दिल्ली के उप राज्यपाल वीके सक्सेना ने अभी हाल में अंग्रेजी लेखिका और समाजसेवी अरुंधति रॉय के खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी है। वह भी 14 वर्ष पुराने एक भाषण के संदर्भ में जो अरुंधति ने कश्मीर के संदर्भ में दिया था। इसकी शिकायत जम्मू के एक भाजपा समर्थित समाजसेवी सुशील पंडित ने की थी। उनके साथ ही कश्मीर के डॉक्टर शेख शौकत हुसैन के खिलाफ भी केस चलाने की अनुमति दी गई है। इसका आशय यह है कि तीसरी बार सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री मोदी के शासन करने के तरीके में कोई बदलाव की संभावना नहीं है। विरोधियों के खिलाफ उत्पीड़न और बदले की कार्रवाई जारी रहेगी। जानी मानी लेखिका अरुंधति हमेशा से नरेंद्र मोदी के कार्यों की आलोचक रही हैं और उन्होंने मोदी के कार्यों की खुलेआम आलोचना की है। यहां पर अरुंधति रॉय और उन पर चलने वाले मुकदमे को समझने के लिए दो लेखों को दिया जा रहा है। एक लेख बीबीसी संवाददाता राक्सी मागड़ेकर छारा का है और दूसरा वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन का।
रॉक्सी गागड़ेकर छारा
दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने लेखिका अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ गै़रकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाए जाने की अनुमति दे दी है। उनके साथ ही कश्मीर के डॉक्टर शेख़ शौकत हुसैन के ख़िलाफ़ भी इस कड़े क़ानून के तहत केस चलेगा।
ये मामला 14 साल पुराना है और अरुंधति रॉय पर भारत की एकता और अखंडता के ख़िलाफ़ टिप्पणी करने का आरोप है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की मुखर आलोचक रहीं अरुंधति रॉय पर साल 2010 में दिल्ली में दर्ज कराई गई एक एफ़आईआर के तहत ये मुक़दमा चलाया जाएगा।
पिछले साल अक्टूबर में टेलीविज़न चैनल अलजज़ीरा को दिए गए इंटरव्यू में कश्मीर के पुलवामा हमले के संबंध में पीएम नरेंद्र मोदी से जुड़े सवाल पर रॉय ने कहा था कि “मैं हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ रही हूं, जब वह साल 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब भी।”
वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि सत्ताधारी बीजेपी फ़ासीवादी है और एक दिन ये देश उसके ख़िलाफ़ खड़ा होगा।
लेखिका या बेज़ुबानों की ज़ुबान…कौन हैं अरुंधति रॉय?
अपनी क़िताब ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ के लिए साल 1997 में बुकर पुरस्कार जीतने वालीं अरुंधति रॉय ने कुल 9 से अधिक क़िताबें लिखी हैं।
उनकी हालिया क़िताब ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ नेशनल बुक क्रिटिक्स सर्कल अवॉर्ड के फ़ाइलिस्ट में से एक थी.
वह लगभग 60 साल की हैं और उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर से पढ़ाई की है. रॉय ने इसके बाद प्रोडक्शन डिज़ाइनर के तौर पर काम किया।
अरुंधति रॉय की ज़िंदगी हमेशा से ही थोड़ी अलग रही. उन्होंने 16 साल की उम्र में घर छोड़ दिया, वो दिल्ली के एक आर्किटेक्चर स्कूल में गईं, गोवा के समुद्रतट पर उन्होंने केक बेचे, एरोबिक्स सिखाया, एक इंडी फ़िल्म में भी काम किया।
उन्होंने अपना पहले उपन्यास लिखने से पहले क़रीब पांच साल तक स्क्रीनप्ले (पटकथाएं) लिखे।
