कांटे की टक्कर में फंसा राजस्थान विधानसभा चुनाव

आलोक वर्मा
राजस्थान में वीरवार को चुनाव प्रचार खत्म हो गया। 25 नवंबर शनिवार को वोट पड़ेंगे। एकबारगी लगा था कि राजस्थान विधानसभा का चुनाव मुद्दों पर लड़ा जाएगा। शुरुआत हुई भी स्थानीय मुद्दों को लेकर। कांग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव प्रचार की शुरुआत राजस्थान सरकार द्वारा पिछले पांच साल में किए गए कार्यों को भुनाने से की तो भाजपा भी पिछले पांच साल की राजस्थान सरकार की विफलताओं को लेकर जनता के बीच पहुंची। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव निकट आता गया दोनों दलों के प्रचार की शैली बदलती गई।

2018 के विधानसभा चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने दो बार मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद सौंपा था, जबकि 2013 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद कांग्रेस बिखरी हुई थी तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने युवा और तेजतर्रार सचिन पायलट को राजस्थान कांग्रेस को एकजुट करने की जिम्मेदारी दी थी। केंद्रीय नेतृत्व की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए सचिन पायलट ने पांच साल जमकर मेहनत की। राज्य भर का दौरा कर पार्टी को एकजुट और संगठन को मजबूत किया। इसका परिणाम यह रहा कि 200 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के 99 विधायक जीतकर पहुंचे और भाजपा के 73 । इसके अलावा बसपा के 6, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को तीन, माकपा और भारतीय ट्राइबल पार्टी के दो-दो तथा राष्ट्रीय लोक दल का एक विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचा। कांग्रेस बहुमत से दो अंक पीछे रह गई थी। लेकिन कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए माकपा, रालोद और बसपा ने समर्थन दे दिया। बाद में गहलोत ने बसपा के सभी छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल करा दिया।

पांच साल के परिश्रम और चुनाव का नेतृत्व करने के चलते वैसे तो मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी सचिन पायलट की तगड़ी थी। लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए अनुभवी अशोक गहलोत को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद सौंप दिया क्योंकि पार्टी को लोकसभा चुनावों में फंड की चिंता सता रही थी। सचिन पायलट प्रदेश अध्यक्ष तो थे ही साथ ही उनको डिप्टी चीफ मिनिस्टर भी बनाया गया। लेकिन उनके मन में मुख्यमंत्री न बन पाने का मलाल रहा। इसके चलते 11 जून 2020 को वहअपने 22 समर्थक विधायकों के साथ बगावत कर मानेसर चले गए और काफी दिनों तक यह नाटक चलता रहा। कहा तो जाता है कि इसकी पटकथा भाजपा ने लिखी थी। वह कांग्रेस सरकार को गिराना चाहती थी लेकिन पायलट जरूरी संख्या में विधायकों का समर्थन नहीं जुटा पाए।

विधायकों को अपने पक्ष में लामबंद करके अशोक गहलोत ने अपनी ताकत दिखा दी थी। इसके अलावा कोविड महामारी के दौरान उनका प्रबंधन बहुत अच्छा रहा। इससे जनता में उनकी लोकप्रियता बढ़ी। पिछले डेढ़ साल में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य के लिए जनता के हित में कई फैसले लिए। उन्होंने 25 लाख की चिंरजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना समेत कई लोकप्रिय योजनाएं शुरू कीं। उन्होंने महंगाई से राहत दिलाने के लिए जगह-जगह शिविर लगाए और जनता की तकलीफों को दूर किया। अशोक गहलोत ने पिछले डेढ़ साल में जनहितैषी योजनाओं की घोषणा ही नहीं की बल्कि उन्हें धरातल पर कार्यान्वित भी किया। योजनाओं का लाभ मिलने पर जनता में मुख्यमंत्री गहलोत की छवि बहुत दमदार बनकर उभरी। यह जरूर है कि महिला सुरक्षा के मामले में राजस्थान सरकार फिसड्डी साबित हुई और रेप की घटनाएं लगातार होती रहीं। इसके अलावा दर्जी कन्हैया रैगर की गला रेत कर हत्या अंतर्राष्ट्रीय सुर्खी बनी और कानून व्यवस्था को लेकर लगातार उंगली उठती रही।

