10अप्रैल जन्म दिवस पर विशेष
डा. ए.टी.कोवूर: वैज्ञानिक चेतना को समर्पित जीवन
गुरमीत अंबालवी
अंधविश्वास और तर्कशीलता का, जब से इन्सान ने होश सम्भाला तब से रिश्ता रहा है। भारत में चार्वाक, गौतम बुद्ध प्राचीन समय के अंधविश्वासी, कर्मकाण्डी समाज के लिए एक चुनौती बन कर उभरे थे। बाद के काल खंड में भी समय-समय पर मानवीय समाज को अंधविश्वासी रखने वाली शक्तियों के खिलाफ तर्कशील और वैज्ञानिक चिन्तन रखने वाले समाज हितैषी लोगों ने कड़ी चुनौती दी है। ऐसी ही महान शख्सियत थे, डा. अब्राहम थामस कोवूर ।अंधविश्वासों, पाखण्डों, रूढ़िवादिताओं का विरोध तो असंख्य बुद्धिजीवियों ने किया है, लेकिन अन्धविश्वास फैलाने वाली शक्तियों को लगातार चुनौती देकर अंधविश्वास से जुड़ी घटनाओं का विश्लेषण करने का श्रेय डा. ए.टी.कोवूर को ही जाता है। उन्होंने अलौकिक एवं दिव्य कही जाने वाली घटनाओं का निरीक्षण किया। उनका प्रयोगात्मक परीक्षण भी किया और प्राप्त आंकड़ों से ऐसी घटनाओं को अलौकिक, दिव्य, प्रामानवीय कहे जाने पर कड़ी आपत्ति की तथा इस प्रकार की घटनाओं के पीछे छिपे हुए भौतिक कारणों को स्पष्ट किया। वह दुनिया की पहली शख्सियत थे, जिन्हें अमेरिका की मिनेसोटा संस्था ने इस क्षेत्र में खोज- पड़ताल करने पर पी. एच. डी. की डिग्री प्रदान की। डा.ए.टी. कोवूर ने दावा किया कि जो व्यक्ति अपने पास अलौकिक शक्तियां होने का दावा करते हैं वह या तो दिमागी गड़बड़ का शिकार हैं या फिर धोखेबाज है क्योंकि दुनिया में आज तक न तो दिव्य शक्ति वाला कोई पैदा हुआ है और न ही किसी के पास कोई ऐसी शक्तियां हैं। इस प्रकार का प्रचार केवल धर्मगुरुओं, तांत्रिकों, बाबाओं ,काले इल्म वाले ,चंगाई सभा करने वालों आदि द्वारा ही किया जाता है।
डा.ए.टी. कोवूर का जन्म तिरुवला (केरल) में 10 अप्रैल 1898 को हुआ। वह आइपतम्मा कत्तनार की दूसरी पत्नी मरियम की दूसरी संतान थे। उन्होंने अपने जन्म के बारे में तर्कशील विचार इस तरह लिखें हैं – “दूसरे लोगों की तरह मैं भी अपने माता-पिता की एक प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया का परिणाम हूँ। इसमें मेरा कोई वश नहीं, न ही इस संबंध में मुझे कोई चुनाव करने की आजादी थी, माता-पिता के चुनाव की तरह ही मातृभाषा, जाति, धर्म, जन्म, स्थान आदि का चुनाव करने का मुझ अवसर नहीं मिला ।अन्य भौतिक पदार्थों की तरह मैं भी ब्रह्मांड की एक आकस्मिक घटना का परिणाम हूँ।”
नेहुबम(केरल) के कोवूर परिवार में उनका बचपन बीता । नेहुबम के ही एक स्कूल में ही उनकी पढ़ाई शुरू हुई। 1917 में, जब वे पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे, उनके पिता आईपा तोमा कत्तनार की मृत्यु हो गई। इसके बाद परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई ई. चेरीयन के कंधों पर आ गई, 1919 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कीऔर उन्हें पादरी बनाने की बात चली क्योंकि उनके पिता जी भी पादरी रहे थे,परंतु उन्होंने उच्च विद्या प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की जिस को स्वीकार करते हुए उस समय के प्रमुख शिक्षण संस्थान पश्चिम बंगाल के सोरामपुर के क्रिश्चियन कॉलेज में उन्होंने दाखिला ले लिया और इंटर मीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की .बाइबिल की व्याख्या के संबंध में उस समय विभिन्न ईसाई समूहों में मतभेद थे, उन्होंने कॉलेज के पुस्तकालय से धर्म और ईश्वर के संबंध में काफी किताबें पढ़ीं लेकिन इससे उनके संदेह दूर होने की बजाए बढ़ते चले गए।