रॉय को साल 2002 में लन्नान फ़ाउंडेशन प्राइज़ फ़ॉर कल्चरल फ्रीडम, 2004 में सिडनी पीस प्राइज़, 2004 में नेशनल काउंसिल ऑफ़ टीचर्स ऑफ़ इंग्लिश की ओर से दिया जाने वाला जॉर्ज ऑर्वेल अवॉर्ड और विशिष्ट लेखन के लिए साल 2011 में नॉर्मन मेलर प्राइज़ से सम्मानित किया जा चुका है।
अरुंधति रॉय ने सात नॉन-फ़िक्शनल क़िताबें भी लिखी हैं. इनमें साल 1999 में आई ‘कॉस्ट ऑफ़ लिविंग’ भी शामिल है, जिसमें विवादास्पद नर्मदा बांध परियोजना और परमाणु परीक्षण कार्यक्रम के लिए सरकार की कड़ी आलोचना की गई है।
इसके अलावा उन्होंने साल 2001 में ‘पावर पॉलिटिक्स’ नाम की क़िताब लिखी, जो निबंधों का संकलन है। इसी साल उनकी ‘द अलजेब्रा ऑफ़ इनफ़िनाइट जस्टिस’ भी आई. इसके बाद साल 2004 में ‘द ऑर्डिनर पर्सन्स गाइड टू एम्पायर’ आई।
फिर साल 2009 में रॉय ‘इंडिया, लिसनिंग टू ग्रासहॉपर्स: फ़ील्ड नोट्स ऑन डेमोक्रेसी’ नाम की क़िताब लेकर आईं. ये क़िताब ऐसे निबंधों और लेखों का संग्रह थीं, जो समकालीन भारत में लोकतंत्र के अंधेरे हिस्से की पड़ताल करते हों।
अरुंधति रॉय और उनसे जुड़े विवाद
अरुंधति नर्मदा बचाओ आंदोलन सहित देश के कुछ अन्य आंदोलना में सक्रिय रूप से जुड़ी थीं। नर्मदा बचाओ आंदोलन मेधा पाटकर की अगुवाई में कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के गुटों ने किया था, जो गुजरात में सरदार सरोवर बांध परियोजना की वजह से विस्थापित आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे थे।
इस आंदोलन में रॉय की भागीदारी को गुजरात के कई राजनेताओं ने गुजरात विरोधी रुख के तौर पर देखा।
अरुंधति रॉय के लेख ‘द एंड ऑफ़ इमैजिनेशन’ ने राजनीतिक लेखक के तौर पर उनकी शुरुआत का संकेत दिया। द न्यूयॉर्क टाइम्स में अपने एक आलेख में सिद्धार्थ देब ने रॉय के इस आलेख का ज़िक्र करते हुए लिखा, “रॉय ने परमाणु परीक्षणों के समर्थकों पर सैन्य ताकत के प्रदर्शन में आनंद लेने का आरोप लगाया। उन्होंने (समर्थकों) उस अंधराष्ट्रवाद को गले लगाया जिसके बल पर आज़ादी के बाद दूसरी बार बीजेपी सत्ता में आई।”
रॉय का ये आलेख आउटलुक और फ्रंटलाइन जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एकसाथ छपा और उन्होंने राजनीतिक लेखक के रूप में आगाज़ किया।
वह गुजरात में साल 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगों के समय से ही नरेंद्र मोदी की सरकार के ख़िलाफ़ मुखर रही हैं। बाद में उन्होंने ओडिशा में बॉक्साइट खनन की योजनाओं पर भी अपनी राय रखी।
रॉय ने भारत में नक्सल आंदोलन पर भी काफ़ी कुछ लिखा है. वह अक्सर कहती रही हैं कि एक आदिवासी जिसे कुछ भी नहीं मिलता, वह सशस्त्र संघर्षों में शामिल होने के अलावा और क्या करेगा।
बीजेपी ने रॉय पर मुक़दमा चलाने को लेकर क्या कहा?
दिल्ली के उपराज्यपाल की ओर से अरुंधति पर यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाए जाने की मंज़ूरी के बाद बीजेपी प्रवक्ता तुहिन सिन्हा ने रॉय के 14 साल पुराने बयान की आलोचना की।
उन्होंने एक समाचार चैनल से कहा कि रॉय को ऐसे ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान देने की आदत है। अगर इस अकेले मामले को देखें,ये साल 2010 का मामला है। जिसमें रॉय ने कथित तौर पर कहा था कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है। इस मामले को एक तर्कसंगत अंत तक लाने के लिए तो उपराज्यपाल की तारीफ़ होनी चाहिए।
अरुंधति के जानकार उनके बारे में क्या कहते हैं?
