हरियाणा: जूझते जुझारू लोग – 25
ओमप्रकाश शर्मा : एक प्रबुद्ध कार्यकर्ता, जो कर्मचारियों के हित में जेल जाता रहा
सत्यपाल सिवाच
सर्व कर्मचारी संघ,हरियाणा के संघर्षों के दौरान यदि आप हिसार में रहे हैं या किसी काम से जाना पड़ा होगा तो शांत, धीर-गंभीर और समर्पित ओमप्रकाश शर्मा से मुलाकात जरूर रही होगी। कम बोलना, धीरे बोलना और काम टिकाऊ ढंग से करना, मेरी उनसे इसी रूप में पहचान रही है। पिछले समय जब हिसार गया तो बिजली निगम से रिटायर्ड ओमप्रकाश शर्मा से मुलाकात हुई तो उनके समय की बातें साझा करने का सुअवसर मिल गया।
हाल में एकता कालोनी हिसार में आबाद ओमप्रकाश शर्मा जी मूलतः गांव सुलखनी के निवासी हैं। उनका जन्म 02 अक्तूबर 1949 को एक साधारण परिवार में श्रीमती चमेली देवी और श्री प्रभुदयाल के यहाँ हुआ। चार भाई और चार बहनों में वे सबसे बड़े हैं। सबसे बड़े होने का एक अर्थ यह भी होता है कि उन्हें पिताजी के हिस्से की कुछ जिम्मेदारियों को बांटना होता है। वह जिम्मेदारी उन्होंने भी निभाई।
बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद 22 अगस्त 1972 को वे बिजली बोर्ड में यू.डी.सी. पद पर नियुक्त हो गए। 35 साल की नौकरी के बाद 31 अक्तूबर 2007 को सर्किल सुपरिटेंडेंट पद से सेवानिवृत्त हुए।
उनकी पहली नियुक्ति थर्मल पानीपत में हुई थी। वहाँ उनका संपर्क बिजली यूनियन के बड़े नेता रहे प्रेमसागर शर्मा और बी.डी. शर्मा से बन गया। उनसे प्रभावित होकर एच एस ई बी वर्कर्स यूनियन के साथ जुड़ गए। उन्हें सन् 1973 की हड़ताल में गिरफ्तार कर लिया गया और सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। पुनः 1974 में हड़ताल हुई। इस बार भी हड़ताल में शामिल रहे, लेकिन गिरफ्तारी से बच गए। यद्यपि उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। बाद में तीन महीने बाद फिर ज्वाइन करवा लिया गया। वास्तव में बर्खास्तगी आदेश दूसरे ओमप्रकाश के थे।
ओम प्रकाश जी सन् 1978-79 में सब-यूनिट, 1981 में यूनिट के पदाधिकारी चुन लिए गए थे। तब तक यूनियन एक ही थी। बाद में अलग यूनियन बनने पर वे यूनिट और राज्य पदाधिकारी रहे। पढ़ने-लिखने की रुचि के कारण उन्होंने वर्षों तक शक्ति स्वर हिन्दी मासिक के सह-सम्पादक का दायित्व निभाया। आर.सी.जग्गा इसके सम्पादक थे। शर्मा जी प्रगतिशील विचारों के संवाहक और बुद्धिजीवी हैं।
सन् 1986 में ओम प्रकाश शर्मा को सर्व कर्मचारी संघ हिसार खण्ड का संयोजक बनाया गया। चुनाव होने पर वे लम्बे समय तक खण्ड सचिव रहे। उनके लिए पद नहीं, जिम्मेदारी महत्वपूर्ण रही है। वे सन् 1973 में 7 दिन तिहाड़ जेल में रहे। सन् 1989 में वे घर पर नहीं मिले तो पुलिस ने उनकी पत्नी को थाने में बैठा लिया। उनके मिल जाने पर पत्नी को छोड़ दिया और उन्हें सात दिन के लिए जेल जाना पड़ा।
सन् 1991 में लाठीचार्ज के दौरान उन्हें पकड़ा गया था लेकिन 82 अन्य साथियों के साथ जमानत मिलने पर बुड़ैल जेल से रिहा कर दिया गया। सन् 1993 की हड़ताल में वे बर्खास्त रहे लेकिन गिरफ्तार नहीं हुए। संगठन का निर्देश गिरफ्तारी से बचकर काम करते रहने का था। सन् 1989 में इलेक्ट्रिसिटी इम्प्लाइज फेडरेशन ऑफ इंडिया के सम्मेलन के आयोजन में उन्हें वित्त व्यवस्था सौंपी गई थी जिसे अत्यन्त कुशलता और पारदर्शिता के साथ पूरा किया।
सामान्यतः वे कम बोलते हैं लेकिन तोलकर बोलते हैं। उनका मानना है कि पहले के और वर्तमान हालात की यूं तो तुलना करना उचित नहीं है, लेकिन तीखे संघर्षों में कमी आने से आम कर्मचारी का लगाव कम हुआ है। सत्ता का दुरुपयोग करते हुए सरकार जानबूझकर ‘बीएमएस'(भारतीय मजदूर संघ) को बीच में लाकर एकता को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। बड़ी संख्या कच्चे कर्मचारियों की है, जो सीधी लड़ाई में आने से झिझकते हो सकते हैं, लेकिन पीड़ित व्यक्ति खुद आगे नहीं आए तो शोषण से मुक्ति का कोई रास्ता भी नहीं दिखता। समस्याएं हैं, संभावनाएं भी हैं। सौजन्यः ओमसिंह अशफ़ाक

सत्यपाल सिवाच

 
			 
			