इंटरमीडिएट के पश्चात अब्राहम की रुचि वनस्पति विज्ञान के अध्ययन की तरफ हो गई। इसके लिए उन्होंने बँगवासी कॉलेज में प्रवेश ले लिया। कलकत्ता में रहते हुए एक मजेदार घटना के बारे में उन्होंने लिखा है।- “1921 से 1924 तक मै और मेरा भाई बहनान कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे थे। कलकत्ता मेरी जन्म भूमि तिरुवाला से लगभग 1500 मील दूर था, गंगा तट पर बसे शहर में विद्या प्राप्त करने के लिए हमारा वहाँ चले जाना गाँव वासियों के लिए एक अश्चर्यजनक घटना थी, साल में हम एक बार ही अपने घर जाते थे तथा गाँव वासी हमसे गंगा-जल लाने की प्रार्थना करते थे, उनकी नजरों में हम दोनों भाई बहुत भाग्यशाली थे, जो गंगा के किनारे रहते थे और जब मर्जी गंगा स्नान कर सकते थे,परंतु मैंने एक बार ही गंगा स्नान किया और वह भी इतना तकलीफदेह मेरे लिए बना कि कई दिन तक खाना भी ठीक तरह से नहीं खा सका। गंगा में नहाते समय एक गली सड़ी मानव लाश से मैं टकरा गया था, गंगा में मुर्दों का प्रवाह करना कुछ लोगों में एक परंपरा है, इसके अतिरिक्त अस्थियाँ एवं राख को भी गंगा में डाल दिया जाता है जिस कारण इस जल को अपने गाँव वासियों के लिए ले जाना मेरे लिए ग्लानि भरा था। इसके लिए हमने एक तरकीब निकाली, प्रत्येक बार घर आते समय हम केरल के कोटरकारा स्टेशन से जल की बोतलें भर लेते और ‘गंगा जल’ कह कर लोगों को दे देते, बहुत सारे विश्वासी लोग जब आकर कहते कि गंगा जल के सेवन से वह रोग मुक्त हो गए हैं, हम मुस्कराए बिना रह नहीं रहते।”
कलकत्ता में गुजारे अपने समय को उन्होंने अपने जीवन के सबसे ज्यादा ज्ञान अर्जन के वर्ष कहा है। उन्होंने लिखा – “1921 में जब मैं कलकत्ता पहुँचा तो कलकत्ते के पुस्तकालयों में उच्च कोटी का साहित्य उपलब्ध था। अंग्रेजी में उपलब्ध पुस्तकों को मैंने पढ़ा और निःसंदेह बाईबल के बारे में मेरी धारणा पर बेहद उल्ट असर पड़ा। जो प्रचार सिरियाई ईसाई कर रहे थे, जिस से मेरा परिवार भी जुड़ा था, तथा अन्य ईसाई सम्प्रदायों द्वारा किया जाने वाला प्रचार भी मात्र एक धोखा था, एक गहरी खोज पड़ताल के उपरांत मैं जान गया था कि आत्मा और परमात्मा की बातें सच्चाई से दूर हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों का भी एसियाटिक सोसाइटी की लाइब्रेरी में जाकर अध्ययन किया। हिन्दू धर्म का वेदांत मुझे केवल एक बौद्धिक अभ्यास ही लगा। आधुनिक हिन्दू धर्म का मूल आधार ब्राह्मणों का एकाधिकार है मैं इसके साथ अपने आप को एकसार न कर सका, परंतु भारत की नास्तिकवादी परम्परा पर मुझे गर्व है, वास्तव में कलकत्ता में गुजारे चार वर्ष मेरे तर्कशील और वैज्ञानिक चेतना से लैश होने की आधारशिला थे।”
