निनादः सूदखोरी के मकड़जाल के साथ सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को उधेड़ने वाली कहानी

अजय कुमार

कहानीकार एवं उपन्यासकार ओमप्रकाश तिवारी के चर्चित उपन्यास निनाद को केवल साधारण कहानी की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। उपन्यास में व​र्णित दृश्य से लेकर संवाद तक का पाठ अलग-अलग है और विमर्श भी। इसमें समाज की विसंगतियों, राजनीति व राजनीतिक चेतना, स्त्री चेतना, जीवन दर्शन, वर्ण भेद, जातिभेद, दमन-शोषण और सूदखोरी पर गंभीरता से विमर्श किया गया है। इसे पढ़ते हुए हर वाक्य को समझ कर, उसमें समाहित अर्थ की व्याख्या करने के बाद आगे बढ़ सकते हैं। उपन्यास के केंद्र में सूदखोरी है, लेकिन उसके बहाने तमाम तरह के विमर्श सामने आते हैं। कहने की शैली लाजवाब है। वर्तमान और फ्लैशबैक का गजब का मिश्रण है।

उपन्यास कुल 11 अध्यायों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय की अपनी अहमियत है। पहले अध्याय में उपन्यास की पृष्ठभूमि और देशकाल स्पष्ट हो जाता है। आगे के अध्यायों में वि​भिन्न तरह का विमर्श करते हुए कहानी आगे बढ़ती है।
जिस समाज का साहित्य जीवंत है और जागृत है, वही सत्य है। आज हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें प्रलोभन में जीने की आदत पड़ गई है। इसे उपन्यास में देख सकते हैं। ओमप्रकाश तिवारी पेशे से पत्रकार हैं, तो भाषा-शैली पर उसका प्रभाव दिखता है। कथा को कहने में भी इस कला-कौशल का इस्तेमाल किया गया है।

कथाकार ओमप्रकाश ने निनाद उपन्यास में अपने परिपक्व चिंतन और सर्जनात्मक अनुभव को साझा करते हुए सामाजिक, राजनीतिक विद्रूपताओं, तत्कालीन सियासी घटनाओं का वर्णन किया है। यह उपन्यास उनके गहरे आंतरिक व यथार्थ चेतना का बोध कराता है। रचना आंचलिकता को समेटे हुए समाज पर तीखा व्यंग्य है। इसमें मानवीय सरोकार है तो विसंगतियों के बारे में खरी-खरी भी है। उपन्यास के केंद्र में रापादूबे गांव है। शुरू से लेकर अंत तक रापादूबे की गलियों में घटनाओं को विस्फोटन होता है। जैसे-जैसे कथाक्रम आगे बढ़ता है वैसे-वैसे कहानी दिलचस्प होती जाती है।

उपन्यास में देश के बहुस्तरीय जीवन की भरी-पूरी उपस्थिति तथा समय-समाज, सिनेमा और मीडिया के संदर्भ संश्लिष्ट होकर एक ऐसा पाठ निर्मित करते हैं कि पाठक उसके वैविध्यपूर्ण चित्रण एवं अंतहीन रोचकता में डूब जाता है। कथा का आरंभ रेतराम की चाय की दुकान से होता है। रेतराम की दुकान पर अल सुबह से लेकर शाम तक बूढ़े से लेकर जवान तक सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक विषयों पर चर्चा करते हैं।

इसी बीच कथा में दिलचस्प मोड़ आता है। रापादूबे गांव का बल्लू अरसे बाद अपनी प्रेमिका दीक्षा के साथ कार से रेतराम की चाय की दुकान पर आ जाता है। दुकान पर मौजूद सभी की विस्मयकारी नजरें उन्हें देखती हैं। यह दृश्य काफी रोचक है। ग्रामीण मानसिकता को मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रित किया गया है। शहरी और ग्रामीण संस्कृति का विच्छेदन और वाकपटुता को प्रकट करता है।

उपन्यास में एक विशिष्ट प्रकार का बौद्धिक खुलापन भी है, जो प्रतीकात्मक अनुप्रयोग द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की बड़ी रेखा खींचता है। निनाद उपन्यास प्रेमचंद के गोदान जैसी महाजनी-सूदखोरी को रेखांकित करता है। उपन्यास का पात्र शमेर गांव के सवर्ण जाति के अखिलेश से सूद पर पैसा लेता है। अ​खिलेश एक दिन शमेर से कहता है कि एक वर्ष बीत गया, अब 100 रुपये का पांच नहीं, 10 रुपये ब्याज लगेगा। इससे सूदखोरी की भयावहता को समझा जा सकता है। इस प्रकरण को बहुत मार्मिकता के साथ चित्रित किया गया है।