लेकिन अरुंधति रॉय के साथ काम कर चुके लोगों की राय कुछ अलग है।
उदाहरण के लिए ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गुजरात के पर्यावरण कार्यकर्ता रोहित प्रजापति कहते हैं कि उन्होंने आंदोलन के दिनों में देखा कि अरुंधति के मन में आदिवासियों की समस्याओं को दुनिया के सामने रखने का अलग ही जुनून था।
रोहित प्रजापति कहते हैं, “वह आसानी से आम लोगों से जुड़ जाती थीं। वह भारत में दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों जैसे बेज़ुबान लोगों की आवाज़ हैं. हम तो एक कार्यकर्ता के तौर पर उनके (बेज़ुबान लोगों) लिए काम करते हैं लेकिन उनके (अरुंधति) जैसे लोग ही हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर तक उनकी आवाज़ों को सामने लाते हैं।”
वह कहते हैं, “मैंने आंदोलन में उनके साथ मिलकर काम किया है और तब से हम अच्छे दोस्त हैं. मैं कह सकता हूं कि वह जो भी सोचती और करती हैं पूरी दृढ़ता से करती हैं। अधिकांश जानेमाने लेखों के उलट, उनका ज़मीनी स्तर पर लोगों से गहरा जुड़ाव है और वह अपने आसपास के सभी लोगों को उनके नाम से पहचान सकती हैं।”
मज़दूर किसान शक्ति संगठन के निखिल डे भी नर्मदा बचाओ आंदोलन के दौरान अरुंधति रॉय के साथ काम कर चुके हैं।
लेखन के प्रति उनके जुनून के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं, “उनमें लिखने का कौशल तो है ही लेकिन इसके साथ ही वह हमेशा ईमानदारी से एक लेखक के धर्म का पालन करती रही । बिना किसी एजेंडे के उन्होंने हमेशा अपनी बात कही है।”
वहीं जानीमानी लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन का भी कुछ यही कहना । वह मानती हैं कि वैश्विक स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि अरुंधति रॉय भारत का प्रतिनिधित्व करती हैं.
उन्होंने कहा, “रॉय एक हिम्मती लेखिका हैं. मुझे यकीन है कि जब वह साल 2010 में कश्मीर पर बोल रही थीं, तो उन्हें पता था कि उन्होंने कितना बड़ा जोखिम लिया है। इसलिए मुझे उनकी चिंता भी नहीं है। लेकिन ये (यूएपीए के तहत मुक़दमा) दुनिया को ये बताने का अच्छा तरीका है कि भारत में क्या हो रहा है।”
प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कविता कृष्णन ने कहा, “मोदी खुद को वैश्विक स्तर पर उजागर नहीं कर रहे, बल्कि ऐसा कर के वह खुद को शर्मिंदा कर रहे हैं।”
भारतीय समाज को समझने की अरुंधति रॉय की क्षमता के बारे में उन्होंने कहा कि “वह उन लोगों में से हैं, जिनमें कूट-कूट कर ईमानदारी भरी है। हम उनके लेखन में ये देख सकते हैं. वह ज़मीनी हकीकत से जुड़ती हैं और खुद को समाज का हिस्सा मानती हैं। उनमें अपनेपन की भावना है।”
कविता कृष्णन ने कहा, “रॉय के काम में ईमानदारी और निष्ठा है।”
न्यूयॉर्क में रहने वाले भारतीय लेखक और संपादक सलिल त्रिपाठी अरुंधति रॉय की हिम्मत और सोच में स्पष्टता के साथ-साथ उनके जुनून की भी तारीफ़ करते हैं.
वो कहते हैं, “भले ही मैं उनके सभी विचारों से सहमत न हो सकूं, लेकिन मैं उनकी खुद के विचारों को व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान करता हूं और हमेशा उस हक़ का बचाव करूंगा।”
रॉय के काम के बारे में बात करते हुए वो कहते हैं, “उनकी वजह से ही तीखी प्रतिक्रियाएं आती हैं. जो लोग उनसे सहमत हैं उनका बड़े जोश के साथ बचाव करते हैं, लेकिन जो उनसे असहमत हैं, वो उतनी ही शिद्दत से उन्हें नापसंद करते हैं। दोनों पक्षों के ये विचार मज़बूत होते जाएंगे। लेकिन उनके (अरुंधति) विचार नहीं बदलेंगे, उनका अब तक किया काम इससे प्रभावित नहीं होगा।”
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर घनश्याम शाह अरुंधति रॉय से कई बार मिल चुके हैं।
शाह ने इस दौरान ये पाया कि अरुंधति रॉय भारतीय समाज में गहरी पैठ रखती हैं और अपने लेखन के प्रति समर्पित हैं।
वह कहते हैं, “मैंने पाया कि वह अपने विचारों को लेकर बहुत दृढ़ हैं।”
अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत केस चलने के मायने
अरुंधति रॉय के साथ काम करने वाले या उनके पाठक रहे लोगों की उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने के बारे में अलग-अलग राय है।
सलिल त्रिपाठी कहते हैं, “ख़ुद को कमज़ोर और असुरक्षित मानने वाली सरकार या समाज ही असहमति के स्वर को दबा सकते हैं।”
वहीं निखिल डे सवालिया लहज़े में कहते हैं, “मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि उनपर मुक़दमा चलाकर भारत क्या उदाहरण पेश कर रहा है। अगर वह ख़ुद को अभिव्यक्त कर रही हैं, तो आप उनकी अभिव्यक्ति को पसंद या नापसंद कर सकते हैं, लेकिन आप यूएपीए की गंभीर धाराओं के तहत मुक़दमा कैसे चला सकते हैं। ये ऐसा क़ानून है जो आतंकी गतिविधियों से जुड़ा है. दुनियाभर में लोग इस पर हंसेंगे।”
उन्होंने कहा कि यूएपीए जैसे क़ानून के तहत अरुंधति रॉय पर केस चलाने से निश्चित तौर पर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत की छवि खराब होगी.