1924 में कलकत्ता में लगातार 16-16 घंटे पढ़ने के कर्म कोवूर बीमार हो गए, उन्हें निमोनिया हो गया था। अस्पताल में दाखिल होने पर डॉक्टर ने उन्हें ईसा मसीह की प्रार्थना करने की सलाह दी तो कोवुर ने कहा- “मैं नहीं मानता कि प्रार्थना करने से दुःख दूर हो जाते हैं, अगर ऐसा है तो फिर अस्पतालों की क्या आवश्यकता है? मुझे नहीं लगता कि मेरी प्रार्थना से ईश्वर सृष्टि के विरुद्ध कार्य करेंगे, क्योंकि बीमारी दूर करने का मतलब है कीटाणुओं की हत्या करना, जोकि खुद ईश्वर ने ही बनाए हैं।” इस उत्तर के बाद डॉक्टर निरुत्तर हो गए और उसने बड़ी लगन से उनका इलाज किया।
27 नवम्बर 1924 को अब्राहम टी. कोवुर का विवाह कुनम्मा उर्फ अक्का नाम की एक प्रगतिशील विचारों की लड़की के साथ हुआ। डॉ. कोवुर का एक लड़का एरिस कोवूर हुआ जो कि फ्रांस की सोर्बोन यूनिवर्सिटी में बायो साइंस के प्रोफेसर हैं। इसके अतिरिक्त क्यूबा सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार भी वह हैं।
1928 में अब्राहम कोवूर अपनी नई नौकरी के लिए जाफना कालेज के लिए श्रीलंका पहुँचे, यहां पर कोवूर खोज और अध्ययन के कार्यों में जीजान से जुट गए। जाफना में सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा में अब्राहम टी. कोवूर को बाइबिल पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। जब परीक्षा का परिणाम आया तो सभी विद्यार्थी अच्छे अंकों के साथ पास हो गए, दूसरे वर्ष अब्राहम टी. कोवूर को बाईबल पढ़ाने से कॉलेज के प्रिंसिपल ने मना कर दिया, कोवूर ने जब इस संबंध में जानना चाहा तो प्रिंसिपल का जवाब था- “यह सच है कि आप द्वारा पढ़ाए विद्यार्थी अच्छे अंकों में उत्तीर्ण हो गए हैं, परन्तु सबका विश्वास बाइबिल से उठ गया है, इसलिए आपको बाईबल पढ़ाने की इजाजत नहीं मिलेगी।”
1943 में कोवूर ने जाफना सेंट्रल कॉलेज से त्याग पत्र दे दिया और ‘गाल’ लंका की प्राचीन बंदरगाह में रिचमंड कॉलेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। अपनी केस डायरी में उन्होंने इस जगह की कई बार चर्चा की है। तटीला श्मशान में जीवित व्यक्ति का भूत, प्रेत और सड़क हादसे , टंबलर ज्योतिष आदि पर उन्होंने यहीं पर रहते हुए लेख लिखे और उनकी दिलचस्पी मनोविज्ञान और सम्मोहन के प्रति बढ़ती गई ।
1953 में कोवूर थरस्टन कॉलेज में वनस्पति के प्रोफेसर नियुक्त हुए। इस कॉलेज में अपने 6 वर्षों के कार्यकाल में कॉलेज की बेहतरी के लिए उन्होंने बहुत काम किए, थरस्टन कॉलेज में हेरोबोरियम, अच्छी प्रयोगशाला, साइंस सोसायटी, फोटोग्राफिक क्लब आदि की स्थापना उन्होंने की। कुछ लोगों का यह मानना है कि जिस फिएट कार में कोवूर कॉलेज में आए, छः साल बाद रिटायर होकर उसी कार में बैठकर बाहर गए। अनुभव इस बात का साक्षी है कि नए कॉलेजों में विभिन्न योजनाओं में जिम्मेदारियाँ निभाते हुए कोवूर चाहते तो बहुत कुछ कमा सकते थे, परन्तु यह सब उनकी फितरत में नहीं था। सार्वजनिक धन का निजी हित में प्रयोग करने को वह हमेशा निन्दनीय कार्य समझते थे।
