इसराइल साहब की स्मृति में

मजदूरों खासतौर पर फैक्ट्री श्रमिकों को केंद्र में रखकर हिंदी में बहुत कम कहानियां लिखी गई हैं।  परंतु इसराइल उन्हीं के बीच से निकले हुए एक कहानीकार थे। मजदूरों के  श्रम, मनोविज्ञान, उनकी चेतना, उनके संघर्ष को जितनी बारीकी से इसराइल ने देखा और उसको कहानी के रूप में बुना,  वैसा हिंदी में बिरले ही किसी ने रचना की हो। मार्क्सवादी चेतना से लैस इसराइल ने मजदूरों की एकता और उनकी जिजीविषा को समझा और उन्हें शब्दों में ढाला। वे कालजयी कहानीकार थे। अरुण माहेश्वरी से उनके निकट के रिश्ते थे। अरुण जी ने इसराइल जी को अपने फेसबुक वाल पर याद किया है। हिंदी के साहित्याकारों, सुधी पाठकों के लिए उसे यहां साभार दिया जा रहा है। सं.

अरुण माहेश्वरी

आज 26 दिसंबर । पूरे 23 साल पहले, 26 दिसंबर 2001 के दिन इसराइल साहब का देहांत हुआ था । तब मैं काम के सिलसिले में कनाडा में था । खबर मिलते ही कोलकाता के लिए रवाना हुआ और किसी प्रकार 27 दिसंबर को उनको दफनाने के अंतिम कामों में उपस्थित रह सका ।

जाहिर है कि तब से अब तक लगभग एक चौथाई सदी बीतने वाली है । गंगा से बहुत सारा पानी बह चुका है । पर इसराइल साहब के खयाल से यही लगता है कि अगर समय को मापने के लिए हमारे पास तिथियों का औजार न होता तो यह बहुत सारा बहता हुआ पानी भी बर्फ की तरह जमा हुआ ही प्रतीत होता । स्मृतियों से ज्ञान की कुछ टपकी हुई बूंदे ही घटनाओं के रूप में जीवन के प्रमाण स्वरूप बची होती ।

सचमुच, लंबे अंतराल के बाद भी इसराइल साहब की स्मृतियां जीवन के ऐसे अवभास सी बनी हुई है जिसमें हम आज भी अपने तमाम रूपों का अनुभव करते हैं । घड़ी की सूईं की यह अटकन ही चेतना का प्रत्यवमर्श है जो बार-बार अपनी ही ओर लौटकर स्वयं को पहचानती है । इसराइल साहब हमारे स्वयं के लिए वैसे ही एक संदर्भ बिंदु हैं ।

बहरहाल, आज उन्हें विशेष रूप से याद करने की बड़ी वजह यह है कि ‘वांग्मय’ पत्रिका के संपादक, अलीगढ़ निवासी डा. फिरोज खान ने, जिन्होंने कुछ महीनों पहले इसराइल साहब पर अपनी पत्रिका का एक विशेषांक प्रकाशित किया था और उन पर प्रकाशित लेखों का एक संकलन ‘जनवादी कथाकार इसराइल का रचना संसार’ भी निकाला था, अब अपने संपादन में कानपुर के विकास प्रकाशन से ‘इसराइल कथा समग्र’ प्रकाशित कराया है । यह कथा-समग्र शायद अब तक बाजार में आ चुका होगा । इसराइल साहब के साहित्य पर भारी महत्व के इन कामों के लिए डा. फिरोज खान के प्रति जितना भी आभार प्रकट किया जाएं, कम होगा ।

प्रसंगवश, डा. खान के अनुरोध पर इस ‘कथा समग्र’ की हमने जो भूमिका लिखी है, उसे यहां इसराइल साहब की स्मृतियों में श्रद्धांजलि स्वरूप मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ:

 

भूमिका

 

‘ईश्वरीय स्पर्श’

 

