जनता को “क्रांतिकारी वाणी और हौसला देने वाले गजल सम्राट” दुष्यंत कुमार 

दुष्यंत कुमार के जन्मदिन पर विशेष 

       मुनेश त्यागी

 

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं 

मेरी पूरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए।

    30 दिसंबर 1975 के बाद अचानक ये पंक्तियां मेरठ कॉलेज की दीवारों पर छा गईं। मेरठ कॉलेज के हॉस्टलों में रहने वाले लड़के इन्हें गाते फिरने लगे। हमने भी सबसे पहले इन महान पंक्तियों को आर डी हॉस्टल में रहते हुए देखा और सुना और इसके बाद ये अमर पंक्तियां हमारे जीवन की मार्गदर्शन बन गईं और ये तत्काल ही हमें कंठस्थ हो गईं। इन महान क्रांतिकारी पंक्तियों के लेखक गजल सम्राट दुष्यंत कुमार थे। हमने इन पंक्तियों को अपने जीवन में सैंकड़ों मीटिंगों और गोष्ठियों में उद्धरित किया है और बहुत सारे लोगों को इनसे प्रभावित किया है।

इन क्रांतिकारी पंक्तियों ने बहुत सारे न्यायाधीशों, अधिकारियों, कर्मचारियों और राजनीतिक और मजदूर नेताओं को प्रभावित किया है। जब हम इन पंक्तियों को 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर और दूसरे संघर्षशील मौकों पर गाते सुनाते थे तो अधिकांश, जज, कर्मचारी और संघर्षरत नेता और जनता इसे बहुत प्रभावित होते थे। हमारा निजी अनुभव यह है कि हमने दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों को इन अधिकारियों और जजों के समक्ष गा गा कर इन्हें प्रभावित किया और इसे बहुत सारे न्यायोचित काम कराये और बहुत सारे फैसले जनता के हित में कराये।

भारतीय साहित्य के गजल सम्राट जिन्होंने सबसे पहले गजल को हिंदी में लिखना शुरू किया और किसान मजदूर गरीबों वंचितों के मुद्दों को सबसे पहले गजल का विषय बनाया और गजल के माध्यम से जनता के दुःख दर्दों का बखान किया और उन्हें साहित्य के केंद्र में लाये, आज उन्हीं का जन्मदिन है दुष्यंत कुमार 1 सितंबर 1933 को राजपुर नवादा, नजीबाबाद, बिजनौर में पैदा हुए थे। हिंदी में ग़ज़ल का आगाज करने वाले हिंदी के महान कवि गजलकार दुष्यंत कुमार ( दुष्यंत कुमार त्यागी) का देहान्त 30 दिसंबर 1975 को हुआ था।

भारतीय साहित्य का एक देदीप्यमान सितारा ऐसा चमका कि अल्पायु में ही सबको चकाचौंध करके चला गया। यह साहित्यिक नक्षत्र और कोई नहीं बल्कि महान गजलकार दुष्यंत कुमार ही थे। उन्होंने विस्फोटक गजलें लिखकर हिंदी कविता का रचनात्मक मिजाज ही बदल दिया था। उनकी गजलें आदमी की पीड़ा भरी आवाजें हैं। “मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं।” कहने वाले दुष्यंत कुमार कभी चुप नहीं रहे, बल्कि औरों की भी चुप्पी तोड़ते रहे और औरों को भी क्रांतिकारी वाणी और ज़बान देकर गए।

दुष्यंत कुमार का सबसे बड़ा योगदान और प्रभाव यह है कि जैसे उन्होंने आने वाली पीढ़ी की सोच ही बदल दी। उन्होंने बहुत सारे रचनाकारों को, गजलकारों को और कवियों को प्रभावित किया और दुष्यंत कुमार के बाद बहुत सारे कवियों ने उनकी तर्ज पर जनता के दुख दर्द को अपनी कविताओं और गजलों में पिरोया, उन्हें नई वाणी दी, उनका हौंसला बढ़ाया और इस प्रकार उन्होंने दुष्यंत कुमार की क्रांतिकारी गजल और कविता की मुहिम को आगे बढ़ाया और उसे बहुत विस्तार दिया।