वह कहते हैं कि ये पहली बार नहीं जब रॉय सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ खड़ी हों, उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और वंचित वर्गों के बारे में लिखा है।
उन्होंने कहा, “मैंने देखा है कि हर मामले के बाद वह पहले से कहीं अधिक मज़बूती से सामने आती हैं।”
कुछ लेखकों ने 14 साल पुराने मामले में रॉय के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की मंज़ूरी देने के लिए उपराज्यपाल की आलोचना भी की।
कविता कृष्णन ने कहा कि मोदी सरकार की ओर से लेखकों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं पर यूएपीए के तहत आरोप लगाना अब उबाऊ हो रहा है।
वह कहती हैं, “मेरा मानना है कि ये एक तरह से उनके लिए उलटा पड़ सकता है क्योंकि दुनिया को पता चल जाएगा कि वो तानाशाह हैं जो हमारे समय के सबसे महान लेखकों में से एक पर राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों का आरोप लगा रहे हैं।”
“मुझे लगता है कि एक तरह से ये घटनाक्रम भारत के लोकतांत्रिक आंदोलन के लिए बहुत अच्छा है क्योंकि ये दुनिया के सामने उन्हें बेनकाब करेगा। मुझे इसमें ज़रा भी संदेह नहीं कि उपराज्यपाल सिर्फ़ सरकार के निर्देशों पर काम कर रहे हैं।”
वैश्विक स्तर पर क्या असर होगा?
घनश्याम शाह का मानना है कि अरुंधति रॉय के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने से निश्चित तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे लोकतांत्रिक मापदंडों में भारत की रैंकिंग ख़राब होगी।
शाह की तरह ही जाने-माने लेखक आकार पटेल ने कहा, “फ़्रीडम हाउस, वैरायटी ऑफ़ डेमोक्रेसीज़, द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट सहित वैश्विक स्तर पर कई अन्य डेमोक्रेसी इंडिकेटर्स पर भारत की रैंकिंग गिरी है. मुझे लगता है कि ये (केस) एक विडंबना है। इससे दुनिया को यह संदेश जाएगा कि मोदी सरकार के लिए असहमति असहनीय है।”
वहीं, सलिल त्रिपाठी कहते हैं, “अगर उनपर मुक़दमा चलाया जाता है, तो इससे भारत की वैश्विक छवि को नुक़सान ही होगा। सभ्य, लोकतांत्रिक देशों में समाज अपने प्रतिष्ठित लेखकों और कलाकारों का सम्मान करता है, भले ही शक्तिशाली और प्रभावशाली अभिजात वर्ग उनके विचारों को नापसंद करता हो। केवल तानाशाही शासन में ही लेखकों को सताया जाता है। कुछ न हो तो भी ये केस इस दृष्टिकोण को मज़बूत करेगा कि संसदीय बहुमत खोने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं बदली। वह चुनावी नतीजों से ग़लत सबक ले रही है।”
अरुंधति रॉय के लिए आगे क्या?
अहमदाबाद के वरिष्ठ अधिकवक्ता आईएच सैयद कहते हैं, “इस मामले में यूएपीए की धाराओं को मंज़ूरी देने में अनुचित तौर पर देरी हुई है। जब तक इस देरी के लिए कुछ सटीक स्पष्टीकरण नहीं मिलता, अदालत निश्चित रूप से अरुंधति रॉय की सुनेगी।”
उन्होंने कहा, “अरुंधति रॉय भी इस तर्क (मंज़ूरी में देरी) के आधार पर मुक़दमे को कोर्ट में चुनौती दे सकती हैं।”
फ़्रंटलाइन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार यूएपीए के तहत रॉय पर मुक़दमा चलाना क़ानूनी रूप से कमज़ोर हो सकता है क्योंकि इसमें स्पष्टता की कमी है।
रॉय और कश्मीर के पूर्व प्रोफेसर शेख़ शौकत हुसैन के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 153ए, 153बी, 504, 505 और यूएपीए की धारा 13 के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई है।
धारा 153 धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने से जुड़ी है, धारा 153बी राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक आरोपों, बयानों के लिए दंड का प्रावधान करती है। धारा 505 जानबूझकर शांति भंग करने के इरादों से संबंधित है। बीबीसी से साभार