वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंबेडकरवाद के विरुद्ध चुनौतियाँ: एक विश्लेषण
डॉ. रामजीलाल
डॉ. रामजीलाल
अंबेडकरवाद की अवधारणा एवं मुख्य विशेषताएं
डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा समय-समय पर समाचार पत्रों, पुस्तकों, भाषणों, ज्ञापनों, संविधान सभा की बहसों आदि में विभिन्न समस्याओं और मुद्दों के संबंध में व्यक्त किए गए विचारों का व्यवस्थित रूप ही अंबेडकरवाद या अंबेडकर की सोच माना जाता है. अंबेडकरवाद आज एक ऐसी विचारधारा है जो एक प्रकाश स्तंभ की तरह दुनिया के राजनेताओं से लेकर समाज के हाशिये पर खड़े आम लोगों तक सभी का मार्गदर्शन करती है.
अम्बेडकरवाद विचारों का एक समूह है, जिसमें समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, सामाजिक/आर्थिक/राजनीतिक न्याय, मानव गरिमा, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समाजवाद, और समाज के हाशिए पर पड़े उपेक्षित वर्गों—दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, लघु किसानोंऔरकृषि विहीन कृषि श्रमिकों, संगठित एवं असंगठित श्रमिकों का सशक्तिकरण, उत्थान तथा एक एक ऐसे समतावादी समाज की स्थापना शामिल है, जहां बुनियादी जरूरतें – भोजन, आश्रय, वस्त्र, सार्वभौमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, काम करने का अधिकार, और समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार – पूरी हों.
अंबेडकरवादी चिंतन इस बात का समर्थन करता है कि महत्वपूर्ण उद्योगों पर सार्वजनिक नियंत्रण (राष्ट्रीयकरण) होना चाहिए. इस दृष्टि से अंबेडकरवादी चिंतन वर्तमान शताब्दी में प्रचलित उदारीकरण, निजीकरण, एवं वैश्वीकरण सहित कॉरपोरेट्रीकरण के विरुद्ध है. यही कारण है कि अंबेडकर समाजवादी चिंतकों के अग्रिम दस्ते की श्रेणी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं.
अम्बेडकरवाद एक ऐसे समाज की स्थापना कल्पना करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य जीवन के हर क्षेत्र में समान हो, न कि जन्म, जाति, क्षेत्र, धर्म, भाषा, लिंग आदि की संकीर्णताओं और सांप्रदायिक अवधारणाओं के आधार पर. दूसरे शब्दों में, समाज एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए. भारत में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के आधार पर बहुत अधिक विविधताएं हैं. इसलिए, सामाजिक सद्भाव और एकता बनाए रखने के लिए ‘विविधता में एकता के मूल सिद्धांत’ की वकालत करता है.
अम्बेडकरवाद असमानता, सामाजिक अन्याय, अमानवीय व्यवहार, अस्पृश्यता, मनुवाद, ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद, नौकरशाही के जन-विरोधी रवैये, बहुसंख्यकवाद की तानाशाही, हिंसक आंदोलनों, धर्म-आधारित या धर्म-प्रधान राज्यों, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू या मुस्लिम राष्ट्रों के खिलाफ है.
अंबेडकरवाद के अनुसार जातिवाद तथा वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता संकुचित, विभाजक, अमानवीय, अनैतिक अवैज्ञानिक एवं संकीर्ण है. अस्पृश्यता एवं चर्तुवर्ण व्यवस्था विभाजक होने के कारण सामाजिक एकता व सामाजिक एकीकरण व राष्ट्रीय एकता व राष्ट्रीय एकीकरण व सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास में अवरोध है. अंबेडकरवाद के अनुसार अस्पृश्यता के कारण दलित वर्ग को अपमान झेलना पड़ रहा है. अंबेडकर की धारणा है कि “सम्मान पूर्वक जीवन व्यतीत करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है.’’ परिणाम स्वरूप अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों को शिक्षित होने, संगठित होने और संघर्ष करके सम्मानपूर्वक जीवन हेतु वर्ण व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए प्रेरित किया है. उनकी धारणा है कि वर्ण व्यवस्था ने भारत को मुर्दा बना दिया तथा भेदभाव ने दलित वर्ग को शक्तिहीन, अयोग्य एवं पंगू कर दिया. यही कारण है कि भारत में यूरोपीय देशों की भांति कोई सामाजिक क्रांति नहीं हुई. सामाजिक क्रांति के बिना सामाजिक गुलामी, शोषण, असमानता, अत्याचार एवं अपमानजनक जीवन समाप्त नहीं होगा. अतः एक समाज सुधारक के रूप में वह मनुवाद- ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति प्रथा के उन्मूलन के मुख्य पैरोकार थे. >डॉ. रामजीलाल, ‘डॉ. अंबेडकर : युग पुरुष, युग दृष्टा एवं महान विचारक’, दैनिक भास्कर, (पानीपत), 14 अप्रैल 2008 , पृ.6.
अंबेडकर स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना किसी भी समाज का सुधार और विकास नहीं हो सकता. इस दृष्टि से वह महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत थे.
दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य का उद्भव : आपराधिक मानसिकता
यद्यपि एक ओर भारत में डॉ. अंबेडकर की जयंती पर अनेक समारोह, सेमिनार, परिसंवाद आदि आयोजित किए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अंबेडकरवादी विचारधारा के विरोधियों द्वारा उनकी प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने, तोड़ने व नुकसान पहुचाने, पुतले व चित्र जलानें की खबरें अमृतसर (पंजाब) से वाराणसी (यूपी) तक, अहमदाबाद (गुजरात) से हरियाणा, (बुड्ढा खेड़ा थाना उकलाना) तक, बिहार से आंधप्रदेश तक समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं. भारतीय समाज में दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य उभर रहा है. वास्तव में यह दो धारी तलवार की तरह है. एक ओर अंबेडकरवाद व अंबेडकर के योगदान के महत्व को कम करना और दूसरी ओर अनुसूचित जातियों का अपमान व दमन करना है. ’जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपे हुए रंगभेद’ के कारण अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में निरंतर वृद्धि दलितों के लिये ही नहीं अपितु राष्ट्र और समाज के लिए भी हानिकारक है.