गाब्रिअल गार्सिया मार्केस के उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड’ (एकान्त के सौ वर्ष) को जिन्होंने भी पढ़ा है वे उसके उस प्रारंभ को कभी नहीं भूल पाते हैं जो किसी चुंबक की तरह पाठक को तत्काल उस जीवन के अजीबोगरीब रहस्यों के पाश में बांध लेता है । उपन्यास के एक केंद्रीय चरित्र कर्नल ओरलियानी बुएनदीया की स्मृतियों की छाया से बुना गया रहस्यों का वह तानाबाना न जाने कितने सालों पहले के उस प्रागैतिहासिक युग की चर्चा से शुरू होता है जब मार्केस के शब्दों में ‘कई चीजों का नाम तक नहीं पड़ा था’, तब ओरलियानी के पिता को बंजारों ने बर्फ से परिचित कराया था । ओरलियानी के माकोन्दी गांव में तब हर साल मार्च के महीने में बंजारों के परिवार डेरा डाला करते थे । उन्होंने सबसे पहले लोगों को चुंबक दिखा कर विस्मित किया जिसके बारे में मार्केस लिखते हैं कि उसके घरों में प्रवेश से धातु के बर्तन-भांडे भड़भड़ा कर लुढ़कने लगते थे । यहां तक कि “लकड़ी की कड़ियाँ कीलों और पेंचों के उखड़ पड़ने की कसक के साथ चरमराने लगती थी । बहुत अर्से से खोई हुई चीजें ठीक वहीं से अवतरित होने लगी जहाँ उन्हें सबसे अधिक ढूँढ़ा गया था”। इस प्रकार, यथार्थ को किसी मैग्निफाइंग ग्लास से देखने की इस सर्रियलिस्ट पद्धति को ही उपन्यास की जादूई यथार्थवादी शैली कहा जाता है । किसी अपरिचित संसार के साक्षात्कार से विस्फारित आँखों से देखा गया यथार्थ । अज्ञात के स्वरूप की अनुपातहीन विस्मयकारी तस्वीर।

“चीजों में अपनी खुद की जान होती है”, बंजारे ने कर्कश स्वर में ऐलान किया, “बस आत्मा को जगाने भर की बात है ।”

आज लगभग चौथाई सदी पहले हमसे बिछुड़ चुके इसराइल साहब की कहानियों की प्रस्तावना के वक्त उनके कथाकार व्यक्तित्व की सारी यादें हमें कुछ वैसे ही आदिम विस्मय के भाव से भर देती है । मार्केस के ‘एकान्त के सौ साल’ का पूरा आख्यान ही हमारे सामने एक ऐसे रूपक की तरह आता है जो हर रोज अपने जाने हुए जीवन के ही अज्ञात, बल्कि खोए हुए पहलुओं से किसी ‘परासत्य’ के आभास की तरह परिचित कराके अवाक करने के संकेत देता है ।

इसराइल साहब के पास वास्तविक जीवन में जितनी कहानियां हुआ करती थी, उनकी तुलना में उन्होंने बहुत कम लिखा था । जैसा कि इस समग्र से जाहिर है, कुल जमा पचीस कहानियाँ और एक उपन्यास । वे हमारे परिवार के सदस्य थे । लगभग पैतींस सालों तक उनका हमारे घर नियमित आना-जाना था । इर्द-गिर्द के तमाम चरित्रों के विश्लेषण की उनकी अद्भुत क्षमता के चलते ही उनके साथ हमारी गप्पों का कभी कोई अंत नहीं होता था । मैं अपने कारखाने से हर शाम सीधे पार्टी आफिस में ‘स्वाधीनता’ के दफ्तर पहुँचता और वहीं से गप्प का जो सिलसिला शुरू होता, शाम आठ-साढ़े आठ बजे पार्टी आफिस से निकल कर हम तीनों सीधे पार्क स्ट्रीट के अपने घर पहुँच जाते और वहां से रात के दस बजे के पहले इसराइल साहब नहीं लौटा करते थे । मजाक में हमारी मां उन्हें सरला की सौतन कहा करती थी ।

