ध उनकी चाची की आत्महत्या की प्रतिक्रिया से सम्बन्धित था, जिसे उनके परिवार द्वारा मुसलमान के साथ भोजन सांझा करने के कारण बहिष्कृत कर दिया गया था। 1925 में इन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी लंदन में दर्शनशास्त्र में पी0एच0डी0 के लिए दाखिला लिया। 1929 में शोध कार्य पूरा करके डिग्री हासिल करने के पश्चात आनंद ने जेनेवा के लीग आफ नेशंस स्कूल आफ इंटेलेक्चुअल कार्पोरेशन में अध्ययन किया और पढ़ाने का काम भी किया था। मुल्कराज आनंद ने 1935 तक जार्ज आरवेल समेत अंग्रेजी लेखकों एवं आलाचकों से मित्रता कर ली थी। इंग्लैंड के बीस वर्षों के प्रवास के दौरान वे प्रभावशाली बौद्धिक सम्पदा के मालिक बन चुके थे। यूरोपियन बौद्धिक विचारों और अंग्रेज राजनीति में सक्रियता के कारण उन्हें ब्रिटिश मानसिकता जो वे राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रति रखते थे, की भी पूरी समझ बन चुकी थी। 1939 में आनंद ने कैथलीन वैन गैल्डर नामक अभिनेत्री से शादी की। ‘लास्ट चाईल्ड एंड अदर स्टोरीज़’ का प्रकाशन 1934 में हुआ जिसे आनंद की पहली फिक्शन पुस्तक कहा जा सकता है।
शीर्षक कहानी ‘गुमशुदा बच्चा’ एक जवान बच्चे की इच्छाओं पर आधारित कहानी है जो एक मेले में गुम हो जाता है। बाद में आनंद ने इस विषय पर एक सफल मूवी का निर्देशन किया जो भारत सरकार द्वारा निर्मित की गई। 1946 में आनंद ने अपनी आत्मकथा लिखी ‘अपोलोजी फार हीरोइज्मः एन एसे इन सर्च आफ फेथ’ उनका कहना था कि 1934 से 1946 के बीच उनके व्यक्तित्व में एक नाटकीय बदलाव हुआ है। उनका कहना था कि उन्होंने दुनियाभर के उत्पीड़ित लोगों के दर्द को आत्मसात किया है, विशेषतः ब्रिटिश कामगारों के, लेकिन उनका दिल धड़कता है अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनमानस की गरीब और उन पर ढाये जा रहे जुल्मों के खिलाफ। भारतीय स्वतन्त्रता के प्रति उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति इसमें दिखाई देती है। सुप्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक जार्ज आरवेल ने उनके ब्रिटिश विरोध पक्ष का डट कर समर्थन किया और पुस्तक की प्रशंसा की। आनंद के दो उपन्यास ‘अछूत’ और ‘कुली’ मानवीय पीड़ा के प्रतीक हैं। अछूत में जहां पर हिन्दू वर्ग व्यवस्था में ‘बाखा’ चंडाल जाति से आता है और बाद वाले में ‘मुन्नू’ और ‘गंगू’ क्षत्रिय जाति से आते हैं। अछूत और कुली दोनों ही गरीब मजदूर हैं जिन्हें उन लोगों द्वारा दबाया व सताया जाता है जिनके पास उन्हें काबू करने और प्रभुत्व रखने का अधिकार है। औपनिवेशिक विषय वस्तु के आधार पर बाखा एवं गंगू ‘दासों के दास’ हैं। अछूत में बाखा की स्थिति मुन्नू के मुकाबले ज्यादा जटिल है क्योंकि अछूत परम्परा के मुताबिक वह समाज की निम्न स्तरीय गुलामी की कलंकित स्थिति पर स्थायी रूप से खड़ा है जिसके खिलाफ वह विद्रोह नहीं कर पाता। वह हिन्दू होने के बावजूद जाति व्यवस्था में उससे बाहर खड़ा है। सभी अन्य अछूतों की तरह वह उच्च श्रेणी हिंदुओ और सार्वजनिक स्थानों से मलमूत्र उठाने और कूड़े को साफ करने के लिए अभिशप्त है। वह उच्च जाति के लोगों को उनके अपवित्र हो जाने के डर से छू भी नहीं सकता। वास्तव में उसकी मुक्ति अथवा मोक्ष का कोई उपाय नजर नहीं आता। असल में यह उपन्यास आनंद के बचपन के एक मेहतर मित्र की जीवन पर आधारित है जिसमें लाखा नाम का एक मेहतर अपने तीन बच्चों बाखा, सोहिनी (बेटी) और राखा के साथ मैला ढोने का पारम्परिक कार्य करता है। इसमें बाखा जब मंदिर में जाता है तो वहां का पुजारी उसे अपने से दूर रहने को कहता है लेकिन सोहिनी को बदनीयती से छूकर अपनी हवस मिटाने की फिराक में है। सोहिनी के विरोध पर पुजारी उस पर भी उसे अपवित्र करने का इल्ज़ाम लगाता है। बाखा पुजारी पर हमला करने की कोशिश करता है तो बहन उसे रोक देती है। बाखा अपने हाथ में जलेबी को दोना लिए खड़ा है लेकिन एक उच्च जाति का व्यक्ति उससे अपनी ही गल्ती से टकरा जाता है तो वह बाखा को थप्पड़ मारने के अलावा उसकी जलेबियां भी फेंक देता है।