अंबेडकरवाद के समक्ष चुनौतियां
प्रथम, भेदभाव और असमानता: अंबेडकरवाद भारतीय लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में समाज में प्रचलित भेदभावऔर असमानता सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है. संविधान सभा के आख़िरी दिन डॉ. बी आर आंबेडकर कहा कि “26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी”. डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक की उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र अर्थात जीवन के सिद्धांतों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता न हो. समानता के बिना स्वतंत्रता बहुसंख्यक वर्ग पर मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व स्थापित कर देगी. बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक सी बातें नहीं लगेगी. भेदभाव और असमानता दूर करनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह लोग जो भेदभाव का शिकार होंगे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे जो इस संविधान सभा ने तैयार किया है.’
सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की आवश्यकता के लिए सामाजिक भेदभाव और असमानता को दूर करके ही स्थाई लोकतंत्र की स्थापना और संविधान की सुरक्षा भी की जा सकती है. परिणाम स्वरूप अंबेडकरवाद के अनुसार सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करके राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रिया जारी रहती है और यदि ऐसा नहीं होता तो वास्तव में राष्ट्र निर्माण, राष्ट्रीय एकीकरण, आधुनिकीकरण, राजनीतिक विकास और शांतिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रियायों में बाधाएं पैदा होगी .
द्वितीय, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा
अंबेडकरवादी चिंतन के अनुसार वर्तमान समय में राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ एक महत्वपूर्ण चुनौती है. डॉ. अंबेडकर ने सचेत किया था कि लोकतंत्र के निर्माण में ‘राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ एक महत्वपूर्ण चुनौती है और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है’. डॉ. अंबेडकर ने इस संबंध चेतावनी देते हुए लिखा, “उन महान व्यक्तियों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है जिन्होंने देश को जीवन भर सेवाएं प्रदान की हैं. लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएँ हैं. जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ’कोनेल ने ठीक ही कहा है, कोई भी पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी महिला अपनी पवित्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता. यह सावधानी किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है. भारत में, भक्ति या जिसे भक्ति या नायक-पूजा का मार्ग कहा जा सकता है, उसकी राजनीति में दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई जाने वाली भूमिका के बराबर नहीं है. धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है. लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है”.
जान स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए अंबेडकर ने कहा था, “अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए… इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो. चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है.” अतः अंबेडकरवादी विचारधारा इस बात का समर्थन करती है कि अंधभक्ति लोकतंत्र के लिए घातक और नुकसानदेह है क्योंकि यह तार्किक सोच को कमजोर करके तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है .
तृतीय, खूनी क्रांति, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह :
डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार “अगर हम लोकतंत्र को न केवल स्वरूप में, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए वह है अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को मजबूती से अपनाना. इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को त्यागना होगा. इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए. जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का औचित्य बहुत अधिक था. लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता. ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा.”
हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि लोकतंत्र में बंदूक तंत्र (खूनी तरीकों) का स्थान नहीं है. क्योंकि शक्ति (सत्ता) बंदूक की नली से पैदा नहीं होती अपितु चुनाव के समय मतदान के दिन के ईवीएम (EVM) का बटन दबाने से पैदा होती है. परंतु इसके बावजूद भी दो चुनावों के अंतराल में शांतिपूर्ण आंदोलन सरकारों के सर्वसत्तावाद को नियंत्रित करने लिए जरूरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है अपितु इनके प्रहरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलनों का त्याग करने के वकालत जो डॉ. अंबेडकर ने की है उससे सहमति प्रकट करना बड़ा कठिन है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से ‘निर्वाचित तानाशाही’ पर नियंतण करना मुश्किल है. इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करेगा. सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सत्याग्रह, धरना, प्रदर्शन, हड़ताल इत्यादि- शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से निर्वाचित तानाशाही पर नियंत्रण करना मुश्किल है और इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करता है जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी.
डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक के समापन में ऐतिहासिक भाषण में वर्णनित यह तीनों चुनौतियां अथवा चेतावनियां -सामाजिक असमानता, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ तथा खूनी क्रांति के तरीके (जैसे आतंकवाद, नक्सलबाड़ी आंदोलन व माओवादी हिंसक आंदोलन) , आतंकवाद का परित्याग, वर्तमान 21वीं शताब्दी में आज भी पूर्णतया सार्थक और प्रासंगिक हैं. सारांशत: शांतिपूर्ण जन आंदोलनों में वह शक्ति होती है जिसके द्वारा सर्वसत्तावादी शासकों को घुटने टेकने-अपने निर्णयों या कानूनों को वापिस लेने अथवा कुर्सी छोड़ने के लिए मज़बूर किया जा सकता है.
चतुर्थ, जातिवाद और वर्ण व्यवस्था:
भारत में जातिवाद का इतिहास हजारों साल पुराना है. ऋग्वेद के अनुसार भारत में चार वर्ण -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हैं. शुद्र वर्ण का अर्थ नौकर अथवा अछूत है. शुद्र वर्ण की तुलना व्यक्ति के शरीर के पैरों से की गई है. इन चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ स्थान पर तथा शूद्र को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है . डॉ. अंबेडकर मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी थे.
डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रथम मराठी पाक्षिक-समाचार पत्र मूकनायक (‘’The Leader of Voiceless”) के प्रवेशांक सम्पादकीय (31 जनवरी 1920) में ‘हिंदू समाज” के संबंध में बड़ा स्पष्ट लिखा:
‘हिंदू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल (जाति) है. ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल (जाति) से दूसरे तल (जाति) में आने-जाने का कोई मार्ग नहीं है. जो जिस तल (जाति) में जन्म लेता है, वह उसी तल (जाति) में मरता है. नीचे के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही लायक हो, ऊपर के तल (जाति) में उसका प्रवेश संभव नहीं है, और ऊपर के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही नालायक हो, उसे नीचे के तल (जाति) में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं है.’’
डॉ. अंबेडकर इस चतुर्वर्ण प्रणाली को सर्वनाशक, हिंसक, शोषणकारी और अत्याधिक खतरनाक मानते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था से रूढ़िवाद, अंधविश्वास और ऐसी परंपराएं विकसित की गई जिनके परिणाम स्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण हुआ है. इस प्रणाली के रक्षक लोगों ने आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के लोगों का शोषण करके इंसानियत को समाप्त किया है और लोगों को गुलाम बनाया. गुलाम लोग अपने ही शस्त्रों से अपना सर कटवाते रहे तथा गुलामी करते रहे और हल चला कर फसल पैदा करते रहे और खुद भूखे मरते रहे. इस व्यवस्था ने कभी भी हल के फालों को तलवार में बदलने का समय नहीं दिया. उनके पास कोई हथियार अथवा संगठन ने नहीं थे. इस प्रणाली ने दलित और कमजोर लोगों को मू्र्दा बना कर रख दिया और उनमें क्रांति करने की ताकत समाप्त कर दी. परिणाम स्वरूप भारत में कभी भी ऐसी सामाजिक क्रांति नहीं हुई जैसे कि यूरोपियन देशों में हुई है. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जब तक भारत में सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक अनेक कानूनों एवं संविधान के उपबंधो के बावजूद भी शोषण समाप्त नहीं होगा और दलित और श्रमिक वर्ग (सर्वहारा वर्ग) शोषित होता चला जाएगा. संक्षेप में दलित और शोषित वर्ग अर्थात श्रमिक वर्ग का शोषण होता था, होता है और होता रहेगा .
डा. अंबेडकर के अनुसार ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है’. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता को संकुचित, अमानवीय, अवैज्ञानिक, अनैतिक, विभाजक तथा संकीर्ण है. जाति-व्यवस्था से तंग आकर जातिवाद को समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने सन 1936 में धर्म परिवर्तन के संबंध में यह घोषणा कि ‘यद्यपि मैं हिंदू जन्मा हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं’, और जीवन के अंतिम चरण में 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 3 लाख से 5 लाख तक अपने अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. भारत के इतिहास में एक दिन में इतनी संख्या में धर्म परिवर्तन करने का प्रथम उदाहरण है.
पांचवीं,अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों में वृद्धि :
A.अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अत्याचारों में वृद्धि
भारत में दलित वर्ग के खिलाफ ‘जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपा हुआ रंगभेद’ (हिडन अपरथाइड) विद्यमान होने के कारण दलितों के विरुद्ध अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है . सरकारी सूत्रों के अनुसार सन् 1976 से सन् 1987 के दशक में दलितों के विरुद्ध अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं के 1,32,5612 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत हुए. सन् 1976 में पुलिस थानों में 5986 मामले पंजीकृत हुए हुए थे. 1985 व वर्ष 1986 में यह संख्या लगभग 5 गुणा बढ़कर 30,736 तक पहुंच गई. सन् 1989 में यह मामले बढ़कर 14,269 हो गए. दलित वर्गों के विरुद्ध होने वाले अत्याचार के निरंतर बढ़ते हुए आंकड़े यह चिल्ला चिल्ला कर बोलते हैं कि स्वतंत्र भारत में क्या दलित जीवन का कोई महत्व नहीं हैं ?
सन् 1989 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम सन् 1989 लागू होने के पश्चात दलित अत्याचारों में कमी की अपेक्षा वृद्धि हुई है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2000 में दलितों के खिलाफ 25,455 अपराध हुए; यानी हर घंटे दो दलितों पर हमला, हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, दो दलितों की हत्या, और दो दलितों के घर जला दिए गए. सन् 2006 से सन् 2016 तक 10 वर्ष के अंतराल में दलितों के विरुद्ध अत्याचारों के 4,22,799 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए.
21 मार्च 2023 को भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री अजय कुमार ने प्रश्न क्रमांक 3443 का एनसीआरबी के द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों के आधार पर उत्तर देते हुए लोकसभा में कहा कि दलित जातियों विरुद्ध अत्याचार व र्हिंसा के सन् 2018 में 42,793,सन् 2019 में 45,961,सन् 2020 में 50, 291व सन् 2021 में 50,900 के मामले भारत के पुलिस स्टेशनों में पंजीकृत भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार सन् 2022 की ‘भारत में अपराध’ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध करने के लिए कुल 57,582 मामले पुलिस थानों मेंपंजीकृत हुए, जो सन् 2021 (50,900 मामले) की तुलना में 13.1% अधिक है। अपराध दर सन् 2021 में 25.3 से बढ़कर सन् 2022 में 28.6 हो गई. सन् 2022 में राज्यवार संख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश, 15,368, राजस्थान, 8,752, मध्य प्रदेश, 7,733 और बिहार (6,509) में दर्ज किए . मामले दर्ज किए गए। यूपी में, अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों की संख्या सन् 2021 में 13146 से बढ़कर सन् 2022 में 15368 हो गई – 16% की वृद्धि। सन् 2020 में यह आंकड़ा 12714 था. आंध्र प्रदेश में, 2315 , तेलंगाना में 1787, तमिलनाडु में 1761 और कर्नाटक में 1977, केरल में 1,050 पंजीकृत किए गए .तमिलनाडु में एससी के खिलाफ अपराधों में तेजी देखी गई, जो सन् 2021 में 1377 से बढ़कर सन् 2022 में 1761 हो गई. प्रतिशत के लिहाज से 28.4 की वृद्धि. वर्ष 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध यूपी ,(15,368)में, और सबसे कम केरल (1,050) में पंजीकृत हुए हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा नीत योगी सरकार है जब कि केरल में सीपीआई (एम) नीत एलडीएफ की सरकार है.
