साहित्य चिंतन

आनंद प्रकाश जी साहित्य के गंभीर अध्येता और चिंतक हैं। हिंदी समालोचना के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हिंदी के गिने चुने बुजुर्ग साहित्यकारों में हैं जो फेसबुक पर सक्रिय हैं। हिंदी और अंग्रेजी में वह बहुत छोटी-छोटी टिप्पणियां फेसबुक पर लिखते रहते हैं। साहित्य चिंतन नाम से अब तक उन्होंने 21 टिप्पणी लिखी थी कोई एक पैरा – दो पैरा और कुछ तो उससे भी छोटी। इस बार उपन्यास पर उन्होंने थोड़ी बड़ी टिप्पणी लिखी है जिसे मैं प्रतिबिम्ब मीडिया में देने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। लीजिए आप भी उसका आनंद लीजिए। संपादक

साहित्य चिंतन – 22

आनंद प्रकाश

इस बार लंबी पोस्ट! इसमें फेसबुक दोस्तों के धैर्य की परीक्षा भी हो जाएगी।

सभ्यता के शुरुआती वक्त में काव्य, नाटक, कहानी, शिक्षा और विचार, आदि अपनी संपूर्णता में साहित्य के अंतर्गत आते थे। लेकिन पिछली दो-तीन सदियों में वहां प्रत्येक को स्वतंत्र विधा के अंतर्गत रखा जाने लगा है। उसमें यह भी जोड़ें कि बीसवीं सदी के दौरान खास तौर से उपन्यास ने लोकप्रिय श्रेणी की तरह अपनी पहचान स्थापित की है। पहले उसे मात्र लंबी कहानी की तर्ज़ पर समझा गया — वह कहानी जिसमें विस्तार और विवरण-बहुलता थी।

उपन्यास लेखन के संदर्भ में चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने पिछली सदी के पहले दशक में, यानी 1905 में छपे ‘हिंदी भाषा के उपन्यास लेखकों के नाम’ शीर्षक निबंध में बहुत ही सटीक बयान दिया जो इस प्रकार है:

“उस अपने ही गांव के मित्र का तुम क्या करोगे जिसने तुम्हारे भाई से थानेदारी छीन ली? उस ने पाठशाला के अध्यापक का क्या करोगे जो ‘सद्ध्युपास्य:’ भी स्लेट पर लिखकर साधता है और जिसके पढाने की ढाल उसके पूर्वज से बुरी होने से दुखदायक है? उस योग्य नौकर का क्या करोगे जो अपने एक दोष से आपका सिर खपाता है? अपने पड़ोसी रामसेवक का क्या करोगे जिसने बीमारी में आपकी इतनी सेवा की, परंतु जब से आप अच्छे हुए आपके विषय की अनुचित बातें गांव में फैलाई? और भला अपनी उस प्राणप्यारी कमलनयनी का क्या करोगे जिसका चिढ़ाने वाला स्वभाव उस समय कांच की चूड़ियों की चर्चा छेड़ता है जिस समय आप उसे रूस-जापान के युद्ध का कारण समझाते हो या अपने अटल प्रेम के अनुमोदन में हवा में हाथ हिलाकर व्याख्यान दे रहे हो? इन साथी मर्त्यों में प्रत्येक जैसा है उसे वैसा ही लेना और समझना पड़ेगा, तुम न उनके नाक सीधे कर सकते हो, न उनकी हंसी को चमका सकते हो , न उनके स्वभावों को ठीक कर सकते हो, और इन लोगों को ही, जिनमें आपको अपना जीवन बिताना पड़ेगा, सहना, सम्हालना और प्यार करना आवश्यक है। ये ही न्यूनाधिक कुरूप, मूर्ख और असंबद्ध मनुष्य वे हैं जिनकी भलाई की बड़ाई करने को तुम्हें समर्थ होना चाहिए और जिनके लिए तुम्हें यथासंभव आशा और यथासंभव संतोष काम में लाना पड़ेगा। यदि मुझमें सामर्थ्य भी हो तो मैं वह चतुर उपन्यास लेखक नहीं होना चाहता जो इस जगत से ऐसा अच्छा जगत बना देता है कि जिस जगह में हम प्रत्येक प्रातः काल अपना काम करने को उठते हैं, उसको कर मेरे ग्रंथ को पढ लेने पर रेतीली सड़कों और साधारण हरे खेतों पर तुम उपेक्षा की निर्दय द्रष्टि डालो — सच्चे श्वास लेते हुए मनुष्यों पर तुच्छता लगाओ जो तुम्हारी उदासीनता से ठिठुर सकते हैं, जिन्हें तुम्हारी सहानुभूति, दया, और स्पष्टवादी वीरन्याय से भरोसा और काम में सहायता मिल सकती है। मैं नहीं चाहता कि तुम सच्चे मनुष्यों को भूलकर ऐयारों के लिए आह भरते फिरो।” (290-291) — पीयूष गुलेरी, सं. गुलेरी रचना संचयन, नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी, 2010.

