आज मनमोहन का जन्मदिन है- कवि-आलोचक मनमोहन के निजी और सार्वजनिक के बहाने-

कॉमरेड बीटी रणदिवे के साथ मनमोहन चाय पीते हुए

हिंदी के प्रसिद्ध कवि और आलोचक मनमोहन का आज जन्मदिन है। मनमोहन हिंदी साहित्य में उन विरले लोगों में शामिल हैं जो अपने बारे में बोलने और लिखने में परहेज करते हैं। इसलिए मनमोहन  के परिचितों, मित्रों को छोड़कर बहुत कम लोगों को उनके बारे में जानकारी है। मनमोहन ने बहुत कम लिखा है लेकिन जितना लिखा है वह गंभीर लिखा है। मनमोहन के जन्मदिन के मौके पर प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने फेसबुक वाल पर उनके बारे में लिखा है। हम साभार यहां प्रकाशित कर रहे हैं ताकि प्रतिबिम्ब मीडिया के पाठक भी उनके बारे में ज्यादा जान सकें।

मनमोहन

जगदीश्वर चतुर्वेदी 

आज कवि -आलोचक मनमोहन का जन्मदिन है। उसके बारे में सार्वजनिक तौर पर बातें करना बहुत ही मुश्किल और चुनौती भरा है।उसके सार्वजनिक और निजी के बीच में विलक्षण रिश्ता है।एक लेखक और व्यक्ति के नाते आमतौर पर सोशल मीडिया में हम कैसे लिखें ? क्या सोशल मीडिया में परिचित पर इतना ही लिखना काफ़ी है कि आज फ़लां -फ़लां कवि या लेखक का जन्मदिन है !

आम तौर पर लेखक पर उसके करीबी ,संगठन के लोग और मित्र भी सोशल मीडिया पर लिखने से कतराते हैं।लेखक के बारे में न लिखना, लेखक के जीवनानुभवों के बारे में न लिखना स्वयं में समस्या मूलक है। यह स्थिति बदलनी चाहिए।

लेखक के बारे में न लिखकर हम उसे पूजा की जिंस बना देते हैं।लेखक के बारे में हर हालत में अधिक से अधिक शब्दों में लिखा जाना चाहिए।लेखक फ़ोटो नहीं है।लेखक पर लिखें ,उसकी रचनाओं पर लिखें, लेकिन लिखें।

लेखक -बुद्धिजीवी-विचारकों पर जब लिखते हैं तो सार्वजनिक परिवेश बनाते हैं।लेखक के सार्वजनिक परिवेश में आज जो गिरावट आई है उसका प्रधान कारण है लेखक के बारे में न लिखने की आदत या संस्कार। आज आप यह बहाना नहीं बना सकते कि कहां लिखें और क्या लिखें ? आज सब कुछ उपलब्ध है। मीडियम उपलब्ध है, किताबें, रचनाएं उपलब्ध हैं। पाठक भी उपलब्ध हैं। लेकिन लेखन ग़ायब है। लिखे बिना लेखक का परिवेश नहीं बनता।साहित्य का परिवेश नहीं बनता।

मनमोहन शानदार कवि -आलोचक और प्रोफ़ेसर है।वह असाधारण प्रतिभा का धनी है।मौलिकता उसकी सबसे बड़ी पूंजी है।अहंकार उसमें एकदम नहीं है।मैं मनमोहन को बचपन से जानता हूं।वह बचपन से कविताएं लिख रहा है। हमेशा जटिल समस्याओं में उसका मन उलझा रहता है। वह सोचता रहता है।

मथुरा में मनमोहन का जन्म हुआ।पिता स्व.सोहन लाल चतुर्वेदी संगीत के शिक्षक और विद्वान थे।मनमोहन के भाई मधुसूदन लाल चतुर्वेदी बेहतरीन शिक्षक और बुद्धिजीवी हैं।मथुरा में मनमोहन के मित्रों में अधिकांश प्रगतिशील और लोकतांत्रिक विचारों से ओतप्रोत रहे हैं।मनमोहन की ज़िन्दगी का बी ए तक का समय मथुरा में गुजरा।

मनमोहन पढ़ने में हमेशा प्रतिभाशाली रहा, मथुरा के चम्पा अग्रवाल इंटर कॉलेज से 12वीं तक की पढ़ाई की। बाद में बी.एस.ए .कॉलेज से उसने बी.ए. किया।उसके बाद में जेएनयू से हिंदी में एम ए और पीएचडी की।