इस गुलामी को मिटाने के तीन उपाय उसे नजर आते हैंः- गांधी का बुद्धिमता, करूणा और क्षमा का रास्ता, इसाई धर्म की शिक्षाएं और आधुनिक वैज्ञानिक एंव तकनीकी विकास। ईसा मसीह का संदेश उपनिवेशगवाद एवं साम्राज्यवाद के साथ सह-अस्तित्व का नजर आता है। गांधीवाद उसे बताता है कि आने वाले समय में मलमूत्र मशीन द्वारा साफ हो जाएगा और छुआछूत समाप्त हो जाएगा। कुली कथा का पात्र मुन्नू एक अनाथ बच्चा ब्रिटिश उपनिवेश और पूंजीवादी ढांचे के अमीर मिल मालिकों के हाथों प्रताड़ित होता है। कांगड़ा घाटी की पैदाइश यह बच्चा गरीबी और प्रताड़ना से तंग आकर शाम नगर में बाबू नत्थू राम के घर पर घरेलू नौकर बन जाता है। वहां भी उसे गालियां और पिटाई का सामना करना पड़ता है। वहां से भागकर वह दौलतपुर में सेठ प्रभा दयाल की आचार फैक्टरी में नौकरी करने लगता है। सेठ के दीवालिया हो जाने पर मुन्नू बाम्बे चला जाता है। वहां झुग्गी बस्ती में रहते हुए जार्ज काटन मिल्ज की हड़ताल के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगो से भीतर तक हिल जाता है। फिर उसकी एक वाहन के साथ दुर्घटना हो जाती है। एक एंग्लो इंडियन महिला श्रीमती मेनवेरिंग से शिमला ले आती है। वहां उसे रिक्शा चलाने का काम करने के साथ ही उस महिला द्वारा दैहिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है और बीमारी के चलते उसकी मृत्यु हो जाती है। पन्द्रह वर्षीय नौजवान का दुखद अंत।
‘दो पत्ते और एक कली’ भी मुल्कराज की कालजयी रचना है जिसमें एक गरीब किसान गंगू पंजाब के होशियारपुर का रहने वाला कर्जे की हालत से तंग आकर आसाम चाय के बागान में इसलिए प्रवास कर जाता है ताकि सुख से जीवन व्यतीत हो सके। उसके परिवार में पत्नी सजनी, बेटी लैला और छोटा बेटा बुद्धू हैं। होशियारपुर में उसका घर पहले ही नीलाम हो चुका था और असम पंहुच कर फिर चाय बागान मालिकों को शोषण शुरू हो जाता है। खोली का किराया भी वहां की आमदनी से पूरा नहीं हो पाता व कर्जे के जाल में गुलामीं का जीवन व्यतीत करने लगता है। उसकी पत्नी और बेटी दोनों के साथ बलात्कार होता है और यह क्रम जारी रहता है। वह लाचारी से मूक-दर्शक बना रहता है। कालान्तर में सजनी की मौत हो जाती है। एक ब्रिटिश सिपाही के रंग मंच पर आने से उसे कुछ राहत की उम्मीद होती है लेकिन वह भी लैला के साथ गंगू के सामने बलात्कार करता है। गंगू के प्रतिरोध करने पर सिपाही गंगू को गोली मार देता है। लैला विक्षिप्त हो जाती है लेकिन सिपाही की गिरफ्तारी के चलते उसे न्याय की उम्मीद बंधती है परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं होता और सिपाही बरी हो जाता है।
1953 में आनंद का उपन्यास ‘प्राइवेट लाइफ आफ एक इंडियन प्रिंस’ प्रकाशित हुआ जिसे उनका अति प्रभावषाली सृजन माना जाता है। 1948 में आनंद का कैथलीन से तलाक हो गया और उन्होनें शास्त्रीय नर्तकी शिरिन वेजिफदार से शादी कर ली। कुछ वर्ष पश्चात उन्होनें सात उपन्यासों की श्रंखला पर कार्य शुरू किया जो बहुत कामयाब रहा। 28 सितम्बर 2004 को उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन तब तक मुल्कराज अनथक रूप से लिखते रहे। नब्बे वर्ष की आयु के पष्चात भी वे भलाई के कार्यों में सक्रिय रहे। मुल्कराज आनंद ने अंग्रेजी लेखन में उत्कृष्ट कार्य किया और संस्कृति के दार्शनिक के तौर पर भी लेखन किया जिसमें इतिहास, कला आदि समग्रता में शामिल रहे। उनके कुछ प्रमुख उपन्यासों में ‘द विलेज’ (1939), ‘एक्रास द ब्लैक वाटर्स’ (1940), ‘द स्वोर्ड एंड दी स्किल’ 1942 एंव ‘दे डेथ आफ ए हीरो’ (1964, कष्मीरी स्वतन्त्रता सेनानी के जीवन पर आधारित) शामिल हैं। 1965 से 1970 तक वे ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। ‘मार्निग फेस’ उपन्यास के लिए उन्हें 1971 में साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा गया।
अमरजीत चंदन को दिए साक्षात्कार में मुल्कराज आनंद बताते हैं, ‘‘मेरे सारे उपन्यासों में गुरुनानक की चलाई भक्ति लहर का लोकाचार है। यही लोकाचार इस शताब्दी के दूसरे विश्वयुद्ध से पहले राष्ट्रीय व समाजवादी लहर का आधार बना। हमने मिलकर मुंशी प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। हमें टैगोर व इकबाल का समर्थन हासिल था। मैं किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य नहीं हूं। मैं ऐसा पंजाबी लेखक हूं जिसकी कोई जायदाद नहीं, सारी अच्छे कामों लगा चुका हूं।
लेखक -गुरबख्श सिंह मोंगा