सूद के बदले अ​खिलेश हर हथकंडे अपनाकर शमेर की भैंस छीनना चाहता है तो शमेर हर उपाय करके भैंस को बचाना चाहता है। संक्षेप में यही पूरी कहानी है, लेकिन निनाद में इतनी बातें और इतने प्रसंग हैं कि ऐसा लगता है कि लेखक ने अपने अनुभव को इसमें उड़ेल दिया है। अच्छी बात यह है कि यह कहीं से भी थोपा हुआ नहीं लगता है। न ही प्रवचन की तरह लगता है। हर बात और हर प्रसंग पूरी संवेदनशीलता के साथ सामने आते हैं।

लेखक ने गांव और शहर की संस्कृति और नजरिए को यथार्थ रूप में चित्रित किया है। शहरी जीवन से दीक्षा पात्र है, जिसकी बहुआयामी अभिव्यक्ति सामने आती है। दीक्षा के जरिए लेखक ने सामाजिक, आर्थिक व नारी के अंतर्मन के भावों को उद्घाटित किया है। दीक्षा शहरी परिवेश में पली-बढ़ी है। वह अपने प्रेमी के साथ ग्रामीण रीति-रिवाज जानने गांव आती है। उसका मानना है कि ग्रामीण संस्कार नारी जाति के लिए बाधा हैं।

दीक्षा में करुणा, दया और समरसता के भाव भरे हुए हैं। इसे इसी से समझा जा सकता है कि वह बल्लू से कहती है कि शमेर ने 10 हजार रुपये कर्ज लिए है। इस कर्ज को वह अदा कर दे ताकि शमेर की भैंस बच जाए। दीक्षा की मनोस्थिति से पता चलता है कि लेखक ने गांव में उभरते मध्यवर्ग, निम्न वर्ग को अपने नजरिए से देखने का प्रयास किया है।

कथा में आए पात्र उच्‍च वर्ग, उच्‍च मध्य वर्ग, निम्‍न मध्य वर्ग और निम्‍न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेखक दिखाना चाहता है कि दबंग वर्ग के लोग जहां अपने अंतरविरोधों के कारण दिनोंदिन बर्बर होते जा रहे हैं, वहीं दलितों के शोषण के प्रति उनमें बदलाव भी है और नहीं भी है।
गांव के सवर्ण वर्ग कमज़ोर, असहाय और निर्बल मजदूरों का शोषण कर रहे हैं। हालांकि यह अन्तर्विरोध पूंजीवादी व्यवस्था का परिचायक है।
यह बात साफ है कि लेखक ने भारतीय जन-जीवन के व्यापक परिवेश को उजागर करते हुए समाज में व्याप्त स्त्री विद्रूपताओं का भी अंकन किया है। दीक्षा का स्त्री और पुरुष दोनों के लिए जो भाव है, वह अनगिनत सवाल करता है। वह नारीवाद विमर्श के रूप में विभिन्न सिद्धांतों का अनुसरण करती है, जो विकसित होती सामाजिक सोच से संघर्ष करती है। वह प्रयास करती है कि महिलाओं को भी मनुष्य माना जाए ताकि उसकी गरिमा, स्वतंत्रता, समानता उसके जैविक आधार पर न होकर उसके व्यक्ति के रूप में हो।

दुनिया भर में एक बड़ी आबादी तिरस्कृत, दमित, शोषित और वंचित है। इसमें महिलाएं भी शामिल हैं। धर्म, समाज, राजनीति के माध्यम से मनुष्य ने मनुष्यों पर सदियों से अमानुषिक व्यवहार किया है। समाज और सामाजिकता से उन्हें बहिष्कृत-तिरस्कृत किया है। उनसे उनके मानवीय रूप में जीने का अधिकार छीन लिया है जोकि कतई क्षम्य नहीं है। उपन्यास भी इसी को अ​भिव्यक्त करता है।

उपन्यास का एक बड़ा वैशिष्ट्य इसकी पठनीयता है, जो प्रयोगधर्मिता के बावजूद अक्षुण्ण है। भाषा-शैली अपेक्षाकृत अधिक सहज है। लेखक ने नितांत वैयक्तिक संदर्भों में भी रचनात्मक तटस्थता का सम्यक निर्वाह किया है। उपन्यास लेखक के जीवन संघर्ष, गहन दायित्वबोध, साहित्यिक विमर्श, नारी अस्मिता बोध, सहज भाषिक अनुप्रयोग, शिल्पगत सौंदर्य और कलात्मक उत्कर्ष के लिए जाना जाएगा। इस सर्जनात्मक उपलब्धि के लिए ओमप्रकाश तिवारी और हंस प्रकाशन को बधाई। किसी भी साहित्यप्रेमी को इस उपन्यास को अवश्य पढ़ना चाहिए।

उपन्यास – निनाद
लेखक- ओम प्रकाश तिवारी
मूल्य-495 रुपये
बी- 336/1, गली नंबर 3, दूसरा पुस्ता
सोनिया विहार, नई दिल्ली-94