मनमोहन के मथुरा के जिगरी मित्रों में हरिवंश चतुर्वेदी, भारत भूषण, अशोक चक्रधर, सव्यसाची, अनिल चौधरी जेएनयू वाले, अनिल चौधरी नाटक वाले, दिनेश अग्रवाल आदि प्रमुख रहे हैं। मथुरा ने लंबा समय डैम्पियर पार्क की हरी घास पर घंटों बातें करते हुए गुज़ारा है।

मुझे उसकी कविताएं बहुत अच्छी लगती थीं, मेरे पास उन दिनों एक टेप रिकॉर्डर हुआ करता था , मित्रों में मैं संभवतः अकेला था जिसके पास टेप रिकॉर्डर था। यह वाक़या सन् 1970 के आसपास का है। हम नियमित मिलते, खूब बहसें होतीं, मनमोहन और मधुसूदन लाल जी उन दिनों मार्क्सवाद और वैज्ञानिक चिन्तन को लेकर अपना पक्ष रखते थे और मैं धार्मिक-पौराणिक कथाओं के तर्क और मिथों के तर्कों को रखता था। मनमोहन की कविताएं सुनना और विचारों की भिड़ंत हमारा प्रिय शौक़ था।

मुझे पतंग उड़ाने का खूब शौक था, इसके कारण कभी कभी मनमोहन के घर जाकर पतंगे उड़ाता था। अनेक बार मनमोहन भी पतंग का सामान खरीदकर लाता, लेकिन आम तौर पर उसकी पतंगबाज़ी में रुचि नहीं थी। वह चौबियापाड़े में रहता था और वहां पतंगें बहुत उड़ती थीं। उसकी छत पर पतंगें बहुत कटकर गिरती थीं।

मनमोहन के घर में संगीत का परिवेश था लेकिन उसने संगीत के बजाय कविता में दिलचस्पी ली। वह रहता चौबियापाड़े में था लेकिन उसमें चौबों के एक भी लक्षण नहीं हैं। उसके पूरे परिवार में चौबों के लक्षण नहीं हैं। मनमोहन के परिवार के कई मंदिर हैं। पर मंदिरों और भगवान से वह बहुत पहले ही अलग कर चुका था। वह भिन्न कामों में रुचि लेने लगा। बचपन में सेवा पूजा करता था लेकिन बाद में उसने सेवा-पूजा करना छोड़ दिया।

मैंने मार्क्सवाद,आधुनिक साहित्य और प्रगतिशील नज़रिए का पहला पाठ दैनंदिन मुठभेड़ों में मनमोहन और उसके बड़े भाई के संसर्ग में पढ़ा। साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ने की आदत इन दोनों के कारण पड़ी। इनके बहाने ही सव्यसाची से संपर्क प्रगाढ़ बना। रिश्ते में वह मामा है।

मनमोहन के व्यक्तित्व और विचारधारा में फांक नहीं है। वह जिस तरह सोचता है वैसे ही आचरण करता है। यह कला उसने सचेत रूप से बचपन से ही विकसित की है।

कहने को मनमोहन मथुरा का है लेकिन उसमें आधुनिक जीवन मूल्य कूट कूटकर भरे हैं। वह मथुरा की धार्मिक मनोदशा और सामंती संस्कारों से एकदम मुक्त है। उसमें सच बोलने और ईमानदारी के साथ जीने का साहस है। उसके स्वभाव में मानवीय संवेदनशीलता बहुत गहरे बैठी है। लेकिन अनेक बार आलस्यवश व्यक्त नहीं करता। ईमानदारी से महसूस करना और फिर उन विचारों को जीना उसने निजी पहलकदमी और परिवार के परिवेश के कारण सीखा, वह आरंभ से ही आत्मनिर्भर रहा है। उसने अपनी पसंद से अंतर्जातीय विवाह किया ,इसका मथुरा के चतुर्वेदी समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा।

मनमोहन मथुरा में बहुत ही लोकप्रिय और कम बोलने वाले युवा के रुप में जाना जाता था। मनमोहन को यह सौभाग्य हासिल है कि उसकी कविताएं साहित्यिक पत्रिकाओं में तब से छप रही हैं जब वह हाईस्कूल में पढ़ता था। आमतौर पर युवकों में जटिल विचारों से पलायन की प्रवृत्ति होती है लेकिन मनमोहन में यह प्रवृत्ति नहीं थी, उलटे वह जटिल समस्याओं पर मौलिक ढंग से बोलने की अद्भुत क्षमता रखता है। यह क्षमता उसने परिश्रम से अर्जित की है। उसके पास स्मृति का विलक्षण ख़ज़ाना है।