बहरहाल, उन्होंने कम लिखा लेकिन जितना और जब भी लिखा, उसने अपने समय के पाठकों को अनोखे विस्मय से भर दिया । उनकी कहानियाँ हिंदी के कथा जगत के अधूरे संकेतनों से भरे अंधेरे में एक बिल्कुल नए संकेतक की कौंध की तरह आया करती थी। वे जैसे एक अन्य जगत के अवचेतन की कहानी कह रहे होते थे । वे उन जगहों से अपनी कहानियाँ उठाते थे जो अन्य ‘प्रतिबद्ध’ माने जाने वाले लेखकों के लिए भी उनकी इच्छा और वास्तविक क्रिया के बीच के फ़र्क़ की जगह होती थी । हम जो कहना चाहते हैं और जो कहते हैं, उसमें जो फ़र्क़ की ज़मीन होती है, वह प्रमाता के अवचेतन की ज़मीन होती है । इसराइल की कहानियाँ मज़दूर जीवन की इसी अप्रकाशित जमीन को प्रकाशित किया करती थी ।

दुनिया में जैसे गोर्की, लू शुन और प्रेमचंद ने क्रमशः मजदूरों, गरीब दुखीजनों और किसानों की कहानियाँ कह कर विश्व कथा जगत में मेहनतकशों और वंचितों के उपेक्षित कोनों को रोशन किया था, कुछ वैसे ही चंद कहानियों और एक उपन्यास के अपने सीमित परिसर से इसराइल ने भी उन मजदूरों की कहानियां कह कर अपने समय के हिंदी के कथा जगत पर अपना सिक्का जमा लिया था जिन्होंने कोलकाता की चटकलों के सामंती सरदारों से स्वतंत्र एक संगठित वर्गीय चेतना की दिशा में अभी छोटे-छोटे कदम बढ़ाने शुरू ही किए थे और जो हर रोज अपने जीवन में विक्षोभ से उत्पन्न विक्षिप्तता की अद्भुत कहानियां पैदा करते थे । कहना न होगा, इसराइल के जरिये भारत में औद्योगिक पूँजी के एक सबसे प्रारंभिक स्रोत चटकलों के मज़दूर इलाक़ों में पूँजी की ग़ुलामी और आदमी की स्वतंत्रता के बीच के आदिम द्वंद्व, बेबस मज़दूर और अपनी मर्ज़ी के मालिक मनुष्य के मूलभूत अन्तर्द्वन्द्व को वाणी मिली थी ।

इसराइल ने किसी बुद्धिमान ट्रेडयूनियन नेता, या मजदूरों की लड़ाई के नायक की कहानी नहीं लिखी, पर उन्होंने ट्रेडयूनियनों के गठन से आम मजदूरों के जीवन में पैदा होने वाली हलचल और उससे उत्पन्न विक्षोभ और विक्षिप्तता के उन नाना रूपों की कहानियां लिखी जिन्हें वर्ग-चेतन समाजवादी यथार्थवाद के कोरे सैद्धांतिक सूत्रों से क़तई हासिल नहीं किया जा सकता था । इसराइल के चरित्रों का संसार क्षोभ की उस शुद्ध अति के नकारात्मक भाव का जगत था जो लक्ष्यहीन होने पर भी यथास्थिति का उग्र विरोधी था । वह जीने के फ्रायडियन ‘आनंद सिद्धांत’ से मुक्त एक ऐसा दरकता हुआ अस्थिर जगत था जिसकी दरारों से ही सतह के नीचे के बदलावों की झलक मिला करती है । इसराइल के उपन्यास ‘रोशन’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने विक्षोभ से जुड़े मनुष्य के उल्लासोद्वेलन (jouissance) के तत्व पर एक पूरी पुस्तिका ही लिखी है – विक्षोभ ।