B.दलित महिलाओं व दलित बच्चियों के साथ बलात्कार
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा को बताया कि इन्हीं 4 वर्षों के दौरान 27,754 लोगों को मामलों में दोषी ठहराया गया. 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 1 साल में 32,033 दलित महिलाओं दलित बच्चियों के साथ कथित उच्च जातियों के गुँडों ने बलात्कार किए. अन्य शब्दों में प्रतिदिन 88 बलात्कार अर्थात हर 20 मिनट में एक बलात्कार पुलिस थाना में पंजीकृत होता है और असंख्य बलात्कार पुलिस थानों में रिपोर्ट पंजीकृत नहीं होते.
सन् 2022 में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध करने के लिए कुल 10,064 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए, जो सन् 2021 (8,802 मामले) की तुलना में 14.3% की वृद्धि हुई है. अपराध दर सन् 2021 में 8.4 से बढ़कर सन् 2022 में 9.6 हो गई. सन् 2022 में बलात्कार के 1,347 मामले और आदिवासी महिलाओं पर हमले के 1022 मामले पुलिस थानों मेंपंजीकृत किए गए. सन् 2022 में राज्यवार संख्या की दृष्टि से मध्य प्रदेश में 2,979, राजस्थान में 2,521, तेलंगाना में 545, तमिलनाडु में 67, कर्नाटक में 438, आंध्र प्रदेश में 396 जबकि केरल में 172 अपराध पंजीकृत किए गए..कर्नाटक में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की गई, जो सन् 2021 में 361 मामलों से बढ़कर सन् 2022 में 438 मामले हो गए, जो 21.3% की वृद्धि है अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध मध्य प्रदेश (2,979) में, और सबसे कम केरल (172) में पंजीकृत हुए हैं. मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है जब कि केरल में सीपीआई (एम) नीत एलडीएफ की सरकार है.
आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सीपीएम नीत एलडीएफ की सरकार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रति अन्य राजनीतिक दलों की सरकारों से अधिक संवेदनशील है. केरल मेंअपराधों की संख्या का कम होने का यह कारण भी है कि वहां साक्षरता दर 100% है जो कि विश्व के पश्चिमी देशों के बराबर है. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों में वृद्धि संविधान वाद, अंबेडकरवाद, समाज निर्माण तथा राष्ट्र निर्माण में के लिए महत्वपूर्ण चुनौती है.
समाचार डीएफएन यूके (27 सितंबर, 2024) और डिग्निटी फ़्रीडम नेटवर्क के अनुसार हर 18 मिनट में एक दलित के खिलाफ़ एक अपराध होता है. हर हफ़्ते 13 दलितों की हत्या होती है. हर दिन दलितों पर 27 अत्याचार होते हैं. भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, हर साल हिंसा के लगभग 45,935 मामले दर्ज किए जाते हैं। दलितों के खिलाफ़ हिंसा एक दुखद, रोज़ाना की घटना है। “भारत में, हर दिन लगभग दस दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है,”
संविधान के लागू होने के 75 वर्ष बाद भी दलित वर्गों के विरुद्ध अत्याचारों की घटनाओं में निरंतर वृद्धि चिंता का विषय है. परंतु तथाकथित धार्मिक कट्टरवादियों, उच्च जातियों एवं अंध भक्तों के द्वारा कभी भी कोई शौक प्रकट नहीं किया गया. कोई कैंडल मार्च नहीं निकाली गई. मुख्य धारा के प्रिंट मीडिया अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा लंबी चौड़ी बहस नहीं हुई. संक्षेप में चतुर्वर्ण व्यवस्था पर आधारित ‘जातिवादी आतंक’ अंबेडकरवाद के मार्ग में मुख्य बाधा है.
छठा, भारतीय न्यायालय में लगातार मुकदमों में वृद्धि :
मुकदमे लंबित सन् 2006 में विभिन्न न्यायालयों में 85,260 थे .सन् 2016 में यह सख्या बढ़ कर 1,29,881 हो गई. विवादों में बरी होने वाले आंकड़े भी बढ़ रहे हैं. उदाहरण के तौर पर सन् 2006 में बरी होकर छूटने वाले वालों की संख्या 72 % थी जो सन् 2016 में दो प्रतिशत की वृद्धि के साथ 74 %हो गई. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन के अनुसार जून 2019 में लगभग 40,000 मुकदमें एससी/ एसटी वर्गों के विरुद्धअत्याचार के 40,000 मुकदमे लंबित थे .(टाइम्स आफ इंडिया, 17 जून 2019)
सातवां, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों से संबंधित आयोगों की कार्य प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह:
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों से संबंधित आयोगों का मुख्य कार्य इन वर्गों के सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य हितों के संबंध में रिपोर्ट तैयार करना है. परंतु अफसोस की बात यह है कि इन आयोगों की कार्य प्रणाली भी संवेदनशील नहीं है. 26 अप्रैल 2025 को द हिंदू में प्रकाशित लेख के अनुसार इन राष्ट्रीय आयोगों की एक दर्जन से अधिक महत्वपूर्ण वार्षिक रिपोर्टें पिछले सात वर्षों से सार्वजनिक नहीं की गई हैं.
