सीताराम येचुरी:एक स्मरण

 

स्वराजबीर

स्वराजबीर

उसका प्रकाश और तनाव से भरा हुआ माथा

जहां एक कश्मकश की जोत जलती है 

जहां आपसी संवाद की चिंगारी धधकती है 

पर उसके पास उदासी भी थी

हवा संघर्ष के लिए उतावली भी थी

लगता था वह आत्मसंघर्ष में था 

लगता था उसके दिल में इतिहास की वह आग सुलग रही थी

वह बहुत बातें करता था 

दिल को एक सुकून मिलता था 

सूखी शाखाओं में एक आस महक उठती थी 

जीने की उमंग भर उठती थी 

कहता था हम सब एकजुट हो जाएं 

जहां कड़कती हुई धूप हो और तपती हुई छाया हो

पर कौन सुनता है यहां 

एक होने की बात 

सबमें अहंकार का तुफान है 

और वह चला गया 

आस खो चुके जहाज़ की तरह 

बेजमीन हो चुके किसानों की तरह 

वह चला गया है 

और यादों में ऐसी उदासी है 

कि कोई आस नहीं बची 

कोई उम्मीद नहीं बची 

वह मेरे साथ सहमत नहीं होता था 

पर बात सुनता था गौर से 

बात सुनना संवाद का आरंभ है

अब यह संवाद कौन करेगा 

हर किसी को अपने अहंकार की  

बात करनी है 

क्या वह आखिरी आदमी था 

जो हमें एकजुट करके बिठा सकता था 

हमारी बात सुन सकता था 

अपनी बात सुना सकता था 

वह न तो पूरी तरह सही था और न पूरी तरह गलत 

वह हमारे समय का उजड़ा हुआ जंगल था 

तब भी वह हमारे फिर से एक होने की निशानी था 

वह याद आएगा 

याद आएगा उसका शिकन भरा मस्तक 

उसकी उदासी ,उसकी परेशानी 

वह जिसकी आवाज में 

उजड़ चुके गांवों का दर्द था 

संवेदनाविहीन शहर का उदास सवेरा था 

वह चला गया 

और टूटी तारों वाली सारंगी मौन है 

वह चला गया 

जहां हमारे ना होने की छाया और धूप है 

वह चला गया 

और हम मौन हैं 

हम कब बोलेंगे 

मौन के तालों को कब खोलेंगे।

 

अनुवाद-जयपाल