अजय शुक्ल का पटरीआकी मटरीमाकी: 4- उर्वशी, रंभा, तिलोत्तमा, हूरें

व्यंग्य

पटरीआकी मटरीमाकी: 4
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उर्वशी, रंभा, तिलोत्तमा, हूरें

अजय शुक्ल

बलभद्दर ने फिर दौड़कर युवती को रोक लिया। “क्या है?” वह झल्लाते हुए बोली, “तुम्हारा ठेका लिया है क्या कि तुम्हें कांधे पर बिठाकर जन्नत की सैर कराऊं!”

“देवी जी!” बलभद्दर कातर भाव से बोला, “समझिए न! मैं बिलकुल नया हूं…वापसी का रास्ता भी नहीं मालूम।”

युवती पसीज गई। उसने अपने बैग से एक लिपस्टिक निकालकर उसे थमा दी। बोली, “जब लौटना हो तो अपने ओंठों पर इसे लगा लेना। मैं आ जाऊंगी… कोई मुसीबत पड़े तो भी लिपस्टिक का उपयोग कर लेना।”

इतना कहकर वह चली गई। थका माँदा बलभद्दर भी एक घने पेड़ के साए तले जाकर लेट गया। लेटते ही उसे नींद आ गई। नींद तब टूटी जब उसको खटाक खटाक की आवाज़ सुनाई दी। उसने आंख खोली तो चेहरे पर झुकी तीन सुंदर स्त्रियां दिखाई दीं। उनके गुलाबी वस्त्रों से भीनी भीनी सुगंध आ रही थी।

अपने ऊपर झुके परीचेहरों को देख उसका मर्दाना दिमाग सक्रिय हो उठा। मन घोड़े की तरह दौड़ने लगा। भय जाता रहा। उसे लगा वह युवती झूठ बोल रही थी… स्साली…यहां तो अप्सराएं हैं…मुख चूमने को आतुर…वाह रामकली वाह! थैंक यू… तुमने बैट से ज़रूर मारा लेकिन जीते जी स्वर्ग तो दिखा दिया…थैंक यू वेरी मच…

इसी पौरुषेय चिंतन के साथ वह उठ बैठा और बोला, “देवियो!” आप कौन हैं? उर्वशी, मेनका या रंभा?”

“इनमें से कोई नहीं।” एक स्त्री बोली। उसकी आवाज़ कड़क थी, जो उसके सुंदर चेहरे से बिलकुल मेल नहीं खा रही थी।

“तो फिर आप तिलोत्तमा, घृताची, कुंडा, अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, रक्षिता में से कोई होंगी!” उसने अन्य अप्सराओं के नाम भी गिना डाले।

“नहीं। हम वो भी नहीं।” दूसरी स्त्री भी उसी रूखे टोन में बोली।

“तो क्या यह स्वर्ग नहीं?”

“नो, यह स्वर्ग भी नहीं।”

“तो क्या यह जन्नत है? मुसलमानों वाला स्वर्ग।”

इस बात तीनों ने एक साथ ठहाका लगाया और अब तक खामोश रही तीसरी स्त्री मधुर स्वर में बोली, “मान लो कि यह जन्नत है। तो?”

“मुझे कोई दिक्कत नहीं कि यह जन्नत है।”

“फिर किसे है दिक्कत?”

“आपको होगी।” बलभद्दर ने सकुचाते हुए कहा।

“हमें? हमें क्या दिक्कत होगी?”

“चलो, मैं समझाता हूं। अगर यह जन्नत है तो आप सब हूरें होंगी। अब हूर तो मुसलमान होती हैं। अब मैं ठहरा बनिया। ओमर बनिया। हिन्दू। आप लोग एक हिन्दू की सोहबत कर पाओगी?” इतना कहकर वह रुका और परीचेहरों को कामनाओं से भरी नज़रों से देखने लगा।

तीनों स्त्रियों के चेहरे में विस्मय था।

“तो आप सोचिए कि क्या एक हिन्दू की सोहबत मंज़ूर है?” उसने बोलना जारी रखा, “मुझे तो कोई दिक्कत नहीं। स्त्री की कोई जाति नहीं होती। मैं बनिया हूं। मेरे लिए क्षत्राणी और ब्राह्मणी वर्जित है। लेकिन नीचे गिरने की कोई सख्त मनाही नहीं।” बलभद्दर ने स्त्रियों को फिर निहारा। वे गुस्से में दिखीं। वह क्षण भर ठिठका और शुरू हो गया, “गुस्सा न हों। मैं इस्लाम कुबूल कर लूंगा। दिलदार या दिलावर बन जाऊंगा। आखिर दिल दा मामला है…”

वह पूरा गाना गाने के मूड में आ गया था लेकिन उससे पहले वह मीठे स्वर वाली स्त्री कड़ककर चीखी, ” लगाओ तो ज़रा इस गदहे के दो लातें।”

आदेश के अनुपालन में विलंब नहीं हुआ। उसी के साथ दूसरी स्त्री को दो डंडे जमाने का हुक्म मिला। उसने भी हुक्म पर अमल करने में देर नहीं की।