आठवां, अपराधियों के बरी होने की संख्या में वृद्धि:
विभिन्न न्यायालयों में अपराधियों के बरी होने की संख्या में वृद्धि होने के मुख्य कारण– भारतीय पुलिस, नौकरशाही तथा राजनीतिक गठबंधन का राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के शिकंजे में होना, पुलिस द्वारा जानबूझकर देरी करना, पीड़ित और परिवार के सदस्यों को सुरक्षा का अभाव, परिवार को जान का खतरा, पुलिस द्वारा आईपीसी की धाराओं को उचित तरीके से न लगाना, जातिवाद, धन, धर्म अथवा राजनीतिक दबाव, आम आदमी के लिए पैसे के अभाव के कारण बहुत बेहतरीन वकील करना बहुत अधिक कठिन होना, काम छोड़ कर बार-बार कोर्ट के चक्कर लगाना, महिलाओं के लिए अत्याचार के विरुद्ध लड़ना बहुत अधिक कष्टदायक होना, दलित विरोधी मानसिकता सोशल मीडिया के द्वारा प्रचारित होना हैं .
नौवीं: भूख की चुनौती :
अंबेडकरवाद के मार्ग में महत्वपूर्ण बाधा भूख भी है. यदि राष्ट्र में जनता का एक बहुत बड़ा भाग भूख से ग्रस्त है तो राष्ट्र निर्माण की नीतियों में सुधारों की आवश्यकता है. वैश्विक हंगर रिपोर्ट सन् 2020 के अनुसार 117 देश की सूची में भारत 94 वें स्थान पर था. वैश्विक भूख सूचकांक सन् 2021 के अनुसार 116 देशों की सूची में भारत का 101 वां स्थान है. सन् 2023 की रिपोर्ट में 111वें स्थान पर है. सन् 2024 जीएचआई रिपोर्ट में भारत 127 देशों में से 105वें स्थान पर है, इससे स्पष्ट होता है कि भारत की भूख की स्थिति “गंभीर श्रेणी” में आती है.
दसवीं : आर्थिक असमानता :100 साल में पहली बार ‘अरबपति राज’ की स्थापना
भारत के संविधान व अंबेदकरवाद में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता पर बल दिया गया है. पूंजीवादी और कॉर्पोरेटवादी व्यवस्था मेंआर्थिक असमानता के द्वारा लोकतंत्र और राष्ट्र निर्माण मेंबाधा जाती है. नोबेल प्राइज़ विजेता डा. अमृत्य सेन ने डॉ. अंबेडकर को ‘अर्थशास्त्र का पिता’ माना है. डॉ. भीमराव अंबेडकर के अनुसार आर्थिक नीतियां जन केंद्रित होनी चाहिए. यदि हम आर्थिक समानता की बात करें तो यह एक ख्वाब नजर आता है.क्योंकि विश्व असमानता रिर्पोट के आकंड़ो के अनुसार सन् 2022-23 में भारत की सबसे अमीर 1% आबादी की आय बढ़कर 22.6%हो गई है और उनकी संपत्ति की हिस्सेदारी बढ़कर 40.1% गई है. 100 साल में पहली बार इतनी वृद्धि हुई है.इसी प्रकार ऑक्सफैम इंडिया के सन् 2023 के अनुमान के अनुसार भारत के केवल 21 सबसे बड़े अरबपतियों के पास देश के 70 करोड़ लोगों की सम्पत्ति से भी ज्यादा दौलत है, भारत के शीर्ष10% के पास देश की77% संपत्ति हैऔर निचले 50% के पास राष्ट्र की संपत्ति का केवल 30% हिस्सा है. 100 साल में पहली बार इतनी असमानता बढ़ी है.
डॉ. अंबेडकर ने पूंजीवाद को प्रजातंत्र के लिए एक खतरा बताया है. उनके अपने शब्दों में,
“प्रजातंत्र के शासन की बागडोर यदि पूंजीपतियों के हाथों में जाती है तो फिर अन्य प्रजाजनों को गुलामी में ही जीवन जीना पड़ता है”. अंबेदकरवाद प्रमुख उद्योगों के सार्वजनिक स्वामित्व, संसाधनों के समान वितरण और आर्थिक शोषण के खिलाफ सुरक्षा उपायों का समर्थन करता है.
{स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज* (1947) }
पूजीवादी व्यवस्था के वैकल्पिक के रूप में डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार लगभग मार्क्सवादी चिंतन के नजदीक पहुंच जाते हैं.अंबेडकर ने स्पष्ट लिखा कि,’जब तक वर्गविहीन समाज की स्थापना नहीं हो जाती तब तक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है.’
ग्यारहवीं, बेरोजगारी: निरंतर गंभीर स्थिति:
भारत में बेरोजगारी की स्थिति निरंतर गंभीर होती जा रही है. भारत में बेरोजगारी दर 2018 से 2024 तक औसतन 8.18 प्रतिशत थी, जो 2020 के अप्रैल में 23.50 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई और 6.40 प्रतिशत के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गई. दिसंबर 2021 तक 53 मिलियन (5.3 करोड़) बेरोजगार थे. इनमें 35 मिलियन (3.5 करोड) लोगों को रोजगार की तुरतं आवश्यकता है. इनमें 8 मिलियन महिलाओं की संख्या है.अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी), भारत रोजगार रिपोर्ट सन् 2024 के आधार परअर्थशास्त्री कौशिक बसु (भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए)) के अनुसार भारत में बेरोजगारी में भारी वृद्धि है. भारत में युवा बेरोजगारी की दर वैश्विक औसत दर से कहीं अधिक है. सन् 2020 से सन् 2022 के बीच 15-29 आयु वर्ग में शिक्षित बेरोजगारी दर 54.2% से बढ़कर 65.7% हो गयी है. भारत में बेरोजगारी दर भाईचारा और विश्वास का क्षरण क्या कर रहा है.