उनकी कलम से सत्ता और सिंहासन हिलते थे। उन्होंने जो देखा और भोगा, वही व्यक्त किया। वे अपने समय की असंगतियों और निराशाओं से भागे नहीं, बल्कि लोगों को इनसे जूझने और संघर्ष करने का आह्वान किया। उनकी गजलें आम आदमी की आवाज बन गईं। उनकी रचनाएं निरर्थक और बौद्धिक बोझिलता से सदैव दूर रहीं। उन्होंने चौकानेवाले या आतंकित करने के लिए नहीं, बल्कि समाधान प्रस्तुत करने के लिए अपनी कविता को धार दी।

दुष्यंत कुमार अपने को आमजन का कवि मानते थे। उनका कहना था कि “मैं प्रतिबद्ध कवि हूं।” यह प्रतिबद्धता उनकी आदमी से थी, आमजन थी, सत्ता से नही। कवि कमलेश्वर उनके बारे में कहते हैं कि “दुष्यंत एक साहित्यकार बनकर आए और एक महान और जनता का साहित्यकार बन कर चले गए” उन्होंने समाज की गरीबी, भुखमरी और बदहाली पर कविताएं लिखी और इन्हें बदलने के लिए समाज और कवियों को ललकारा। उनकी गजलों में निराशा का भाव नहीं है, वहां आशा और विश्वास है। वे समाधान प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताएं क्रांतिकारी हैं। वे इस जनविरोधी समाज को बदलने का आह्वान करती हैं।

उनकी महानता और अमरता का कारण उनकी भाषा है। उनकी भाषा आम जन की भाषा है। वे हिंदी और उर्दू को सिंहासन से उतार कर, आमजन के पास ले गए और फिर यह भाषा, इन्हीं की भाषा होकर रह गई और इन दोनों भाषाओं को आम जन की भाषा बना दिया। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई और जनता के दुख दर्द को अपनी रचनाओं का रुधिर और मज्जा बनाए रखा।

उनकी रचनाओं में किसान, मजदूर, कारीगर, लोक समर्पित कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी शामिल थे। वे सब तरह की जड़ता का खात्मा करना चाहते थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की इंकलाबी मंशाओं, आकांक्षाओं, क्षमताओं और संवेदनाओं को दिशा दी। उन्होंने ग़ज़ल के जरिए साहित्य को सामाजिक बदलाव का जरिया बनाया। उन्होंने देश, समाज और जनता के मुद्दों और समस्याओं को अपनी रचनाओं में उकेरा।

दुष्यंत कुमार उस साहित्य का हिस्सा है जो लोगों के लिए जीता मरता है, उनमें आशा और अजेयता का संचार करता है, अंधेरों से लड़कर रोशनी पैदा करता है। वह गुमराह, भटके हुए और दिशाहीन लोगों को सही दिशा प्रदान करता है। उन्होंने शासन और सत्ता के विरुद्ध नारे रचे। उनकी कविताएं और गजलें देशकाल का अतिक्रमण करके दिलो-दिमाग में उतर जाती हैं, तभी तो वे कहते हैं कि…

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं

मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग, मैं चुप कैसे रहूं?

     हिंदी में ग़ज़ल की शुरुआत करने वाले महान कवि और गजलकार दुष्यंत कुमार ने अपनी जिंदगी में हर मौके के अनुसार सैकड़ों, हजारों शेर और गजलों की रचना की है और ग़ज़ल को ठेठ उर्दू से निकालकर हिंदी में लाए हैं। हिंदी में यानी जनता की आम भाषा में ग़ज़ल कहने का सबसे पहला श्रेय गजलकार सम्राट दुष्यंत कुमार को ही जाता है। दुष्यंत कुमार अपनी रचनाओं में बेबाक व्यंग करते हैं, चिंगारी की बात करते हैं, अंधेरा खत्म करने की बात करते हैं, कुरान, उपनिषद और अंधविश्वासों पर करारी चोट करते हैं। यही उनकी सबसे खास बात है। यह उनके निम्नलिखित शेरों से देखा जा सकता है…

 