जब इसराइल लिख रहे थे, ’60 से ’90 के दशक तक का वह काल देश में वामपंथी-जनवादी आंदोलन के व्यापक उभार का काल था । समाजवादी विश्व कायम था और भारत की फ़िज़ा भी भूमि संघर्ष और वर्ग संघर्ष की गूँज से भरी हुई थी । साहित्य में यथार्थवाद − आलोचनात्मक यथार्थवाद – समाजवादी यथार्थवाद की कसौटियों की धूम थी । कहानियों में मजदूरों, किसानों, आम आदमी, सामान्य आदमी आदि की कमी नहीं थी । ऐसे समय में इसराइल के मजदूर की खूबी यह थी कि वे सर्वनाम की तरह किसी सुपरिभाषित समूह की श्रेणी में नहीं पड़ते थे। वे कोलकाता के निकटवर्ती चटकलों के मजदूर इलाकों के धूल-धुएँ से भरे समग्र जीवन के खास जीव थे, जो श्रमजीवी थे, तो श्रमिकों के बीच ही जीने वाले श्रम के अवसरों से वंचित कर दिये गये बेजुबान परजीवी भी थे; विक्षिप्त समाज-विरोधी, नीचे की सतह के ‘जान मराई’ जैसे अजीब किस्म के पेशों से जुड़े समूह का हिस्सा थे, तो किसी भी अन्य की उपस्थिति से बेखबर, अपनी ही धुन में रमा हुआ शुद्ध प्रेमी, अन्य के प्रति उन्मुख न रहने के कारण स्वतंत्र पर अनंत अभिलाषाओं से भरे सर्वहारा के मुक्त भाव से दूर, इच्छाओं के अंत से पूरित संसार के प्राणी थे । इसीलिए इसराइल के चरित्रों का किसी नेता या नायक के रूप में उत्तरण नहीं होता; न वह मन मसोस जीता है और न किसी उच्च अभिलाषा के साथ जीता है ।

इसराइल खुद उत्तर 24 परगना के कांकीनाड़ा में चटकल मज़दूर थे । पढ़ने-लिखने के उनके रुझान को देख कर ही चटकलों के प्रसिद्ध मज़दूर नेता निरेन घोष, कमल सरकार ने उन्हें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआईएम) के मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ का पूरावक्ती कार्यकर्ता बना दिया । 1964 में तब संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद सीपीआई(एम) का गठन हुआ ही था । ‘स्वाधीनता’ संयुक्त पार्टी का हिंदी मुखपत्र था जिस पर पार्टी के विभाजन के बाद सीपीआई(एम) का अधिकार क़ायम हो गया था । ‘स्वाधीनता’ से जुड़ कर ही इसराइल का कथाकार परवान चढ़ा था । यही वह केंद्र था जहां से वे अनायास ही राजनीति और साहित्य के अखिल भारतीय विमर्शों के बीच में आ गए थे ।

