दरिद्रता खदेड़ कर तो आप भी अब कूल कूल फील कर रहे होंगे. मेरे मुहल्ले वाले अपना अपना दरिद्र सूप या दउरी हसुआ या बेंत से पीटते इस खाली पड़े प्लॉट में जमा कर गए. अर्थात अपनी सारी बला पड़ोसी के एकाउंट में जमा कर दिए. ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के दौर में जनधन एकाउंटों में लोग करोड़ों रुपये जमा किए थे.
आदमी की तरह किसी भी शब्द को किसी निश्चित खांचे में फिट नहीं किया जा सकता है. अमीरी इतनी ही अच्छी होती तो बाबा नागार्जुन को ‘धन पिशाच’ और ‘कुबेर के छौने’ जैसे विम्बों पर मगजपच्ची नहीं करनी पड़ती. वैसे मेरे मुहल्ले भर के लोगों की दरिद्रता को अपनी गोद में आश्रय देने वाला यह प्लॉट अघोषित कूड़ा घर भी है और गोमाताओं को ठौर भी देता है. लोग एक रोटी या जूठन खिलाकर धार्मिक होने का सर्टिफिकेट हासिल कर लेते हैं. दूध दूह कर छोड़ दी असंख्य गायें, सांड़, कुत्ते और सूअर (इसके अतिरिक्त भारी तादाद में कीड़े-मकोड़े और जीव जंतु भी) इसी प्लाट की बदौलत जिंदा हैं. इस लिहाज से यह प्लॉट (धरती का वह हिस्सा) दुनिया का सबसे बड़ा अमीर या दरियादिल भी कहा जा सकता है. बदल रहा है बनारस. फेसबुक पर कुछ पोस्ट देखकर तो लगता है बनारस बहुत जल्द क्योटो को मात देने वाला है. भई अपना अपना चश्मा है, अपना अपना नजरिया है.
माना तो यह जाता है कि दरिद्रा या अलक्ष्मी लक्ष्मी की ही जुड़वा बहन हैं. दोनों में से किसी को भी नाराज करना खतरे की घंटी है. मीठा लक्ष्मी को पसंद है तो खट्ठा-तीखा अलक्ष्मी या दरिद्रा को. इसीलिए मिठाई घर के अंदर होती है और नींबू-मिर्च बाहर. ताकि वहीं से नींबू मिर्च खाकर संतुष्ट होकर दरिद्रा लौट जाए. मगर लक्ष्मी बहुत चंचला होती हैं. उनकी चिरौरी करने और खुश रखने में ही विष्णु की आधी उर्जा जाया होती रही है. मेरी बात पर भरोसा न हो तो अपनी अपनी लक्ष्मियों का हालचाल ले लीजिए.
दुनिया का कोई भी बहुमूल्य सृजन त्याज्य (कूड़ा-कचरा) वस्तुओं से ही होता है. विसर्जन सर्जन का अनिवार्य अंग है. जिस मंथन से लक्ष्मी निकली थी, उसी मंथन से हलाहल भी निकला था. लक्ष्मी की फैन फॉलोविंग ज्यादा थी, मगर हलाहल तो कोई नीलकंठ ही हलक के नीचे उतार सकता था, क्योंकि उनकी दृष्टि में हलाहल अमृत से अलग था ही नहीं. खैर हम तो उस देश के रहने वाले हैं, जहां कहा जाता है कि – बेटा होई त हमार, बेटी होई त तहार.
लेखक
विजय शंकर पांडेय