आप उसे एकबार किसी विषय पर छेड़ दीजिए ,वह आपको एकदम नई दुनिया में सैर कराने ले जाएगा। मैं जब भी उससे बातें करता हूं और उसे छेड़ देता हूं तो वह अपने बचपन और मथुरा के लोगों की स्मृतियों से जुड़े क़िस्से सुनाता रहता है। उसके पास स्मृतियों की व्याख्या करने की अद्भुत वैचारिक क्षमता है।वह आज भी मथुरा,जेएनयू, माकपा,रोहतक,लेखक संघ आदि के क़िस्से बड़ी ही बेबाक़ी और स्पष्टवादिता के साथ सुनाता है।

वह बात रसिक है। उसके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमजोरी है न लिखने की आदत। वह जिस स्पीड से सोचता है उस स्पीड से यदि लिख पाता तो हिन्दी जगत का बड़ा उपकार होता। लेखन के प्रति आलस्य ,कैरियर के प्रति उदासीनता, सत्ता के प्रति मोह का अभाव और मार्क्सवाद और माकपा के प्रति उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। कम्युनिस्ट आंदोलन , माकपा, जनवादी लेखक संघ आदि के काम और नीतियों को लेकर उसकी गंभीर आलोचनाएं हैं ,पर वह उनको कभी सार्वजनिक तौर पर व्यक्त नहीं करता।

मनमोहन में व्यक्तित्व विश्लेषण की विलक्षण क्षमता है। वह व्यक्ति के जीवन की जटिलताएं को जिस तरह व्याख्यायित करता है, उस तरह विश्लेषण हिंदी में कोई नहीं करता। इसके अलावा संतोष और धैर्य उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। कवि -लेखक-आलोचक और प्रोफ़ेसर के रूप में मनमोहन ने जिस तरह ज़मीनी स्तर पर हरियाणा में काम किया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। मनमोहन ने जितना लिखा है उसका बहुत कम अंश प्रकाशित हुआ है।

व्यवस्थित लेखन-प्रकाशन में उसकी कोई रुचि नहीं है।उसकी रुचि रही है संगठन बनाने, नाटक मंडलियां बनाने, सांस्कृतिक समूह बनाने में। एक दौर में उसने रोहतक से ‘जतन’ नाम से एक पत्रिका भी अन्य लोगों की मदद से प्रकाशित की थी।

मनमोहन ने सचेत ढंग से परिवार के पुराने परंपरागत ढांचे से लड़ाई लड़ी और उससे अपने को मुक्त किया। इस क्रम में उन तमाम व्यक्तियों से भी उसकी दूरी बनी जो परंपराओं से चिपके रहते हैं।वह बुद्धिमान मित्र बनाना पसंद करता है। संयोग की बात है उसके पास बुद्धिमान मित्रों का विशाल ख़ज़ाना है।स्वभाव से निजी आंतरिक भाव से रहना उसकी प्रधान प्रकृति है।

 

प्रस्तुत हैं मनमोहन की कुछ कविताएं – 

भारतीय संस्कृति

—————–

पहले पहल जब हमने सुना

चमड़े का वॉशर है

तो बरसों बरस नल का पानी नहीं पिया

तब कुओं-बावडि़यों पर हमारा कब्ज़ा था

जो आख़िर तक बना रहा

हमने कुएं सुखा दिए

पर ऐरों-गैरों को फटकने न दिया

अब भी कायनात में पीने योग्य

जितना पानी बचा है

दलितों की बस्ती की ओर रूख करे इससे पहले

हमीं खींच लेते हैं

हमारे विकास ने जो ज़हर छोड़ा

ज़मीन की तहों में बस गया है

बजबजाते हुए हमारे विशाल पतनाले

हमारी विष्ठा हमारा कूड़ा और हमारा मैल लिए

सभ्यता की बसावट से गुजरते हैं

और नदियों में गिरते हैं

जिन्होने बहना बंद कर दिया है

कितना महान सांस्कृतिक दृश्य है कि

हत्याकांड सम्पन्न करने के बाद हत्यारा भीड़ भरे

घाट पर आता है

और संस्कृत में धारावाहिक स्तोत्र बोलता हुआ

रूकी हुई यमुना के रासायनिक ज़हर में

सौ मन दूध गिराता है

——-

हाय सरदार पटेल ! 

—————–

सरदार पटेल होते तो ये सब न होता

कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था

ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता

अब तक मिसाइल दाद चुके होते

साले सबके सब हरामज़ादे एक ही बार में ध्वस्त हो जाते

सरदार पटेल होते तो हमारे देश में

हमारा इस तरह अपमान न होता !

