अरुण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी पिछले दिनों जापान यात्रा पर थे। उन्होंने जापान यात्रा के दौरान ही उस देश की खूबसूरती, वहां के निवासियों का संघर्ष, उनकी जिजीविषा, जिंदादिली, जो भी देखा उसे लिखना शुरू किया था। लेकिन लंबी यात्राओं से थकान स्वाभाविक थी तो उन्होंने उसे रोक दिया। अब कोलकाता वापस आने के बाद जापान के बारे में फिर से फेसबुक पर लिखना शुरू किया है। चूंकि अरुण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी दोनों वरिष्ठ साहित्यकार हैं, उनका एक नजरिया है। हम चाहते हैं कि प्रतिबिम्ब मीडिया के पाठक भी उनके नजरिए से जापान और वहां के निवासियों का जीवन देखने और महसूस करने की कोशिश करेंगे। हम आभार सहित उनके चुनिंदा यात्रा संस्मरण प्रकाशित करेंगे। संपादक
हिरोशिमा !
जापान कथा -13
ख़ूबसूरत जापान !
चारों ओर चेरी ब्लॉसम की हल्की गुलाबी मासूमियत , नज़ाकत लिये !
इंसान के हाथों सजा-संवरा , एक देश !
इस बात की पताका फहराता हुआ कि
भयावह युद्ध की तबाही और परमाणु बमों की राख से फ़ीनिक्स पक्षी की तरह एक देश
अतीत की कलंकित केंचुल को उतार पुनर्नवा हो सकता है।
तबाही के नहीं शांति के रास्ते पर बढ़कर विकास के कैसे कैसे शिखर पर पहुँच सकता है।
तकनीक में छलांग लगाता , प्रकृति को सहेजता , सामंजस्य की अपनी संस्कृति को भी बचाने की जद्दोजहद करता हुआ जापान।
जहाँ एक तरफ़ एक से एक बढ़कर विशाल सुंदर उद्यान, खिले-खिले बड़े-बड़े रंग-बिरंगे फूल ।
नबाना नो सातो जैसा पार्क, जहाँ शाम होते ही तरह-तरह की रोशनी के रंग बिखेरता जादुई माउंट फ़ूजी और रोशनी के फूलों से बने जगमगाते तारों से जड़ी ओढ़नी ओढ़े , दुल्हन की तरह सजे सुरंग, अप्रतिम रहस्यमय सौन्दर्य बिखेरते हुए इंसान की अद्भुत सृजनात्मकता को दर्शाते हैं।
इस सौन्दर्य से निकल कर हिरोशिमा की ओर जाना और उस मानव निर्मित बर्बरतम इतिहास को देखने के पहले ही हाथ-पाँव काँपने और दिल तेज़ी से धड़कने लगता है।
मुझे बार-बार हिटलर के यातना शिविर होलोकास्ट की याद आ रही थी।
वहाँ जाकर, उसे देखकर इंसान की जान में जान नहीं रहती, इंसान इंसानों के साथ इस तरह का व्यवहार कर सकता है, कि खुद के इंसान होने पर घृणा होने लगे।
जिसे देखकर आप बिलकुल सुन्न , लाश बन जाते हैं ।
हिरोशिमा शांति स्मारक को देखना भी इतना ही भयावह था।
एक क्षण के लिये जैसे सब कुछ थम गया था। वक्त थम गया, साँसें थम गयी, आवाज़, आँखें , हाथ-पाँव सब जम गये हों,आप किसी मुर्दे में बदल गये हों।
कोई इंसान इसको देखकर सही-सलामत नहीं रह सकता।
नीला आसमान पल में काला हो जाय ।
जैसे सूरज ज़मीन पर फट जाय !
4000 डिग्री सेल्सियस तापमान !
ज़िंदा इंसान भाप बनकर उड़ जाय, पत्थर , धातु सब पिघल जाय ।
चारों ओर आग ही आग ! ऐसा शोर कि इंसान बहरा हो जाए।
आग में जलते, लटकती हुई खाल , भागते लोग
जले हुए कपड़े, जले हुए विकृत चेहरे के इंसानों को
देखकर लगे कि ये किसी दूसरे गृह के भयावह प्राणी है।
प्यासे लोग और आसमान से ज़हरीली काली बारिश !