राष्ट्र के निर्माण में युवा वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. परंतु यदि राष्ट्र का बेरोजगार युवा दिशाहीन हो जाता है. वह राष्ट्र व समाज विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हो जाता है तथा समाज में अशांति फैल जाती है. परिणामस्वरूप राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती हैं.बेरोजगारी की स्थिति गंभीर राष्ट्र के लिए हितकर नहीं है. परंतु लोकसभा चुनाव (2024) में राजनीतिक दलों के भाषण वीरों के द्वारा बेरोजगारी के समाधान के लिए आश्वासन तो गए.परंतु किस तरीके से समाधान होगा इसकी उनके पास विस्तृत योजना नहीं है.
बारहवीं, राजनीतिक दल – चुनाव में महाविजय तानाशाही का खतरा:
डॉ भीमराव अंबेडकर को यह आशंका थी कि यदि चुनाव में कोई राजनीतिक दल बहुत अधिक बहुमत प्राप्त कर लेता है तो उससे प्रजातंत्र के तानाशाही में परिवर्तित होने का खतरा विद्यमान रहता है. डॉ आंबेडकर केशब्दानुसार”इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो. चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है.” उनकी यह आशंका ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है.जर्मनी में हिटलर चुनाव के माध्यम से सत्ता में आया थाऔरतानाशाह बन बैठा. परिणाम स्वरूप निर्वाचित तानाशाही की स्थापना हो जाती है जो राष्ट्र निर्माण के विकास में घातक सिद्ध हो जाती है.
तेरहवीं, राजनीतिक अपराधीकरणऔर अपराधियों का राजनीतिकरण का खतरा:
संविधान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि क्या है? डॉ अंबेडकर के अनुसार “संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा. संविधान चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे हैं, तो यह अच्छा साबित होगा.”
20वीं शताब्दी के 1970 दशक से भारतीय राजनीति में अपराधियों का प्रवेश होता चला गयाऔरराजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों का राजनीतिकरण हो गया.धीरे-धीरे विधानसभाओं से लेकर संसद तक निर्वाचित अपराधियों की संख्या में वृद्धि होती चली गई..एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2024 के चुनाव में 18वीं लोकसभा में 543 सदस्यों से 251 सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं.अन्य शब्दों में यह संख्या लोकसभा में बहुमत से केवल 21 कम है . सन् 2019 में कुल 233 सांसद (43 प्रतिशत),सन् 2014 में 185 (34 प्रतिशत), सन् 2009 में 162 (30 प्रतिशत) और सन् 2004 में 125 (23 प्रतिशत) ने आपराधिक मामले अपने शपथ पत्रों में लिखे थे. आपराधिक पृष्ठभूमि के निर्वाचित सदस्य राज्यों और केंद्रीय सरकारों में मंत्री भी होते हैं तथा वह नीतियों का निर्माणऔर क्रियान्वन भी करते हैं. यही कारण है कि निर्वाचित प्रतिनिधि और यहां तक कि मंत्री भी अपने पद की गरिमा को ताक पर रखते हुए संविधान,सर्वोच्च न्यायालयऔर अन्य संस्थाओं के विरुद्ध बोलते रहते हैं. ऐसी स्थिति में आम जनता के विकास की बात करना अथवा राष्ट्र निर्माण की बात करना ऐसा है एक कल्पना के समान है. निश्चित रूप में राजनीतिक अपराधीकरणऔरअपराधीकरण की राजनीतिक संस्कृति अंबेडकरवादी चिंतन के लिए वर्तमान शताब्दी में एक महत्वपूर्ण चुनौती है.
चौदहवीं, हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र की चुनौती
भारत के संविधान एवं अंबेडकरवादी चिंतन में धर्मनिरपेक्षता का विशेष स्थान है.हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्र के निर्माण के हानिकारक और घातक है.सन् 2014 के पश्चात भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन सरकार की स्थापना के पश्चात धीरे-धीरे धर्म निरपेक्षता को कमजोर किया जा रहा है और सत्ताधारीवर्ग के द्वारा बहुत संख्या के वर्ग की भावनाओं और आस्था का शोषण करने के लिए धर्म और राजनीति में गहरा संपर्क स्थापित किया जा रहा है. बहुत संख्यक वर्ग के द्वारा अल्पसंख्यक वर्गों के विरुद्ध हॉस्टेलईटी तथा नफरत फैलाने का प्रयास किया जा रहा है तथा हिंदू राष्ट्र की स्थापना की और अग्रसर हो रहें हैं.