1959 में थरस्टेन कॉलेज से रिटायर होने के उपरांत उन्होंने श्री लंका में तर्कशील (रेशनलिस्ट)सोसाइटी की स्थापना की जिसमें बेहद सरगर्म हो गए उन्हें जहां भी अलौकिक कही जाने वाली घटना की या भूत प्रेत बाधा से ग्रस्त लोगों का पता चलता वे उसकी जानकारी लेने v समस्या का हल करने के लिए पहुंच जाते और अपने अनुभवों को विभिन्न अखबारों के माध्यम से साझा करते। वे अपनी मृत्यु तक इस संस्था के प्रधान रहे। कोलंबो में पामनक्कारा गली में उनका बंगला तर्कशील सोसाइटी का कार्यालय बना हुआ था।
1959 में डॉ. कोवूर तर्कशील सोसाइटी, श्री लंका की तरफ से यूरोप के कई मुल्कों में गए। प्रत्येक मुल्क के नास्तिक और तर्कशील संगठनों के साथ नजदीकी रिश्ते कायम करने में कोवूर सफल रहे। तिम,पादुवा,वीनस, फ्रैंकफर्ट आदि कई शहरों में तर्कशीलों ने उनका स्वागत किया। गलीलियो, ब्रूनो, वाल्टेयर, रैनन, रूसो आदि महापुरुषों के निवास स्थानों पर भी वह गए।
1961 में कोवूर इंग्लैंड पहुंचे और नेशनल सेकुलर सोसाइटी और रैशनलिस्ट प्रेस एसोसिएशन के कार्यालय में जाकर उनके नेताओं से परिचय किया। कोवूर काउंसिल ऑफ फ्री थिंकर्स के मेंबर बने। उन्होंने लंका और केरल में तर्कशील साथियों के साथ लगातार कार्य किया। उनके लिखे खोजपूर्ण लेख तमिल और मलयालम भाषा में अनुदित हुए। मलयालम के प्रसिद्ध कवि और तर्कशील विचारक कनकूड़ लेखों को पढ़कर बेहद प्रभावित हुए उन्होंने प्रसिद्ध फिल्म निर्माता एम. ओ. जोसेफ का ध्यान उन लेखों की तरफ दिलाया और एक लेख के आधार पर मलयालम तमिल और तेलुगू की “पुनर्जन्मम” फिल्म का निर्माण किया, जिसमें कोवूर ने स्वयं मनोचिकित्सक की भूमिका निभाई, पूरे दक्षिण भारत में इस फिल्म को पसंद किया गया।
कथित भूत-प्रेतों से मुक्ति अभियान में डॉ. कोवूर ने मुख्य भूमिका निभाई, उनकी इन गतिविधियों की खबरें प्रतिदिन अखबारों में छपती थी। विभिन्न राज्यों के असंख्य लोगों को कोवूर ने मनोवैज्ञानिक ढंग से ठीक किया, उनके लेखों में इन सब घटनाओं का विवरण मिलता है। उन्होंने महत्वपूर्ण लेखों को जो विभिन्न अखबारों में छप चुके थे,का संग्रह कर अपनी विश्व प्रसिद्ध किताब बीगोन गौडमैन और गॉड्स , डेम्स एंड स्प्रीट छपवाई जो 1976से बेस्ट सेलर किताबें बनी हुई है और हिंदी,पंजाबी,मलयालम,मराठी आदि देश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुई हैं।
भारतीय तर्कशील संगठन ने 1971 में डॉ. कोवूर द्वारा चमत्कारों का पर्दाफाश कार्यक्रम का आयोजन किया। इसके पश्चात् 1975 में विजयवाडा, तिरुपतिनमाला, तिरुवनन्तपुरम, बड़ोदरा आदि स्थानों में कार्यक्रम हुए। कोवूर ने 1976 में आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि राज्यों का भ्रमण किया और तर्कशीलता के ऊपर कार्यक्रम रखे। इसी समय कोवूर ने अपनी विश्व प्रसिद्ध 23 शर्तों की चुनौती अलौकिक शक्ति के दावेदारों के लिए जारी की और अंधविश्वास फैलाने वालों के विरुद्ध लगातार कार्यक्रम करने लगे एवं अखबारों में लेख लिखने का सिलसिला तो पहले से ही जारी था।।