बलभद्दर दर्द से तड़पकर उठ गया। अब उसने गौर से देखा कि स्त्रियों की गुलाबी ड्रेस तो पुलिस की वर्दी है! एक की वर्दी की आस्तीन में तीन फ़ीते लगे थे और मृदुभाषिणी के कांधे पर लगे थे तीन स्टार। यानी इंस्पेक्टर। तीसरी स्त्री एक स्टार वाली एएसआइ थी।

इंस्पेक्टर ने फटाफट हथकड़ियां निकालीं और बलभद्दर की कांपती कलाइयों में पहना दीं। पीछे से दीवान ने एक बार पुनः चरण प्रहार किया और धक्का देते हुए बोली, “चल स्साले, भैन के जिज्जा! थाने में तेरी और उर्वशी की सुहागरात मनवाती हूं।”

बलभद्दर की बुद्धि काम नहीं कर रही थी। उसे युवती द्वारा दी गई लिपस्टिक की याद आ रही। मगर वह तो जेब में पड़ी थी और हाथ बंधे थे। वह चुपचाप चलता रहा और तीनों पुलिस वालियों की बातें सुनता रहा…

“यह साला है कौन?” दीवान बोली

“मुझे तो यह स्टड फार्म से भागा हुआ साँड़ लगता है..” एएसआइ ने बुद्धि दौड़ाई।

“मगर यह तो पागल है…बहकी बहकी बातें करता है। स्टड फार्म में तो सर्वोत्तम मर्दों को ही रखा जाता है। गर्भ में ही भ्रूण की जांच कर ली जाती है कि बच्चे की लंबाई चौड़ाई और आइक्यू कैसा होगा। आइंस्टाइन से नीचे तो चलता ही नहीं। ब्रेन की भी जांच होती है कि बच्चा बड़ा होकर पागल तो नहीं हो जाएगा…”

“बात तो सही है। हम लोग तो कमज़ोर पुरुष-भ्रूण को पेट में ही नष्ट कर देते हैं ताकि मुल्क में एक भी घटिया मर्द दिखाई ही न दे।”

“है तो यह स्टड फार्म का भगोड़ा ही…लेकिन एक मिनट…ज़रा सोचने दो…मुझे अभी अभी लगा कि शायद यह कई दिन का भूखा हो….इसीलिए पागलपन की बातें कर रहा हो!”

वार्तालाप में सुन रहे बलभद्दर की पीठ पर सहसा ज़ोर की धौल पड़ी। दीवान ने पूछा, “क्यों बे अपनी अम्मा के दूल्हे, तूने खाना कब से नहीं खाया?”

बलभद्दर सचमुच भूखा था। उसकी आंखों में आंसू आ गए। भर्राए गले से बोला, “बहन जी, 36 घंटे हो गए। पब में थोड़ा सा चखना खाया था बस। कल सुबह घर से खाली पेट चला था। रामकली ने कुछ बनाया ही नहीं था।” रामकली का नाम लेते ही वह सुबकने लगा।

यह सुनकर तीनों पुलिस वालियों ने राहत की सांस ली। वे हंसने लगीं। “वाउ, वी हैव सॉल्व्ड द पज़ल, येSS।” इंस्पेक्टर खुशी से चहक पड़ी, “चलो, पहले इसे खाना खिलाते हैं। मेरा टिफिन जीप में ही रखा है।”

कुछ देर चलने के बाद वे पार्क से बाहर सड़क पर आ गए। जीप वहीं खड़ी थी। टिफिन निकला और उसे बलभद्दर के आगे रख दिया गया। मगर उसके हाथ बंधे थे। वह पुलिस वालियों को बिसूरने लगा। एएसआइ ने हथकड़ी खोलने का प्रयास किया। मगर इंस्पेक्टर ने रोक दिया, “यह भाग सकता है।”

“तो?”

“इसे मैं खिला दूंगी।” इतना कहकर वह हाथ से कौर बनाकर कैदी को खिलाने भी लगी।

इस सुर दुर्लभ दृश्य को देख दोनों पुलिस वालियां ताली बजाकर नाचने लगीं। देवताओं ने पुष्पवर्षा भी की होगी लेकिन बलभद्दर देख नहीं पाया। उसकी आंख से भल्ल भल्ल आंसू गिर रहे थे। एक परीचेहरा उसे अपने हाथ से लुकमे तोड़कर खिला रहा था। जन्नत भी कैसी कैसी होती हैं..वह सोच रहा था।

खिला पिला कर बलभद्दर को जीप में डाल दिया गया। स्टीयरिंग व्हील पर दीवान जा बैठी। गियर डालते हुए उसने इंस्पेक्टर से पूछा, “तो मैडम स्टड फार्म चलें? इस साँड़ को जमा भी तो करना है।”

“नो, इसे थाने ले चल। स्टड फार्म में सुबह जमा करेंगे। रात में थाने में इसका कैबरे देखेंगे।” इंस्पेक्टर की बात सुनते ही कांस्टेबल और सब इंस्पेक्टर ने किलकारी भरी। जीप रात की सूनी सड़क पर सरपट दौड़ चली। बलभद्दर के बंधे हाथों ने सहसा दोनों पावों के संधिस्थल को ढक लिया।

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अगली किस्त: मर्द का चीरहरण

लेखक -अजय शुक्ल