अयोध्या में प्रधान मंत्री राम मंदिर का उद्घाटन, मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवाद, प्रशासन -पुलिस-पुजारी-सत्ताधारी-राजनेताओं के गठबंधन के द्वारा पूजा स्थल(विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 का उल्लंघन, नागरिकता संशोधन अधिनियम दिसंबर2019 में पारित हुआ तो उसे चुनाव से पूर्व 11 जनवरी 2024 को 5 वर्ष के बाद अधिसूचना कर जारी करके लागू करना, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने का प्रचार करना, धारा 370 व धारा 35(ए) पारित करके जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करना, उत्तराखंड की सरकार के द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पारित करना, हिंदू बनाम मुस्लिम, हिंदू बनाम ईसाई और कुकी बनाम मैतेई (एथनिक विभाजन) इत्यादि धर्मनिरपेक्षता को चुनौती हैं
सन् 1947 में धर्म के आधार पर भारत का विभाजन राष्ट्र निर्माण के लिए घातक सिद्ध हुआ. इसके बावजूद भी भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भारतीय राष्ट्र के निर्माण के लिए धर्मनिर्पेक्ष राज्य की स्थापना की. देश आजाद होने के पश्चात1960 के दशक से धीरे-धीरे सांप्रदायिक बढ़ते चले गए. वर्तमान शताब्दी में चाहे वह डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार हो अथवा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत एनडीए सरकार हो सांप्रदायिक दंगे बंद नहीं हुए. सन 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद हिंदूराज और हिंदू राष्ट्र के सिद्धांत का प्रचार बढ़ रहा है.
आस्था के नाम पर सांप्रदायिक जहर धीरे-धीरे समाज में इस प्रकार प्रवेश कर दिया गया जिसके परिणाम स्वरूप सांप्रदायिक तनाव, सांप्रदायिक हिंसाऔर सांप्रदायिक दंगों में वृद्धि हुई है जो कि संविधान, धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्र निर्माण के लिए हानिकारक और घातक है. वास्तविकता यह है कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 7 दिसंबर 2022 को कांग्रेस के सांसद शशि थरूर के सवाल का उत्तर देते हुए राज्य सभा में कहा कि सन् 2017 से 2021 तक 5 वर्ष के दौरान 2900 सांप्रदायिक घटनाएं हुई. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए, राय ने कहा कि 2021 में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के कुल 378 मामले दर्ज किए गए, 2020 में 857, 2019 में 438, 2018 में 512 और 2017 में 723 मामले दर्ज किए गए.
यूनाइटेड क्रिश्चियन फोर्म के अनुसार सन् 2023 में 525 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए. निरंतर बढ़ता हुआ संप्रदायवाद,व सांप्रदायिक हिंसा निश्चित रूप से अंबेडकरवादी चिंतन के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती है.
पंद्रहवीं, कानून के शासन की अपेक्षा :बुलडोजर न्याय और ‘भीड़ के न्याय’
एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार भारत के अप्रैल और जून 2022 के बीच पांच राज्यों – असम, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में कानून के अतिरिक्त और नियमों को ताक पर रखते हुए बुलडोजर (जेसीबी) के प्रयोग से 128 कार्रवाइयों में 617 अल्पसंख्यक वर्ग के लोग प्रभावित हुए. भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने अप्रैल 2022 में (अब हटाए गए एक्स पोस्ट में) जेसीबी को “जिहादी नियंत्रण बोर्ड” के नाम से संबोधित किया था.
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा के क्षेत्र नूंह में विध्वंस के मद्देनजर कहा था, “मुद्दा यह भी उठता है कि क्या कानून और व्यवस्था की समस्या की आड़ में किसी विशेष समुदाय की इमारतों को गिराया जा रहा है और राज्य द्वारा जातीय सफाए की कवायद की जा रही है।” सांप्रदायिक दंगे, सांप्रदायिक हिंसा तथा बुलडोजर की राजनीति भारतीय धर्मनिरपेक्षता, न्याय, सांप्रदायिक सद्भावना, संविधानवाद और अंबेडकरवाद के बिल्कुल विपरीत है.
भारतीय जनता पार्टी केसन 2014 में सत्ता में आने के बाद गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों के विरूध दक्षिणपंथी विचारधारा के समाज विरोधी तत्वों के द्वारा लोकतंत्र को ‘भीड़तंत्र’ व न्याय को ‘भीड़ के न्याय’ में बदल दिया. शोएब डेनियल के अनुसार”सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने गौरक्षा के नाम पर हिंसा का समर्थन किया है.”
साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक राजेंद्र शर्मा के अनुसार, ‘’2014 से अगस्त 2022 के बीच, गाय के नाम पर हिंसा के 206 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 850 लोग प्रभावित हुए। इनके शिकारों में दलित व ईसाई भी शामिल हैं, किंतु 86 फीसद हिस्सा मुसलमानों का ही था। ऐसी 97 फीसद घटनाएं मोदी राज आने के बाद ही हुई थीं. उत्तरी भारत में.. भाजपा, गोरक्षा के नाम पर अपने गुंडादलों द्वारा हिंसा, यहां तक कि लिंचिंग तक का बचाव करती है’’
सोलहवीं :दो -राष्ट्र सिद्धांत
अपनी पुस्तक “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” के संशोधित संस्करण में अम्बेडकर ने लिखा था कि पाकिस्तान का निर्माण हम सबके लिए एक बड़ी त्रासदी होगी क्योंकि उससे हिन्दू राज की राह खुलेगी, जिसमें दलित गुलाम होंगे. भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य संबंधित संगठनों का मुख्य एजेंडा हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना है. जो बाबासाहेब के स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय के आदर्शों के ठीक विपरीत है.
डॉ. भीमराव अंबेडकर धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना अनुचित मानते थे. उनका मानना था कि धर्म के आधार पर पाकिस्तान की स्थापना करना अथवा हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना निश्चित रूप में भारत के संविधान, लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, बंधुता, सामाजिक न्याय, और राष्ट्र निर्माण के लिए घातक सिद्ध होगी. भीमराव अंबेडकर हिंदू राज और हिंदू राष्ट्र को भारतीय संविधान, लोकतंत्र, और राष्ट्र निर्माण के लिए घातक मानते हैं. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा कि.