साईं बाबा, एन. एस . राव, मदुरै मठ के मुखिया पंडरीमनई इस मुहिम से बेचेने हो गए। कोवूर साईं बाबा को सीधे रूप में मिलना चाहते थे परन्तु उन्होंने मिलने से स्पष्ट मना कर दिया परन्तु कोवूर ने वाइल्ड फील्ड आश्रम के सामने इकठ्ठी भीड़ को साईं बाबा की चालाकियों के बारे में स्पष्ट कर दिया और चमत्कारों का पर्दाफ़ाश कार्यक्रम रखा। उन्होंने हवा में से भभूत पैदा करने,मुंह से शिव लिंग निकलने ,हवा में से सोने की चेन पैदा करने के कथित चमत्कारों को करके दिखाया और कहा कि यह सब चमत्कार नहीं बस चालाकी भर है।
कोवूर दिल के दौरे से पीड़ित हो चुके थे। 1959 में उनको पहली बार हार्ट अटैक हुआ था ।उसके बाद उनको पाँच बार दिल का दौरा पड़ा। 1973 में कोवूर की पत्नी अक्का बीमार पड़ गयी। उन्हें फेफड़ों का कैंसर हो गया था। 14 दिसंबर 1974 को उनकी मृत्यु हो गई। अगले दिन उनका मृतक शरीर उन्होंने कोलंबो मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया था।श्रीलंका के इतिहास में यह पहली घटना थी कि किसी ने अपनी मर्जी से मृतक शरीर चिकित्सीय उपयोग हेतु प्रदान किया था। डा. कोवूर ने अपनी पत्नी के मृतक शरीर प्रदान करने के साथ ही स्वयं की मृत देह को भी चिकित्सकीय उपयोग के लिए सौंपने की बात इस मौके पर कही थी। 18 सितंबर 1978 को डाक्टर अब्राहम थामस कोवूर की मृत्यु हो गई और उनकी इच्छा अनुसार उनके मृतक शरीर को तर्कशील संगठन ने श्रीलंका में मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया। जहां पर उनकी आँखें दो व्यक्तियों (7 वर्ष के अन्नत कृष्णन और 22 वर्ष के वेन्कटरमन) को लगाई गई। कोलंबो मेडिकल कॉलेज ने उनकी नेत्रहीन देह को अध्ययन के लिए ले लिया जहां चिकित्सीय उपयोग के बाद शरीर की मासपेशियां उतार कर अस्थि पिंजर को फ्रेम कर थरस्टन कॉलेज में सुरक्षित रख दिया, जहां वे पढ़ाया करते थे और उनकी सदा के लिए अपने प्रिय कालेज में रहने की इच्छा पूरी हो गई।आज भी विद्यार्थी अपने भूतपूर्व प्रोफेसर के अस्थि पिंजर पर बायोलॉजी की पढ़ाई करते समय शरीर संरचना को समझने के लिए अध्ययन करते हैं। डाक्टर कोवूर चाहते थे कि उनकी मृत देह भी मानवता के हित में काम आए और इस तरह मानवता हित में अंधविश्वासों के विरुद्ध लड़ते हुए डाक्टर कोवूर वैज्ञानिक चेतना एवं तर्कशीलता के प्रचार प्रसार में लगे लोगों में सदा के लिए अमर हो गए। आज विश्व में असंख्य संगठन उनके दर्शाए सिद्धांतों पर मानवता के हित में लगे हुए हैं। अंधविश्वासों के विरुद्ध लड़ते हुए एक व्यक्ति का अंत हो गया, परन्तु वे अपने जैसे समाज हित में लगे लोगों में सदा के लिए अमर हो गए।आज उनकी प्रेरणा से भारत के केरल, तमिलनाडु ,कर्नाटक,महाराष्ट्र ,गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़,पंजाब, हरियाणा,दिल्ली आदि राज्यों में तर्कशील संगठन सक्रिय हैं और समाज को अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए संघर्षरत हैं डाक्टर नरेंद्र दाभोलकर ,गोविंद पंसारे ,कलबुर्गी इसी परम्परा के अमर शहीद हैं जो अंधविश्वास मुक्त समाज की स्थापना के लिए लड़ते हुए मानवता के हित में कुर्बान हो गए और आगे भी संघर्ष करते रहेंगे । ये ही डा.कोवूर की इच्छा थी।
लेखक – गुरमीत अंबालवी