अरुंधति के बहाने…

 

कुछ विद्वान लोग अरुंधति के लेखन से नाराज हैं तो कुछ उनके सिगरेट पीने की तस्वीर पुस्तक के कवर पेज पर छपने के कारण। सबकी नाराजगी के अपने-अपने बहाने हैं। वे कितने सीरियस हैं इस पर बहस करना बेमानी है। ऐसे ही एक विद्वान के सवाल के जवाब साहित्यकार वीरेंद्र यादव ने अपने फेसबुक व़ॉल पर दिया है। उसे साभार प्रकाशित किया जा रहा है।

अरुंधति के बहाने…

वीरेंद्र यादव

अरुंधति रॉय की घेराबंदी करने वालों के सवाल बड़े मौलिक हैं। पहले तो यह पूछा गया कि अरुंधति ने चीन के गलवान पर अतिक्रमण के बारे में क्यों नहीं लिखा? जब उन्हें किताब का नाम और पृष्ठ संख्या सहित यह जानकारी दी गई कि उन्होंने यह सब लिखा/बोला है तो अब उन्होंने निम्न मौलिक सवाल दाग दिया है, आप भी देखिये:

“मेरी अरुंधती रॉय को पूरा पढ़ने वाले विद्वानों से एक जिज्ञासा है कि क्या उनकी वैचारिक लाइन और गांधी से लेकर कश्मीर आदि मुद्दों पर उनके सनसनीखेज बयानों का उनके कथा साहित्य से कोई संबंध है? यह जिज्ञासा इसलिए है कि रचनात्मक लेखन और विचारधारा के बीच संबंध होता है। यदि संबंध नहीं है तो यह प्रश्न उठता है कि फिर आखिर ऐसे बयान रॉय ने किस उद्देश्य से दिए? कथा साहित्य में रॉय की विचारधारा क्या है?”

उपरोक्त जिज्ञासा पर कुछ वर्षों पूर्व का एक वाकया याद आया । हिंदी के एक प्रतिष्ठित आलोचक ने प्रेमचंद की घेराबंदी करते हुए यह सवाल उठाया कि ‘आखिर गोदान का होरी गाय ही क्योँ खरीदना चाहता है, बैल क्यों नहीं? ‘ मैंने लिखकर उन्हें जवाब दिया कि इसलिए कि होरी के पास बैलों की एक जोड़ी पहले से ही थी और प्रेमचंद ने गोदान की पहली पंक्ति में ही यह सूचना दर्ज़ की है।

फ़िलहाल अब अरुंधति रॉय के औपन्यासिक और वैचारिक लेखन के बीच संबंध पर आयें। दरअसल जब बिना पढ़े बहस की जाती है तो ऐसी ही मौलिकता का इल्हाम होता है। काश, उन्होंने अरुंधति का उपन्यास ‘ दि मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ पढ़ा होता! यह उपन्यास तो उनकी वैचारिकता की औपन्यासिक प्रस्तुति ही है। इसमें कश्मीर, दलित, आदिवासी से लेकर वे सारे मुद्दे हैं, जिन पर वे इस समूचे दौर में लिखती बोलती रही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि कथा साहित्य में अरुंधति रॉय की विचारधारा इतनी प्रकट तौर पर प्रस्तुत होती है कि कुछ लोगों का यह कहना भी है कि यह उपन्यास तो उनके विचारों की ही औपन्यासिक प्रस्तुति है। इस उपन्यास पर लिखते हुए मैंने इस पहलू पर विस्तार से लिखा है। अब इसका क्या करेगें कि अपनी नई पुस्तक ‘मदर मैरी कम्स टू मी’ में भी माँ पर लिखते हुए बेटी अपनी वैचारिकता को बिखेरती रहती है!

विद्वान आलोचक प्रोफेसर संपादक से यही सविनय निवेदन है कि अरुंधति को न पढ़ने के हठयोग से मुक्त होकर मित्र अरुंधति का लिखा कुछ पढ़ तो लीजिये। पढ़ा होता तो कम से कम से कम अरुंधति प्रसंग में यह सवाल तो न करते!

वीरेंद्र यादव

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