“यदि हिंदू राज वास्तविकता बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। हिंदू कुछ भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए खतरा है.यह लोकतंत्र के साथ असंगत है. किसी भी कीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए.” (डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, थॉट्स ऑन पाकिस्तान, राइटिंग्स एंड स्पीचेज़, खंड-8, पृष्ठ-358). वह आगे लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति मूलतः हिंदुओं की आत्मा है. लेकिन हिंदुओं ने पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है और सिख, मुस्लिम और ईसाई सभी इससे पीड़ित हैं.…हिंदू वर्चस्व के समर्थकों को पता था कि लोकतंत्र का इस्तेमाल हिंदू राज स्थापित करने के लिए किया जा सकता है। वे और उनके अनुयायी हिंदुत्व कार्ड का इस्तेमाल करके सत्ता के लिए वोट का इस्तेमाल करना चाहते हैं.“
अंबेडकरवाद बहुसंख्यकवाद के खिलाफ है, भारतीय संदर्भ में अर्थ बहुसंख्यक समुदाय–हिंदुओं का बेलगाम शासन है.अंबेडकर ने 24 मार्च, 1947 को राज्यों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर एक ज्ञापन में लिखा था, जिसे उन्होंने संविधान सभा की मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों आदि पर सलाहकार समिति द्वारा गठित मौलिक अधिकारों की उप-समिति को सौंपा था: “भारत में अल्पसंख्यकों के लिए दुर्भाग्य से, भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया सिद्धांत विकसित किया है जिसे बहुसंख्यकों की इच्छा के अनुसार अल्पसंख्यकों पर शासन करने का बहुसंख्यकों का दैवीय अधिकार कहा जा सकता है. अल्पसंख्यक द्वारा सत्ता के बंटवारे के किसी भी दावे को सांप्रदायिकता कहा जाता है, जबकि बहुसंख्यकों द्वारा पूरी सत्ता पर एकाधिकार करना राष्ट्रवाद कहलाता है. ऐसे राजनीतिक दर्शन से प्रेरित होकर बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं है.’’ (बी शिव राव, चुनिंदा दस्तावेज, खंड 2, पृष्ठ 113)।
अंबेडकरवाद के अनुसार हिंदू धर्म पर आधारित राजनैतिक विचारधारा पूर्णतः प्रजातंत्र विरोधी, फासीवादी व नाजीवादी विचारधारा है. डॉ भीमराव अंबेडकर शब्दों में:
‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः प्रजातंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद या नाजी विचारधारा जैसा ही है. अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है- तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं. यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है. यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है’.’’
संविधान सभा में ऐतिहासिक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था कि “अंदरूनी लोगों द्वारा विश्वासघात हमारा पुराना दुश्मन है, जबकि हमारा नया दुश्मन है जाति और धर्म. यदि लोग राष्ट्र को अपने पंथ और जाति से ऊपर नहीं रखेंगे, तो हमारी स्वतंत्रता फिर से खो जाएगी “न्यूटन के गति के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक क्रिया की विपरीत और सामान प्रतिक्रिया होती है. अंबेडकरवाद हमें चेतावनी देता है कि यदि हिंदू राष्ट्र अथवा हिंदू राज का सिद्धांत निरंतर बढ़ता चला गया तो कहीं ऐसा न हो कि गति के सिद्धांत के अनुसार हम 78 वर्ष पूर्व की खतरनाक स्थिति की ओर न पहुंच जांए. इसको रोकना नितांत अनिवार्य है.
हमारा अभिमत है कि अंबेडकरवादी चिंतन के आधार पर संविधान, लोकतंत्रऔर राष्ट्र निर्माण के लिए हिंदू राजऔर हिंदू राष्ट्रवाद के विरुद्ध जनता को जागरूक होना नितांत अनिवार्य है. राष्ट्र निर्माण के लिए भारत की विभिन्न जातियों, विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों, उप संस्कृतियों, सांस्कृतिक क्षेत्रों तथा विभिन्न भाषा -भाषी लोगों के मध्य सदभावना का होना जरूरी है. भारत की विशालता और विभिन्नताओं को देखते हुए भारत में विभिन्नता में एकता के आधार पर राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को सुदृद्ध किया जा सकता हैऔरप्रत्येक व्यक्ति को यह शपथ ग्रहण करनी चाहिए कि वह प्रथम व अंतिम भारतीय़ है. इसमें धर्म और जाति का कोई स्थान नहीं है.
सारांशतः अंबेडकरवादी चिंतन के अनुसार एक ऐसी वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का निर्माण होना चाहिए जिसका मुख्य उद्देश्य गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और अशिक्षा से मुक्त समतावादी समाज की स्थापना,; सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; व्यक्तिगत स्वतंत्रता; प्रमुख उद्योगों पर सार्वजनिक नियंत्रण; धन का विकेन्द्रीकरण; और समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों का सशक्तिकरण संभव हो सके.
अंततः अंबेडकरवाद पूंजीवाद, कॉरपोरेटवाद, संप्रदायवाद और जातिवादी गठबंधन के विरुद्ध एक वैकल्पिक प्रदान करता है.
(नोट: 14 अप्रैल 2025 को अंबेडकर समाज कल्याण सभा, करनाल के द्वारा आयोजित डॉ भीमराव की जयंती के अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में दिए गए भाषण का संशोधित रूप. मैं अपने विद्यार्थी डॉ. अमर सिंह पतलान, अध्यक्ष अंबेडकर समाज कल्याण सभा, करनाल और उसकी टीम के सदस्यों को शानदार कार्यक्रम करने के लिए बधाई देता हूं)
लेखक समाज वैज्ञानिक हैं, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल(हरियाणा) के पूर्व प्राचार्य हैं।