चुनाव प्रचार की चर्चा करते -करते विस्तार से इतिहास की चर्चा करने के पीछे का मकसद यह बताना था कि कांग्रेस के नेता गहलोत सरकार के कार्यों को मुद्दा बनाकर प्रचार में उतरे थे। लेकिन भाजपा उसकी काट नहीं ढूंढ पा रही थी। पहली बार है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री के प्रति जनता में नाराजगी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अन्य बड़े नेता लगातार राजस्थान का दौरा कर रहे थे और चुनाव की कमान भी अमित शाह ने संभाल रखी थी। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को किनारे करने और किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा न घोषित करने के कारण भाजपा का चुनाव प्रचार जोर नहीं पकड़ पा रहा था। कांग्रेस के लोक लुभावन वादे (सात गारंटी) के बाद उसने घोषणा पत्र में सभी वर्गों का ध्यान रखा। महिला, किसान, युवा, छात्र, व्यापारी और कर्मचारी समेत कोई वर्ग छूटा नहीं और सबसे बड़ी चिरंजीवी स्वास्थ्य योजना को बढ़ाकर 50 लाख करने से माहौल काफी बदल गया है। यहां तक कि पहले प्रधानमंत्री कांग्रेस की घोषणाओं को रेवड़ी कह रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने रेवड़ी शब्द कहना बंद कर दिया। भाजपा भी अपने घोषणापत्र में लोकलुभावन घोषणाएं करने से पीछे नहीं है।

 

प्रचार के दौरान कांग्रेस जहां गहलोत सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करती रही वहीं उसने यह बताने की कोशिश भी की कि अगर भाजपा सरकार आई तो वह उन्हें बंद कर देगी। जबकि खासतौर पर राहुल गांधी जातीय जनगणना कराने और पीएम – अडानी के संबंधों पर प्रहार करते हुए देश को लूटने का आरोप लगाते रहे। प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेता भी कांग्रेस के खिलाफ कानून व्यवस्था को लेकर उंगली उठाते रहे। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही उनकी प्रचार की भाषा एकदम से बदल गई।

कन्हैया रैगर की हत्या को प्रधानमंत्री इशारों इशारों में एक धर्म विशेष से जोड़ते रहे। हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा भी खूब उछाला गया, प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने प्रचार के दौरान हिंदू-मुस्लिम की चर्चा कर पोलराइजेशन की पूरी कोशिश की। बात यहीं तक नहीं रुकी, प्रचार के अंतिम दौर एक सभा में प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी का नाम लिए बगैर उनको मूर्खों का सरदार कहा। इसके एक दिन बाद राहुल गांधी ने एक सभा में प्रधानमंत्री को पनौती कह दिया। इसके पहले भी राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर तीखे हमले कर रहे थे। अडानी के साथ उनकी मित्रता, अडानी को सारी सरकारी संपत्तियां बेच देने, अडानी का लाखों करोड़ का कर्ज माफ कर देने का मामला उठाकर प्रहार करते रहे। जेबकतरा तक कह दिया। दोनों दलों के खासतौर पर शीर्ष नेताओं के निम्न स्तर के शाब्दिक प्रहार से प्रचार का स्तर काफी नीचे चला गया। अब देखते हैं कि इसका आगे क्या असर होता है।

राजस्थान में पिछले काफी समय से एक बार भाजपा और अगली बार कांग्रेस की सत्ता आती रही है। लेकिन इस बार दोनों दलों ने जनता के लिए जो वादों का पिटारा खोल रखा है उसके चलते परिणाम को लेकर असमंजस बन गया है। राजनीतिक पर्यवेक्षक भविष्यवाणी करने से हिचक रहे हैं और कांटे की टक्कर बता रहे हैं। राजस्थान का चुनाव मुख्यमंत्री गहलोत और प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का इम्तहान बन गया है। तीन दिसंबर को जब रिजल्ट आएगा तब पता चलेगा कि राजस्थान की जनता ने किस पर विश्वास जताया।