(19 अप्रैल – चार्ल्स डार्विन की स्मृति में)
हम सब एक हैं– डार्विन की वैज्ञानिक चेतना आज और ज़रूरी है
– धर्मेन्द्र आज़ाद
उन्नीसवीं सदी में जब तमाम धार्मिक कथाएँ यह दावा कर रही थीं कि जीवन किसी ईश्वर की विशेष रचना है, तब चार्ल्स डार्विन ने विज्ञान की मशाल लेकर वह रास्ता दिखाया जिससे हम खुद को और इस दुनिया को सच में समझ सकें। उन्होंने यह स्थापित किया कि हम सब — मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, कीटाणु — एक ही विकास-श्रृंखला की कड़ियाँ हैं। कोई जन्म से श्रेष्ठ नहीं, कोई नीच नहीं। हम सब एक ही जैविक प्रक्रिया की संतान हैं।
डार्विन का विकासवाद कोई मत नहीं, बल्कि वैज्ञानिक यथार्थ है।
1831 में ‘एचएमएस बीगल’ से शुरू हुई उनकी यात्रा सिर्फ भौगोलिक नहीं थी — वह एक बौद्धिक क्रांति, जीव विकास को वैज्ञानिक तरीक़े से देखने की शुरुआत थी। गैलापागोस द्वीपों पर पक्षियों की चोंचों में अंतर देखकर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि जीव-जंतु स्थिर नहीं हैं, वे अपने पर्यावरण के अनुसार बदलते रहते हैं। इसी से उन्होंने ‘प्राकृतिक वरण’ (Natural Selection) का सिद्धांत प्रतिपादित किया — जो जीव अपने परिवेश के अनुरूप होता है, वही जीवित रहता है और अपनी संतति को आगे बढ़ाता है।
यह सोच सिर्फ एक वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं थी — यह धार्मिक सत्ता और नस्लीय-जातिगत श्रेष्ठता के दावों के ख़िलाफ़ सीधी चुनौती थी। डार्विन ने दिखाया कि कोई ‘ऊपर से भेजा गया विशेष प्राणी’ नहीं होता। नस्ल, जाति, धर्म, लिंग, रंग — ये सब सामाजिक कल्पनाएँ हैं, जैविक सच्चाई नहीं। प्रकृति के नज़रिए से हम सब बराबर हैं — और धरती पर सबका समान अधिकार है।
और आज भारत में हो क्या रहा है?
जब स्कूलों के पाठ्यक्रम से डार्विन के सिद्धांत को हटाया जाता है,
जब बच्चों को यह सिखाया जाता है कि “हमें ब्रह्मा या किसी देवी-देवता ने बनाया”,
तब यह हमला केवल डार्विन पर नहीं होता —
यह हमला होता है तर्क पर, विज्ञान पर, और मनुष्य की गरिमा पर।
जो सरकारें विज्ञान के स्थान पर धार्मिक मिथकों को थोपना चाहती हैं,
वे एक ऐसे समाज की नींव रख रही हैं जहाँ वैज्ञानिक सोच को दबाया जाए,
जहाँ वर्ण व्यवस्था को ‘पिछले जन्मों के कर्मों का परिणाम’ बताकर उसे और भी मजबूत किया जाए,
जहाँ इंसान को धर्म, जाति और अंधश्रद्धा के दलदल से बाहर न निकलने दिया जाए।
लेकिन डार्विन की वैज्ञानिक विरासत इस अंधकार के ख़िलाफ़ रोशनी है।
डार्विन हमें याद दिलाते हैं कि
कोई मनुष्य ऊँचा नहीं, कोई नीचा नहीं,
कोई जन्म से महान नहीं, कोई अभागा नहीं।
हम सब एक ही विकास की यात्रा के साथी हैं —
प्रकृति की समान संतानें।
डार्विन को याद करना आज का वैज्ञानिक संघर्ष है।
यह तर्क, समानता और चेतना की उस परंपरा को आगे ले जाना है
जो हर बच्चे, हर जीव, हर समुदाय को
इस धरती पर समान अधिकार और सम्मान देने की बात करता है।
क्योंकि यह धरती किसी एक जाति, धर्म या वर्ग की जागीर नहीं —
यह धरती सबकी है।
लेखक -धर्मेन्द्र आज़ाद