यह सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां 

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है।

एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों 

इस दीए में तेल की भीगी हुई बाती तो है। 

कैसी मशालें लेकर चले तीरगी में आप 

जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही। 

हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग

रो रो के बात कहने की आदत नहीं रही।

गजब है सच को सच कहते नहीं वो 

कुरानो उपनिषद खोले हुए हैं।

मजारों से दुआएं मांगते हो 

अकीदे किस तरह पोले हुए हैं। 

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में 

हम नहीं है आदमी, हम झुंझुने हैं।

 

दुष्यंत कुमार अपनी रचनाओं में रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा होने से बचने की बात करते हैं, जन विरोधी सियासत पर बेबाक चोट करते हैं, पूरे हिंदुस्तान की बात करते हैं, अंधेरों पर चोट करते हैं और अंधा तमाशबीन बनने से मना करते हैं। उनके निम्नलिखित शेरों से यह सब देखा जा सकता है…

 

रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया 

इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।

कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता 

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।

आप दीवार गिराने के लिए आए थे 

आप दीवार उठाने लगे यह तो हद है।

मस्लहत आमेज होते हैं सियासत के कदम 

तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए 

मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

 

मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं 

हर गजल अब सल्तनत के एक बयान है।

मेरी जुबान से निकली तो सिर्फ नज्म हुई

तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई।

 

फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए 

हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है।

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए 

इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।

 

गूंगे निकल पड़े हैं जुबां की तलाश में 

सरकार के खिलाफ यह साजिश तो देखिए।

रौनके जन्नत जरा भी मुझको रास आई नहीं 

मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं 

मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

  और यह ग़ज़ल, पिछले 50 सालों की सबसे उम्दा और सर्वश्रेष्ठ गजल। इस ग़ज़ल का कमाल है, यह गजल दुनिया में सबसे ज्यादा गायी गई है, मीटिंगों का आगाज होने पर, सभाओं में, बैठकों में, स्कूलों में, कॉलेजों में, यूनियनों में, विधान सभा के पटल पर, संसद के पटल पर, क्रांतिकारी आंदोलनों में, संघर्ष के मैदानों में, किसानों मजदूरों नौजवानों विद्यार्थियों और महिलाओं के आंदोलनों में, यह ग़ज़ल सबसे ज्यादा गायी जाती है। इसका कोई तोड़ नहीं है। कोई भी क्रांतिकारी प्रोग्राम शुरू होता है तो उसका आगाज भी इसी ग़ज़ल से होता है और अब तो यह भी कमाल हो गया है कि जनविरोधी, देशविरोधी, मनुष्य विरोधी, सांप्रदायिक, जातिवादी और वर्णवादी ताकतें भी इस ग़ज़ल का प्रयोग करती हैं। यहीं पर गजलकार सम्राट दुष्यंत कुमार, कबीर, मीर, गालिब और क्रांतिकारी कवि शंकर शैलेंद्र की पंक्ति में खड़े हो जाते हैं। उनकी याद में, उन्हीं की यह सबसे मशहूर ग़ज़ल पेश है…

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं

मेरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए।

आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी 

शर्त मगर थी कि बुनियाद दिल्ली चाहिए। 

हर गली हर गांव से हर सड़क हर शहर से

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 

मेरे सीने में न सही तेरे सीने में ही सही 

हो कहीं भी मगर आग जलनी चाहिए

 

दुष्यंत कुमार की गजलें आज भी अपना क्रांतिकारी स्वरूप बनाए हुए हैं। इन्हें जब जनता के बीच गाया जाता है और उनकी कविताओं को किसानों, मजदूरों और संघर्षरत लोगों को सुनाया जाता है तो वे तत्काल इन्हें हाथों-हाथ लेते हैं। कबीर के बाद दुष्यंत कुमार आज भी सबसे ज्यादा गाए जाने वाले क्रांतिकारी कवि बने हुए हैं। आज भी बहुत सारे साहित्यकार दुष्यंत कुमार की कविताओं और गजलों को पसंद करते हैं। अब यह तमाम जनवादी, प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों और साहित्यकारों का सबसे बड़ा काम हो गया है कि वे एक बार फिर से दुष्यंत कुमार की इन ग़ज़लों और कविताओं को संघर्षरत जनता के बीच ले जाएं ताकि जनता को नई रोशनी, नई वाणी और नया हौंसला मिल सके।