ओह ये सब बयान नहीं किया जा सकता। कोई शब्द इसे बयां नहीं कर सकते ।
एक बम ! लिटिल बॉय ! एक छोटा बच्चा !
कोई कैसे इस क़यामत ढाने वाले नाभिकीय बम का नाम लिटिल बॉय रख सकता है ?
उसे देखकर ज़ोर से चीखना चाहती हूँ, लेकिन आवाज़ ग़ायब है।
हम बीच में ही छोड़ कर बाहर निकल आते हैं।
नहीं और नहीं, हिरोशिमा कभी नहीं ।
बाहर इस संकल्प को दोहराते हुए आग धधक रही है कि
वो इसी तरह अथक जलती रहेगी , जब तक इस पृथ्वी पर एक भी नाभिकीय बम रहेगा।
पर कैसी विडम्बना है कि इतिहास का शायद सबसे बड़ा सबक़ यही है कि हम उससे कोई सबक नहीं सीखते।
नाभिकीय बमों के ढेर पर बैठे हम शांति की सिर्फ़ बातें कर रहें हैं। युद्धों के एक से एक मारक अस्त्र बना रहें हैं।
इधर इसराइल फ़िलिस्तीन को नष्ट कर रहा है।
अभी एक पेंटिंग देखी , जिसमें मिसाइली हमलों से इंसान के शरीर के लोथड़े पक्षियों की तरह हवा में उड़ रहें हैं।
ग़ज़ा में भूख से तड़पते बच्चे रो रहें हैं।
मलबों के ढेर , लाशें , मिसाइलें।
रुस-यूक्रेन युद्ध रुक नहीं रहा !
शांति का कपोत जाने कहाँ सिसक रहा है !
खुद को सम्राट , ईश्वर का दूत समझने वाले शासक अपनी सत्ता की हवस के लिये मासूम लोगों की ज़िंदगी से खेलना कब बंद करेंगे ?
यहीं पर इसी हिरोशिमा में इस स्मारक के अंदर जाने से पहले परमाणु बमों के खिलाफ लिखी गयी अपनी ये कविता पढ़ी :
तुम्हारे लिये सिर्फ नफरत
नहीं दे सकती बधाई तुम्हें
नहीं मना सकती जश्न तुम्हारे साथ
तुम जिसमें
देख रहे हो राष्ट्र का स्वाभिमान मैं उसमें देख रही हूं
मानव सभ्यता का अपमान
इसीलिये
विघ्वंसक नाभिकीय आग से खेलते
तुम्हारे इन हाथों से हाथ मिलाकर
नहीं लगा सकती नारा जय विज्ञान का
नहीं देखती मैं
भूखे भारत की शक्ति, उसका आत्मबल
पोकरण के इन धमाकों में
तुम्हारी तरह
नहीं देख पाती मैं
मुस्कराहट बुद्ध के होंठों पर
इसलिये नहीं भर सकती मैं
राष्ट्रवाद की हिटलरी हुंकार
क्या पोकरण में
तुम्हें सुनाई नहीं पड़ी
हिरोशिमा नागासाकी में
घायल मानवता की सिसकियां
क्या तुम्हें
आईन्सटीन का वह सबक भी याद नहीं रहा
‘‘मानवता का सर्वनाश करने वाले
वैज्ञानिक की बजाय
एक घड़ीसाज बनना ज्यादा अच्छा है‘‘
क्यों तुम्हें
याद नहीं आई ओपेनहाइम की
क्यों तुम देख नहीं पाये उसी की तरह
खुद को ब्रह्मांड का नाश करने वाले काल पुरुष के रूप में
इसीलिये
नहीं दे सकती मैं तुम्हे कोई साधुवाद
मेरे पास तुम्हारे लिये
और तुम्हारे हाथ में हाथ मिलाकर
अट्टहास और उल्लास करने वालों के लिये
सिर्फ नफरत ही नफरत है, घृणा ही घृणा है।