ये साले हुसैन वुसैन

और ये सूडो सेकुलरिस्ट

और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट

इतनी हाय तौबा मचाते !

हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे

हमारे सर पर चठ़कर नाचते !

आबादी इस कदर बढ़ती !

मुट्ठीभर पढ़ी लिखी शहरी औरतें

इस तरह बक बक करतीं !

सच कहें,सरदार पटेल होते

तो हम दस बरस पहले प्रोफेसर बन चुके होते !

————————–

चर्बी महोत्सव

 

जिस तरह प्लास्टिक और पॉलीथिन हमारी नई सभ्यता है

जो अजर अमर हो गई है

चर्बी हमारी नई कल्चर है

जो इतनी नई भी नहीं

आप देख सकते

यह हमारी आँखों के आसपास सहज ही जमा हो जाती है

या गालों पर

या गलफड़ों में उतर आती है

दरअसल, हम चर्बी से बेहाल हुए जाते हैं

हमारी हंसी में चर्बी है

हमारे चुटकुलों में भी यह कम नहीं

बातों में बातें कम चर्बी ज्या़दा है

हाँ, बस रोना चाहें तो ढंग से रो नहीं सकते

समझिए कि एक महोत्सव है

ख़ूबसूरत औरतें और क़ामयाब मर्द सब एक जगह

एक झुरमुट में व्यस्त हैं

लुक़मा चबलाते

बार-बार कन्धे उचकाते हैं

हमारा संप्रभु राष्ट्र-राज्य यही है

और इनके दायरे के बाहर सब दुश्मन देश

देखिए हमारे गोलमटोल बच्चे

जो कल को प्रबन्ध हाथ में लेंगे

अभी किस तरह तुतलाकर दिखलाते हैं

किस तरह खेल-खेल में वे कीटाणुओं को खदेड़ कर

भगा देते हैं और उनके दाँत कैसे चमकते हैं !

——————————

देववाणी 

अड़ियल चट्टानों को ढहा दिया जाएगा

डाइनामाइट लगा दिया जाएगा

ढेलों पर पाटा चला दिया जाएगा

चौरस बनेगा

चौरस

हमारा या आर्यावर्त

बिना कोनों वाला

बिना नोकों वाला

इसे टिकाएंगे हम

हम आर्यपुत्र

हम अमृतपुत्र

इसे टिकाएंगे इसे टिकाएँगे

तलवार की नोंक पर 

जिन्होंने मरने से इन्कार किया- मनमोहन

जिन्होंने मरने से इन्कार किया

और जिन्हें मार कर गाड़ दिया गया

वे मौका लगते ही चुपके से लौट आते हैं

और ख़ामोशी से हमारे कामों में शरीक हो जाते हैं

कभी-कभी तो हम घंटों बातें करते हैं

या साथ साथ रोते हैं

खा खाकर मर चुके लोगों को यह बात पता चलनी

जरा मुश्किल है

जो बड़ी तल्लीनता से अपने भव्य मकबरे बनाने

और अधमरे लोगों को ललचाने में लगे हैं।

फिर भी मेरा क्या भरोसा- मनमोहन

मैं साथ लिया जा चुका हूं

फ़तह किया जा चुका हूं

फिर भी मेरा क्या भरोसा !

बहुत मामूली ठहरेंगी मेरी इच्छाए

औसत दर्जे़ के विचार

ज्यादातर पिटे हुए

मेरी याददाश्त भी कोई अच्छी नही

लेकिन देखिए ,फिर भी,कुत्ते मुझे सूँघने आते हैं

और मेरी तस्वीरें रखी जाती हैं

———————————

ईश वन्दना

धन्य हो परमपिता !

सबसे ऊँचा अकेला आसन

ललाट पर विधान का लेखा

ओंठ तिरछे

नेत्र निर्विकार अनासक्त

भृकुटि में शाप और वरदान

रात और दिन कन्धों पर

स्वर्ग इधर नरक उधर

वाणी में छिपा है निर्णय

एक हाथ में न्याय की तुला

दूसरे में संस्कृति की चाबुक

दूर -दूर तक फैली है

प्रकृति

साक्षात पाप की तरह।

ग़लती ने राहत की साँस ली

उन्होंने झटपट कहा

हम अपनी ग़लती मानते हैं

ग़लती मनवाने वाले खुश हुए

कि आख़िर उन्होंने ग़लती मनवा कर ही छोड़ी

उधर ग़लती ने राहत की साँस ली

कि अभी उसे पहचाना नहीं गया