इस उद्धरण में उन पांच सवालों पर ग़ौर करें जिन्हें गुलेरी ने उठाया है। यहां हर सवाल आधुनिक समाज में रचे-बसे आम लोगों की तरफ़ इशारा करता है, वे सब भाई-भाई के बीच होने वाली छीना-झपटी, पाठशाला के अध्यापक की परेशानी, नौकर द्वारा माहौल में खीझ पैदा करने की आदत, पड़ोसी का दुतरफा व्यवहार, और पत्नी का अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी न लेना जैसे मजमून हैं जिन्हें उपन्यासकार अपने चित्रण में पाठकों के लाभार्थ इस्तेमाल करता है। ज़ाहिर है ये मुद्दे अतीत में न थे जब काव्य में भाव-स्थिति और छंद पर ज़ोर था और नाटक के संवाद में तेज़ी का प्रयोग होता था, न कि व्याख्या का। यह भी पहचानें कि गुलेरी की टिप्पणी में मनुष्य-स्वभाव से जुड़े एवं भाषा-संबंधी वे सब गुण हैं जो उपन्यास में होते हैं। यह अलग बात है कि गुलेरी ‘चतुर उपन्यास लेखक’ की श्रेणी में शामिल होने से बचना चाहते हैं। यहां विषयों के अतिरिक्त गुलेरी पूरी स्पष्टता से उपन्यास के मेज़ाज पर भी अपना सधा हुआ मंतव्य प्रकट करते हैं। गुलेरी अपनी तरफ से उपयोगी सलाह देते हैं कि उपन्यासकार को ‘साथी मर्त्यों में प्रत्येक जैसा है उसे वैसा ही लेना और समझना पड़ेगा’ और किसी सुधारवादी अथवा नैतिक नज़रिए से दूर रहना होगा। देखें कि गंभीर और सार्थक रचना के लिए यह विचार अतिशय मूल्यवान है और व्यापक साहित्य के लिए मजबूत आधार बन सकता है। स्वयं गुलेरी ऐसा तभी कह पाए क्योंकि उन्होंने अपना हाथ कुछ समय के लिए कहानी विधापर आजमाया था। बहरहाल मानें कि आधुनिक हिंदी साहित्य में उपन्यास का उक्त गुण बीसवीं सदी के आरंभ में समझ लिया गया था।

गुलेरी के इस वक्तव्य से यह नहीं ग्रहण किया जा सकता कि उसका सीधा ताल्लुक हिंदी में उभरी तत्कालीन उपन्यास परंपरा से है। ज़रूर इसमें पश्चिमी उपन्यास लेखन की विकसित आलोचना दृष्टि झलकती है। स्वयं प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद लंबी कथा पर अपना नज़रिया काफी देर बाद विकसित कर पाए, यद्यपि वह एकसाथ उद्देश्य, मनोरंजन और व्याख्या के मिलान का समर्थन करते थे और अपने रवैये में सर्वाधिक प्रामाणिक कहे जा सकते थे।