वह समय बंगाल में सीपीआई(एम) के नेतृत्व में बड़े-बड़े आंदोलनों और पार्टी के तीव्र विस्तार का समय था । पूरे भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर जो नया और गहरा विचाधारात्मक विमर्श शुरू हुआ था, कोलकाता उसके केंद्र में था । कोलकाता में ही सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी का दफ़्तर था और ‘स्वाधीनता’ केंद्रीय कमेटी का मुखपत्र । यही वजह है कि लेखन के मामले में इसराइल को शायद ही कभी किसी प्रकार के स्थानीयतावाद की समस्या का सामना करना पड़ा हो । कोलकाता में रहने के बावजूद साठोत्तरी पीढ़ी, भूखी पीढ़ी, श्मशानी पीढ़ी, अकविता, अकहानी की तरह के साहित्य के नित नए फ़ैशन की ओर उन्होंने कभी झांक कर देखने की भी ज़रूरत नहीं महसूस की । किताबों के ज़रिए हिंदी और बांग्ला के श्रेष्ठ कथा साहित्य से तो उनका परिचय था ही, ‘स्वाधीनता’ कार्यालय ने उन्हें हिंदी के स्थानीय वामपंथी लेखकों के साथ ही उस समय के हिंदी के वामपंथी रुझान के तमाम राष्ट्रव्यापी बड़े लेखकों, आलोचकों और श्रेष्ठ संपादकों के संपर्क में ला दिया । इसराइल की कहानियाँ बिल्कुल शुरू से ही भैरव प्रसाद गुप्त, श्रीपत राय, मार्कण्डेय और चन्द्रभूषण तिवारी जैसे अपने समय के दक्काक संपादकों की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी । उनकी हर कहानी पर खूब चर्चा होती थी और इस प्रकार शुरू से ही उनका लेखन हिंदी कहानी के एक नए मयार के रूप में नजर आने लगा था । उनके कथ्य और लेखन को बड़े-बड़े संपादकों ने संवारा था जिनसे उनके सामने खुद के लेखन के ही हमेशा बेहद ऊँचे मानदंडों की चुनौती उपस्थित रहती थी । इसी वजह से उन्होंने बहुत कम लिखा पर जो भी लिखा, मज़दूर बस्तियों के उनके निजी यथार्थ के साथ साहित्य के ऊँचे मानदंडों के योग ने उनके लेखन को वह सौष्ठव प्रदान किया जो किसी भी दूसरे कथाकार के लिए रश्क का विषय हो सकता है । सचमुच इसराइल साहब की कहानियाँ कथ्य और शिल्प से जुड़े तमाम कारणों से आज भी मध्यवर्ग के लेखकों की जमात के लिए किसी जलते हुए अंगारे से कम नहीं हैं जिन्हें पकड़ने की कोशिश में वे सिर्फ अपना हाथ जला सकते हैं, हासिल कुछ नहीं कर सकते । वे उनके लिए एक बिल्कुल दूसरे जगत से पैदा हुई कुछ वैसे ही विस्मय की कहानियाँ हैं, जिसका ज़िक्र हमने यहाँ मार्केस के लेखन की सर्रियलिस्ट शैली के संदर्भ में किया हैं ।

इसराइल विपरीत से विपरीत हालात में भी एक अदने से आदमी के ज़िन्दा होने के संकेतों के रचनाकार थे । चटकलों की तरह के मजदूर इलाकों के चरित्रों की ऐसी असली कहानी कहना उन मध्यवर्गीय लेखकों के बूते में नहीं हो सकता हैं जिनका हिंदी कथा साहित्य पर हमेशा से वर्चस्व बना हुआ है । व्यापक अर्थ में इसराइल हमें तीसरी दुनिया के अभिशप्त मजदूरों की बस्तियों के विचित्र चरित्रों के रहस्यों के एक अनूठे कथाकार दिखाई देते हैं ।

मार्केस ने जो कहा था कि “चीजों में अपनी खुद की जान होती है, बस आत्मा को जगाने भर की बात है”, इसराइल ने अपनी कहानियों के स्पर्श से मजदूर बस्तियों के उसी ‘अहिल्या’ पत्थर को जगाने का काम किया है । और जिस स्पर्श से पत्थर बोलने लगे, वही ईश्वरीय स्पर्श कहलाता है – एक स्फूरित सत्ता वाला स्थिति रूप, जो अनेक प्रकार की सृष्टि की संभावनाओं से भरा होता है ।

पिछले दिनों डा. एम. फ़िरोज़ खान साहब ने अपनी त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘वांग्मय’ का इसराइल पर केन्द्रित एक शानदार विशेषांक प्रकाशित किया था । अब उन्होंने ही इस इसराइल समग्र के प्रकाशन का बीड़ा उठाया है । हिन्दी साहित्य के लिए उनकी इस सेवा की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। हम तो उनके इस कार्य के लिए व्यक्तिगत रूप से उनके आभारी है। हमारा विश्वास है कि इस समग्र की प्रस्तावना में हमने यहाँ जो लिखा है, इसराइल की रचनाओं को पढ़ कर किसी को भी इसमें अतिशयोक्ति का लेश मात्र नज़र नहीं आयेगा । इसराइल की पुनर्खोज हिन्दी के समग्र कथा जगत के लिए अपनी ही पुनर्खोज से कम बड़ा अनुभव साबित नहीं होगा ।